विवेकशीलता और समाज
मानव सभ्यता के विकास का इतिहास मनुष्यों द्वारा मनुष्यों के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अधिकारों के क्रूरतापूर्ण हनन के कृत्यों से भरा हुआ है।
जगमोहन सिंह राजपूत; मानव सभ्यता के विकास का इतिहास मनुष्यों द्वारा मनुष्यों के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अधिकारों के क्रूरतापूर्ण हनन के कृत्यों से भरा हुआ है। दास प्रथा, रंगभेद, लिंगभेद, सतीप्रथा, बाल विवाह और जातिगत ऊंच-नीच तथा छुआछूत आदि जैसी प्रथाओं, मान्यताओं और नियमों नें सदियों तक जो प्रताड़नाएं अपने ही लोगों को दीं, वे इक्कीसवीं सदी के युवाओं को आश्चर्य में डाल देंगी; असंभव लगेंगी। अफ्रीका से जबर्दस्ती पकड़ कर ले जाए गए लोगों को अमेरिका में बकायदा मंडियों में नीलाम किया जाता था। मालिक को जो अधिकार मिलते थे, वे सभी नियमाबद्ध होते थे!
ऐसी अनेक कुप्रथाओं में बदलाव के लिए कितने ही बलिदान दिए गए। अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर किंग जूनियर, महात्मा गांधी इस बड़ी श्रृंखला से जुड़ते हैं। पर पूर्ण सफलता अभी तक नहीं मिली है। महिलाओं के साथ भेदभाव पूरी तरह कब समाप्त हो सकेगा, कहना मुश्किल है। दुनिया में सबसे बड़े विभेद तो गरीब और अमीर के रूप में न केवल विद्यमान रहे हैं, आज भी बढ़ते जा रहे हैं। आज भी ऐसे देश हैं, जो महिलाओं की शिक्षा की आवश्यकता को ही नकार देते हैं।
संयुक्त राष्ट्र इसे मानता है। रंग, क्षेत्र, नस्ल, जाति के भेद से इस सार्वभौमिक सिद्धांतगत स्वीकार्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए, यह भी सभी स्वीकार करते हैं। इसी दृष्टिकोण परिवर्तन के साथ यह समझ भी बढ़ी कि हर व्यक्ति को एक सम्मानपूर्ण जीवन जीने का नैसर्गिक अधिकार मिलना ही चाहिए। जो सक्षम हैं, उन्हें अन्य की मूलभूत आवश्यकताओं की उपलब्धता में सहायता करनी चाहिए।
सबसे पहले तो रोटी, कपड़ा और मकान पर ध्यान दिया गया, पर इतना ही काफी नहीं था। इसके साथ-साथ मानवीय गरिमा और आत्मसम्मान पर भी व्यावहारिक रूप में ध्यान दिया जाने लगा। इसी सोच की परिणति थी संयुक्त राष्ट्र संघ (अब संयुक्त राष्ट्र) द्वारा 'वर्ल्ड डिक्लेरेशन आफ ह्यूमन राइट्स चार्टर' का 1948 में स्वीकार किया जाना।
पिछली सदी से प्रजातांत्रिक देशों के संविधान में मानवाधिकार लगभग आवश्यक रूप से सम्मिलित रहे हैं। इसे सार्वभौमिक करने के लिए यह विचार भी वैश्विक स्वीकार्यता पा चुका है कि अगर शिक्षा- अच्छी गुणवत्ता तथा आवश्यक कौशलों से युक्त- हर व्यक्ति तक पहुंच जाए तो मानवीय गरिमा और आत्मसम्मान के विस्तार में सबसे अधिक सहायता मिलेगी। अपेक्षा थी कि ऐसा हो जाने पर हर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को सीमित करना सीखेगा। प्रकृति-प्रदत्त अधिकारों को जानेगा, अपने उत्तरदायित्वों से परिचित होकर उनका निर्वाह करेगा और शासन व्यवस्था से अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए सजग और सतर्क रहेगा!
प्रकृति के रहस्यों को अपनी जिज्ञासा, सर्जनात्मकता और लगनशीलता के आधार पर मनुष्य प्रारंभ से ही उद्घाटित करता रहा है। पर, अब लगता है कि मानवहित में उपयोग से अधिक मनुष्य की रुचि ज्ञान के दुरुपयोग में बढ़ती जा रही है। विवेक शून्य ज्ञान के उपयोग का मानवता को झकझोरने वाला दुर्दांत प्रकरण था- हिरोशिमा और नागासाकी। वैसा फिर से न हो इसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कितने ही प्रयास किए गए, मगर हिंसा, अविश्वास और युद्ध बढ़ते ही रहे।
यूक्रेन युद्ध से सारा विश्व हतप्रभ है। मानव सभ्यता का यह कौन-सा पड़ाव है? अफगानिस्तान, लीबिया, यमन, इराक, जैसे देशों नें क्या-क्या नहीं देखा! द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जो बेचैनी प्रबुद्ध वर्ग ने महसूस की थी, जिसके कारण संयुक्त राष्ट्र और उससे जुड़ी संस्थाएं बनीं, वह अब दिखाई नहीं देती है। एक से एक घातक हथियार बनाने की होड़ मची हुई है। ये सब उच्च शिक्षा प्राप्त लोग ही हैं।
आज जब विश्व में हर तरफ युद्ध, हिंसा, अविश्वास का बोलबाला है और हर कोई इससे प्रभावित है, हर देश को अपनी संस्कृति और ज्ञानार्जन परंपरा के आलोक में अपनी सकारात्मक उपस्थिति की संभावना तलाशनी होगी। इस समय पंद्रह से ऊपर के आयुवर्ग की वैश्विक साक्षरता दर 86.3 प्रतिशत है, जो पुरुषों में नब्बे और महिलाओं के लिए 82.7 फीसद है। भारत में यह कमश: 74.04, 82.14 और 65.46 प्रतिशत है। इसके लिए विश्व-स्तर पर अनेक प्रयास सम्मिलित रूप में किए गए।
इस समय विश्व के सामने सत्रह 'सतत विकास लक्ष्य' रखे गए हैं, जिन्हें 2030 तक पूरा करने के लिए सभी देश प्रतिबद्ध हैं। अधिकतर देशों में सत्तासीन अच्छी और उच्च शिक्षा प्राप्त लोग ही होते हैं। इन्हीं सबने मिलकर हर अवसर पर प्रत्येक व्यक्ति तक साक्षरता और अच्छी गुणवत्ता तथा कौशलों से युक्त शिक्षा पहुंचाने के आश्वासन दिए हैं।
इसके लिए उत्तरदायी राष्ट्रीय संस्थानों ने बिना किसी अपवाद के अपनी नीतियों, पाठ्यक्रमों, पाठ्यचर्या, पाठ्यपुस्तकों में चरित्र निर्माण, मानवीय मूल्यों को आत्मसात करने की आवश्यकता, वैश्विक भाईचारा जैसे व्यक्तित्व विकास के कारकों को सम्मिलित किया है। भारत की नई शिक्षा नीति में इसे एक बार पुन: स्पष्ट किया गया है: 'शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य अच्छे इंसानों का विकास करना है- जो तर्कसंगत विचार और कार्य करने में सक्षम हों, जिनमें करुणा और सहानुभूति, साहस और लचीलापन, वैज्ञानिक चिंतन और रचनात्मक कल्पना शक्ति, नैतिक मूल्य और आधार हो। इसका उद्देश्य ऐसे उत्पादक लोगों को तैयार करना है, जो संविधान द्वारा परिकल्पित- समावेशी और बहुलतावादी समाज के निर्माण में योगदान करें।'
ऐसा उद्देश्यपूर्ण कथन भारत में शिक्षा के प्रत्येक दस्तावेज में नीतिगत स्तर पर सदा ही स्थान पाता रहा है। इस बार आगे के वर्षों में इस उद्देश्य को व्यावहारिक रूप में प्राप्त करा सकने के प्रयासों की सफलता इस तथ्य की समझ पर निर्भर करेगी कि अभी तक हम इसमें व्यापक स्तर पर सफल क्यों नहीं हुए? हम नई पीढ़ी को किस बड़े उद्देश्य के लिए तैयार करते हैं? क्या वे वैश्विक भाईचारे और विविधता में एकात्मता स्थापित करने योग्य बन सकेंगे?
बच्चे घर और स्कूल में जो भी सीखते हैं, वहां जो भी देखते हैं, उसका योगदान सबसे अधिक होता है। उन्हें आदर्श व्यक्ति और व्यक्तित्व की खोज लगातार बनी रहती है, प्रारंभ में उनके आदर्श माता-पिता होते हैं, फिर स्कूल के अध्यापक और फिर जैसे-जैसे उनकी रुचियां स्वरूप लेने लगती हैं, खिलाड़ी, सिने-कलाकार इस स्थान को भरने लगते हैं।
शिक्षा के संदर्भ में व्यक्तित्व विकास की पहली सीढ़ी है: स्कूल में ऐसा वातावरण प्रदान करना, जहां बच्चे को जाने का मन करे। उसे अपनत्व मिले, सुरक्षा मिले, पीने का पानी, शौचालय, कक्ष में बैठने की उचित व्यवस्था और सीखने के लिए आवश्यक उपकरण उपलब्ध हों। प्रशिक्षित, प्रसन्न और करुणाशील अध्यापक से अपनत्वे मिले। अनेक प्रकरणों और शोध-अध्ययनों से सिद्ध है कि बच्चों से प्यार करने वाला अध्यापक उन स्कूलों का भी कायाकल्प कर देता है, जिनकी साख और स्वीकार्यता किन्हीं कारणों से अत्यंत निचले स्तर पर पहुंच चुकी हो।
ऐसे अध्यापक को किसी निर्देशिका में यह नहीं देखना पड़ता कि उसे कौन-से मूल्य सिखाने हैं, उसका जीवन स्वयं मूल्य-आधारित होता है। उसकी अध्ययन-शीलता उसके कार्य-निष्पादन में स्वत: स्पष्ट होती रहती है। किसी भी देश में देशवासियों के मानव-मूल्यों के स्तर का अनुमान उसके अध्यापकों की स्थिति और संतुष्टि तथा लगनशीलता देख कर लगाया जा सकता है।
स्कूलों और अध्यापकों से प्रारंभ कर भारत अपने उस उत्तरदायित्व का निर्वाह कर सकता है, जिसके लिए सारा विश्व उसकी ओर प्राचीन काल से देखता रहा है : मूल्य-आधारित जीवन, जिसमें प्रत्येक मनुष्य के प्रति सद्भावना हो, प्रकृति के प्रति आदरभाव और विश्वशांति, सद्भावना का अनुकरणीय उदाहरण बनने का विश्वास हो।