अपना डूबता देश छोड़ गए राष्ट्रपति
श्रीलंका में राजनीतिक अस्थिरता गहरा गई है। बुधवार को अहले सुबह राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे देश छोड़ मालदीव की राजधानी माले पहुंचे
विवेक काटजू,
श्रीलंका में राजनीतिक अस्थिरता गहरा गई है। बुधवार को अहले सुबह राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे देश छोड़ मालदीव की राजधानी माले पहुंचे। हालांकि, 9 जुलाई को उन्होंने अपने अवाम को यह आश्वासन दिया था कि वह 13 जुलाई को राष्ट्रपति का पद छोड़ देंगे, पर उन्होंने ऐसा किया नहीं। संविधान के अनुच्छेद 37(1) का सहारा लेते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे को कार्यवाहक राष्ट्रपति नियुक्त कर दिया, जिसका अर्थ है कि रनिल राष्ट्रपति की जिम्मेदारी तो निभाएंगे, पर गोटबाया राष्ट्रपति पद पर बने रहेंगे। बुधवार की सुबह ही रनिल विक्रमसिंघे ने बतौर प्रधानमंत्री देश में आपातकाल की घोषणा कर दी और पश्चिम प्रांत में, जहां कोलंबो है, कफ्र्यू लगा दिया। उन्होंने सुरक्षा बलों को स्थिति संभालने की हिदायत दी और जरूरी होने पर उपद्रवियों को हिरासत में लेने को भी कहा।
गोटबाया के देश छोड़ने की खबर जैसे ही फैली, श्रीलंका के नौजवान प्रदर्शनकारी भड़क गए। वे मार्च से ही गोटबाया के पद छोड़ने की मांग के साथ राष्ट्रपति निवास के सामने धरना दिए बैठे थे। सत्ता के खिलाफ यह आक्रोश सिर्फ प्रदर्शनकारियों तक सीमित नहीं है, श्रीलंका की आम जनता भी महीनों से आर्थिक मुश्किलों से जूझ रही है। यह असंभव तो लगता है, पर श्रीलंका की सरकार ने, जो राजपक्षे परिवार का ही विस्तार थी, देश की अर्थव्यवस्था को इस कदर चोट पहुंचाई कि अपनी नियुक्ति के चंद दिनों बाद ही मई में प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे को संसद में यह मानना पड़ा कि अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गई है और सरकार का दिवाला निकल गया है। महीनों से सरकार के पास विदेशी मुद्रा के अभाव के कारण देश में ऊर्जा, खाद्यान्न, यहां तक कि दवाइयों तक का आयात असंभव हो गया था। निचले व मध्य वर्ग ने अर्थव्यवस्था के नष्ट होने की मार सही, जिसने इस मांग को जन्म दिया कि न सिर्फ राष्ट्रपति अपना पद छोड़ें, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति पर राजपक्षे परिवार का प्रभाव खत्म हो। वाकई, आधुनिक इतिहास में शायद ही किसी लोकतंत्र में परिवारवाद का ऐसा उदाहरण दिखता है। यहां एक भाई राष्ट्रपति, दूसरा प्रधानमंत्री, तो दो अन्य भाई मंत्रिमंडल के अहम सदस्य थे। इस कारण सरकार के हर अंग पर राजपक्षे परिवार का ही नियंत्रण था।
दक्षिण एशिया में श्रीलंका की गिनती एक सफल, संपन्न देश में होती रही है, लेकिन राजपक्षे परिवार की गैर-जिम्मेदारी की वजह से वह आज इस स्थिति में आ पहुंचा है कि न जनता के पास ईंधन है, न पर्याप्त खाद्यान्न और न दवाइयां। बेशक, श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पर्यटन पर निर्भर थी और कुछ कोरोना महामारी ने और कुछ उससे पूर्व की आतंकी घटनाओं ने इसे प्रभावित किया, पर राजपक्षे परिवार की नीतियों ने देश का काफी नुकसान किया है। यहां तक कि रासायनिक खाद का निर्यात बंद करके सरकार ने खेती-किसानी की भी कमर तोड़ दी।
प्रदर्शनकारी मूलत: नौजवान हैं, जिनमें से ज्यादातर संख्या विद्यार्थियों की है। सिंहली, तमिल, मुसलमान, सभी तबके के लोग इसमें शामिल हैं। हालांकि, मौजूदा राजनीतिक समस्या का कोई संबंध यहां की अंतर-जातीय रिश्तों से नहीं है, बल्कि यह विशेषकर बहुसंख्यक सिंहली जाति का अपने नेताओं से नाराजगी से जुड़ा मसला है। उल्लेखनीय है कि पूर्व राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के नेतृत्व में श्रीलंका की सरकार और सेना ने 2009 में तमिल टाइगर ईलम को कुचल दिया था। इस कारण महिंदा और उनके भाई गोटबाया (तब रक्षा सचिव थे) सिंहली जाति के हीरो बन गए थे। 2019 में गोटबाया ने शानदार तरीके से राष्ट्रपति चुनाव जीता भी। तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि एक दिन उनको यूं देश छोड़कर भागना होगा। इस घटनाक्रम का सबक यही है कि नेता चाहे कितना भी बड़ा हो, अगर उसने देश की अर्थव्यवस्था को नष्ट किया, तो जनता उसे बर्दाश्त नहीं करती।
फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि श्रीलंका की राजनीति कौन सी करवट लेगी? लगता यही है कि विक्रमसिंघे और राजनीतिक वर्ग के कुछ सदस्यों ने तय किया है कि कानून-व्यवस्था को फिर से स्थापित करना चाहिए, पर प्रदर्शनकारी शायद ही आसानी से घर लौटने को तैयार होंगे। उन्होंने सुरक्षा बलों के प्रयासों के बावजूद प्रधानमंत्री कार्यालय व सरकारी टेलीविजन चैनल पर कब्जा कर लिया है। अगर उनके खिलाफ सख्ती बरती गई, तो यह प्रदर्शन हिंसक हो सकता है, जिससे समस्या और गंभीर हो जाएगी। लिहाजा, बेहतर होगा कि गोटबाया और रनिल इस्तीफा दें, राजपक्षे परिवार देश छोड़ दे और श्रीलंका में एक ऐसी अंतरिम सरकार बने, जिसमें सबका भरोसा हो। अगर गोटबाया इस्तीफा नहीं देते हैं, तो वहां की सियासी जमात को संविधानिक दायरे के बाहर के कदम सोचने पड़ेंगे और नया राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री चुनना होगा। चूंकि मौजूदा स्थिति कमजोर आर्थिकी से जुड़ी है, इसलिए श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना लाजिमी है। अगर यहां राजनीतिक स्थिरता कायम होती है, तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाएं सहायता के लिए आगे आ सकती हैं।
भारत ने विशेष रूप से श्रीलंका की मदद की है। नई दिल्ली ने इस साल उसे 3.8 अरब डॉलर की सहायता दी है, जिसमें ऊर्जा, दवाइयां, खाद आदि शामिल हैं। दूसरे देश की आंतरिक राजनीति में दखल न देने की हमारी नीति जारी है और भारत का यही मानना है कि श्रीलंका की जनता इस मसले का समाधान लोकतांत्रिक व सांविधानिक उपायों से करेगी। यह एक उचित नीति है। तमिलनाडु के लोग श्रीलंका के मामलों में विशेष रुचि रखते हैं। मगर पूर्व में बेशक श्रीलंका से आने वाले शरणार्थी वहां की जातीय हिंसा के शिकार रहे हैं, लेकिन आज ऐसा तनाव नहीं है। हां, अगर श्रीलंका के मौजूदा हालात बिगड़ते हैं, तो आर्थिक शरणार्थी भारत का रुख कर सकते हैं, जिस पर हमें नजर रखनी होगी।
जाहिर है, श्रीलंका को अपनी अर्थव्यवस्था फिर से स्थिर करनी पड़ेगी। कोई भी अर्थव्यवस्था राष्ट्र के सामाजिक संतुलन पर टिकी होती है, इसलिए आने वाले समय में श्रीलंका के नेताओं को विशेष नीतियां बनानी होंगी, ताकि सिंहली जाति के साथ-साथ तमिल व अन्य जातियां भी साथ-साथ आगे बढ़ सकें। कृषि पर भी विशेष ध्यान देने की जरूरत है। उम्मीद यह भी है कि जैसे-जैसे कोविड महामारी का असर कम होगा, वैसे-वैसे श्रीलंका का पर्यटन क्षेत्र उभरता जाएगा। इससे निस्संदेह देश स्थिरता की ओर बढ़ेगा।
सोर्स- Hindustan Opinion Column