रंगनाथ सिंह का ब्लॉग: क्या आप जानते हैं कि आप रोजर फेडरर के फैन कैसे बने?
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
मैं लम्बे समय तक रोजर फेडरर का फैन रहा हूँ। उनपर लिख-पढ़-बहस सकता था। किशोरावस्था में मुश्किल से लॉन टेनिस के नियम समझने के प्रयास किये थे। कुछ साल पहले मैं भूलने लगा कि मैं फेडरर का फैन हूँ। मैंने उन्हें फॉलो करना बन्द कर दिया। नतीजा यह हुआ कि जिस दिन से फेडरर रिटायर हुए हैं उस दिन से सोच रहा हूँ कि मैं रोजर फेडरर का फैन क्यों था? भारतीय मध्यवर्ग के इतने सारे लोग फेडरर के फैन कैसे बने गए!
आज भी भारत की 140 करोड़ की आबादी में बमुश्किल 14000 लोगों को टेनिस कोर्ट, किट और बॉल सुलभ होंगे। लॉन टेनिस ऐसा भी खेल नहीं है जो टीवी पर देखने में बहुत रोमांचक हो। भारत में टीवी पर लॉन टेनिस देखे जाने के आँकड़े भी उपलब्ध होंगे। हम देख सकते हैं कि भारत में कितने लोग टीवी पर टेनिस देखते हैं।
आसपास पड़ोस में किसी को खेलते देखकर रुचि जग जाए ऐसा भी नहीं है क्योंकि टेनिस कोर्ट पासपड़ोस वाली चीज नहीं है। इस खेल में भारत की उपलब्धियाँ भी सीमित रही हैं। हमारा श्रेष्ठ प्रदर्शन डबल में रहा है, सिंगल में हम ज्यादातर वक्त पर टॉप 50 खिलाड़ियों की सूची से बाहर रहे हैं। इस खेल से मुझे कोई गुरेज नहीं है। मैं भूतपूर्व खेल-प्रेमी हूँ तो सभी खेलों का समर्थक हूँ लेकिन लॉन टेनिस के खिलाड़ियों के प्रति अपने भूतपूर्व क्रेज को समझना चाहता हूँ।
दूसरों का नहीं पता लेकिन मैं अपनी पड़ताल करता हूँ तो लगता है कि मेरे टेनिस प्रेम की वजह अखबार और टीवी हैं। ऐसे घर में पैदा होना जिसमें अखबार आता हो और टीवी चलती हो, आपको उस दिशा में ले जाता है जहाँ से आप फेडरर, माराडोना और सर्जेई बुबका के फैन बन जाते हैं और लगातार आठ गोल्ड जीतने वाली हाकी टीम में ध्यानचंद के अलावा अन्य सदस्यों का नाम जोर देकर याद करना पड़ता है। यह सच है कि 1980 के दशक से ही भारतीय हॉकी का पराभाव शुरू हो गया लेकिन आठ ओलिंपिक गोल्ड जीतने वाले अतीतजीवी देश में हॉकी की कवरेज की तुलना लॉन टेनिस की कवरेज से की जानी चाहिए या नहीं?
देश का इंग्लिश मीडिया और उसका पिछलग्गू हिन्दी मीडिया जितनी जगह लॉन टेनिस के सिंगल्स को देता है यह खेल क्या सचमुच भारत में उतनी मीडिया कवरेज पाने का अधिकारी है! फेडरर महान खिलाड़ी हैं। मैं उनके खेल और बरताव दोनों का प्रशंसक रहा हूँ लेकिन अब सोचता हूँ कि कुश्ती, कबड्डी, तीरंदाजी, हॉकी इत्यादि जिन खेलों में हमारे अपने महान खिलाड़ी हुए हैं उनके हिस्से की कवरेज उन खेलों को क्यों दी जाती है जिनकी भारत में नाम भर ही जगह है!
भारतीय महिला क्रिकेट की महान खिलाड़ी झूलन गोस्वामी ने परसों अपना आखिरी अंतरराष्ट्रीय खेल से अलविदा कहा। झूलन बेहद गरीब परिवार से निकलकर दुनिया की सर्वश्रेष्ठ महिला क्रिकेट खिलाड़ियों में शुमार हुईं। मीडिया में उनकी विदाई पर कवरेज मिली क्योंकि यह एक इवेंट है लेकिन फेडरर और झूलन की विदाई पर आम सोशलमीडिया जीवी भारतीयों की प्रतिक्रिया की तुलना की जा सकती है। भले ही महिला क्रिकेट कम लोकप्रिय हो लेकिन क्रिकेट भारत का सबसे लोकप्रिय खेल है, भारत में नारीवादियों की भी कमी नहीं है ऐसे में एक बड़ी महिला क्रिकेटर की रिटायरमेंट की खबर से कान पर जूँ न रेंगना सामान्य तो नहीं है।
प्रबुद्ध भारतीय मध्यवर्ग कोलोनियल स्लेव माइंडसेट को आज भी जिस तरह ढोता है वह चकित करता है। दुखद यह है कि यही तबका देश का अग्रणी बौद्धिक तबका है। इमीटेशन (नकल) इस तबके की नियति बन चुकी है। मैंने माराडोना पर भी ऐसा ही एक पीस लिखा था लेकिन उसे पब्लिश नहीं किया था। जाहिर है, मैं रंग में भंग डालने का विरोधी हूँ। इसीलिए फेडरर जी के रिटायरमेंट की घोषणा का गम कम होने के इंतजार करके यह पोस्ट लिखी है। अतः इसे पढ़कर आप लोग नाराज न हों, यह केवल विचारार्थ है।