मौतों की जवाबदेही: भस्मासुर न बने मुनाफे का औद्योगिक मॉडल
भस्मासुर न बने मुनाफे का औद्योगिक मॉडल
यह खबर विचलित करती है कि एक साल में नब्बे लाख लोग प्रदूषण के चलते मौत के मुंह में समा जाते हैं। सबसे चिंता की बात यह कि एक साल में भारत में वायु प्रदूषण से सोलह लाख से अधिक लोग मरे। दुनिया की चर्चित स्वास्थ्य पत्रिका लैंसेट की ताजा रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2019 में प्रदूषण से जो नब्बे लाख मौतें हुई उसमें पिचहत्तर फीसदी मौतें वायु प्रदूषण से हुई हैं। साथ ही तेरह लाख लोगों की मौतें प्रदूषित पानी पीने से हुई। दुनिया में होने वाली हर छठी मौत का प्रदूषण से होना बताता है कि हमें आधुनिक विकास मॉडल की विसंगतियों पर नये सिरे से विचार करना होगा। आज जो औद्योगिक व रासायनिक प्रदूषण लाखों जिंदगियां लील रहा है उस पर अंकुश लगाने की गंभीर पहल होनी चाहिए। निस्संदेह, यह समस्या केवल भारत या विकासशील देशों की ही नहीं है, विकसित देश भी इस संकट से जूझ रहे हैं। लेकिन संपन्न देश इस संकट से बचाव के उपायों को करने में सक्षम हैं। दरअसल, विकसित देशों की समृद्धि शेष दुनिया के संसाधनों के अनैतिक दोहन और पर्यावरण की चिंता किये बगैर हुई औद्योगिक क्रांति के जरिये ही आई है। जब विकासशील व गरीब मुल्कों ने अपनी विशाल जनता का पेट भरने को उद्योगों के विस्तार का निर्णय लिया तो पश्चिमी देशों ने पर्यावरण संकट का राग अलापना शुरू कर दिया। वहीं वैश्विक पर्यावरणीय चिंताओं को दूर करने के लिये विकासशील देशों ने गरीब मुल्कों द्वारा ग्रीन हाउस गैसों पर नियंत्रण के लिये उठाये जाने वाले कदमों के एवज में जो मदद का वायदा किया था, उसे पूरा नहीं किया गया। यही वजह है कि टोक्यो समझौते, पेरिस समझौते से लेकर ग्लासगो घोषणापत्रों को अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। जबकि हकीकत यही है कि दुनिया के गरीब व विकासशील देश पश्चिमी देशों के साम्राज्यवाद और मुनाफे की लिप्सा की कीमत चुका रहे हैं।
दरअसल, मनुष्य की लालच की हद तक मुनाफा कमाने की होड़ ने बीसवीं सदी से ही प्रदूषण का जहर वातावरण में घोलना शुरू कर दिया था। कालांतर यही विकास मानव को विनाश की ओर ले जाने लगा। आज दुनिया का तापमान उस स्तर तक जा पहुंचा है कि ग्लोबल वार्मिंग के रूप में कुदरत के कहर से मानव कराह रहा है। दरअसल, पर्यावरण के मानकों को ताक पर रखकर मुनाफा कमाने के लालच ने लाखों निर्दोष लोगों को प्रदूषण के जरिये मौत के मुंह में धकेल दिया है। ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ कारखानों-फैक्ट्रियों से ही प्रदूषण पैदा हुआ है, वाहनों की बढ़ती होड़ भी इसमें बड़ा कारक बना है। संपन्नता के चलते एक घर में तीन-चार कार रखने वालों की भी इसमें भूमिका है। वाहनों का प्रदूषण भी मानव जीवन के लिये एक चुनौती बन गया है। सरकारें हैं कि सार्वजनिक परिवहन की गुणवत्ता सुधारने के लिये गंभीर प्रयास करती नजर नहीं आ रही हैं। प्रदूषण का संकट मानवता के लिये बड़ी चुनौती पैदा कर रहा है और देश व सरकारें गैरजरूरी मुद्दों में उलझी हुई हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध समेत दुनिया के अन्य युद्धों से पैदा होने वाला जहरीले बारूद का धुंआ भी इस संकट को और बढ़ा रहा है जिसके चलते वातावरण में जहरीली गैसों व रसायनों का घुलना बदस्तूर जारी है। उन लोगों के लिये यह संकट और बड़ा है जो इन उद्योगों में काम कर रहे हैं। लाखों लोग महज जहरीले रसायनों के संपर्क में आने से असमय मौत के मुंह में समा जाते हैं। सरकारों को स्वच्छ ऊर्जा के उपयोग को तरजीह देकर जहरीला धुआं उगलने वाले थर्मल पॉवर प्लांटों के विकल्पों के बारे में सोचना होगा। इससे पहले कि यह संकट और गहरा हो, सरकार व नागरिकों के स्तर पर इसे रोकने की सार्थक पहल हो। पर्यावरण संरक्षण पर प्रत्येक वर्ष होने वाले धनी देशों के सम्मेलन के आयोजन के बजाय गरीब मुल्कों की मदद के विकल्प पर ध्यान देना होगा। गरीब मुल्कों की समस्या यह है कि प्रदूषण से पहले उनकी प्राथमिकता अपने लोगों के पेट भरने की है। फिर भी सभी देशों को पर्यावरण के अनुकूल रोजगार के स्रोत तलाशने होंगे।
दैनिक ट्रिब्यून के सौजन्य से सम्पादकीय