अशांति की कीमत
आज के औद्योगिक युग की भागदौड़ भरी जिंदगी में शांति मानव के लिए औषधि के समान है। प्राचीन गौरवशाली भारत में चिंतन और साहित्य की रचना भी परम शांति की स्थिति में ही हुई थी। शांति की इसी चरम अवस्था में सैकड़ों महान दार्शनिकों, विचारकों, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, गणितज्ञों, खगोल शास्त्रियों और महापुरुषों का प्रादुर्भाव हुआ।
Written by जनसत्ता; आज के औद्योगिक युग की भागदौड़ भरी जिंदगी में शांति मानव के लिए औषधि के समान है। प्राचीन गौरवशाली भारत में चिंतन और साहित्य की रचना भी परम शांति की स्थिति में ही हुई थी। शांति की इसी चरम अवस्था में सैकड़ों महान दार्शनिकों, विचारकों, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, गणितज्ञों, खगोल शास्त्रियों और महापुरुषों का प्रादुर्भाव हुआ। लोग प्रकृति में शांतिपूर्ण आनंदमय वातावरण में जीवन के क्रियाकलाप करते थे। इसी वजह से मानसिक अवसाद की अवस्था नहीं आती थी। ऐसा इसलिए हो सका, क्योंकि उस समय लाउडस्पीकर और डीजे का चलन नहीं था। इसके विपरीत आज के कोलाहलपूर्ण वातावरण में डीजे और लाउडस्पीकर ने जीवन में अशांति का विष घोल दिया है।
सुबह की सैर के समय से ही धार्मिक स्थलों पर शुरू लाउडस्पीकर की तेज ध्वनि मन अशांत करने लगती है। शाम होते होते रही-सही कसर डीजे की चीत्कार कान और दिमाग को शून्य कर देती है। बड़े शहरों की अपेक्षा छोटे कस्बों में धार्मिक पर्वों के अवसर पर रातभर कानफोड़ू डीजे की आवाज शांति से सोने के मौलिक अधिकार भी छीन लेती है।
इससे आम नागरिक का मन व्यवस्था की अव्यवस्था से खिन्न हो चुका होता है। कुछ मनबढ़ों की वजह से इंसान का सुख, चैन, नींद सब हराम हो जाता है और इंसान चिड़चिड़ा और अवसादग्रस्त होकर मनोरोगी बन जाता है। ऐसे में हिंसा और कट्टरता बढ़ने की आशंका रहती है। इसलिए सरकार और न्यायपालिका से यह अपेक्षा है कि वह लाउडस्पीकर और डीजे के प्रयोग पर सख्ती से नियंत्रण रखे, ताकि आम आदमी की शांतिपूर्ण जीवन के अधिकार की रक्षा की जा सके।