नदी के जन्म की हिफाजत

भौगोलिक संरचना की एकात्मकता में नदी को आधार बनाया जा रहा है और इस तरह की एक बड़ी परियोजना में एक साथ हिमाचल, जम्मू-कश्मीर व पंजाब को जोड़ा जा रहा है

Update: 2022-07-29 18:57 GMT

By: divyahimachal 

अंतत: भौगोलिक संरचना की एकात्मकता में नदी को आधार बनाया जा रहा है और इस तरह की एक बड़ी परियोजना में एक साथ हिमाचल, जम्मू-कश्मीर व पंजाब को जोड़ा जा रहा है। हिमालयन वन अनुसंधान संस्थान शिमला ने सिंधु बेसिन की ब्यास, चिनाब, रावी, सतलुज और झेलम को सभ्यता की जीवंतता व पर्यावरण की अपेक्षाओं के साथ नत्थी करते हुए एक ऐसा खाका खींचा है, जो आने वाले वक्त की जरूरतों में अपनी हिफाजत भी करेगा। आरंभिक तौर पर इन पांचों नदी तटों पर पौधारोपण, मृदा और जल संरक्षण के सुझाव सामने आए हैं, जबकि परियोजना की व्यापकता अगर कबूल की जाए, तो मानवीय गतिविधियों के कई दर्पण बदल सकते हैं। यानी कि ये नदियां अब यूं ही विचरण नहीं कर रही हैं। इनकी स्थिति-परिस्थिति पर कई तरह के परिवर्तन व दबाव आ रहे हैं। ब्यास को ही लें, तो अपने उद्गम से शुरू होकर यह नदी मानव जरूरतों की तपती रेत पर चलती हुई पतली हो रही है। सतलुज ने अपने सीने पर न केवल गाद, बल्कि प्रगति के कई आयाम उठाए रखे हैं। इसी तरह अन्य नदियों के पारिस्थिकीय विवरण के साथ कई ऐेसे रिसाव हैं, जिन्हें वक्त की जरूरत या राष्ट्रीय नीतियों के अभाव से देखना होगा। अब तक इन नदियों को निचोड़ कर देखा गया, जबकि अब जोडक़र देखने के संदर्भ खड़े किए जा रहे हैं। बेशक पर्यावरण मंत्रालय ऐसे विषयों की ढाल बनकर सोचता है, लेकिन क्या नदी की प्राथमिक जिम्मेदारी अब पर्यावरण के तट तक ही सीमित है। पिछले कुछ दशकों में कृषि, बाढ़ और विकास की विविधताओं में नदी ने अपने पारंपरिक आभूषण उतारे हैं। आश्चर्य यह है कि नदी को मैदानी इलाकों में समझने की चेष्टा में ऐसी राजनीति उत्तीर्ण हो गई, जो किसी नहर की लंबाई या बांध की ऊंचाई पर आकर स्थिर है, जबकि नदी की आंत तो पहाड़ पर भूखी है।
नदी को पूजने के राष्ट्रीय संकल्प केवल पहाड़ पर पूरे होंगे और ये कई घाटियों, कई चोटियों, बारिशों, बर्फबारी, खड्डों और मानवीय सरोकारों की पहचान में देखे जाएंगे। जिस ब्यास, सतलुज, चिनाब, रावी या झेलम को मैदान एक नदी के रूप में देखता है, वह दरअसल उसका प्रसार है। असली हिफाजत तो नदी के पैदा होने की है, जहां एक-एक बूंद महासागर बनकर गिरती है। बादलों के फटने की किसी घटना को नदी के उद्गम की तरह देखें, तो राष्ट्रीय नीतियों में बदलाव आएगा, वरना एक समय तो सतलुज में आई बाढ़ भी केवल हिमाचल की बनकर रह गई थी। पहाड़ के नदी बेसिन की चरागाह में जीवन उत्पन्न होता है और यह दुरूह जीवन का कंकाल है, जिसकी भरपाई आज तक नहीं हुई, वरना प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता के पर्वतीय आंकड़े बेहतर होते। नदी का बहना या नदी का टूटना तो देखा जाता है, लेकिन असली तप और तकलीफ तो नदी के पैदा होने में है। पहाड़ों पर गिरने वाली हर बूंद की क्षमता में नदी की उत्पत्ति यूं ही साधारण सी प्रक्रिया नहीं, बल्कि हर साल की सामाजिक कमाई को उजाडऩे की प्रक्रिया है। जब खेत, पौधे या फसल बह रही होती है, तब भी नदी पैदा हो रही होती है। जब ओलावृष्टि से किसान-बागबान की आर्थिकी तहस-नहस हो रही होती है, तब ही नदी को पैदा होना होता है। हर साल सैकड़ों इमारतें गिरती हैं और सांसें रुकती हैं, लेकिन इस अनुभव की खाट पर बैठी नदी पानी से नहा रही होती है। अत: पांच नदियों में जान फूंकने की कवायद का जवाब असाधारण व असीमित है। नदी का होना जितना जरूरी है, उतना ही मुश्किल है इसका पैदा होना। अगर इसकी पैदाइश को बचाना है, तो पहाड़ पर इनसान की मेहनत, सोहबत, आर्थिकी, विकास और उसके भविष्य को भी बचाना तथा संवारना होगा।


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