प्रेमचंद जयंती विशेष: जितने कामयाब लेखक उतने ही दूरदृष्टा पत्रकार, जिनके लिए पत्रकारिता मिशन थी
इस निश्चय के साथ मार्च 1930 में बसन्त पंचमी के दिन 'हंस' के प्रकाशन की शुरुआत हुई।
मुंशी प्रेमचंद की साहित्यकार, कहानीकार और उपन्यासकार रूप में चर्चा अक्सर होती है। पर उनके पत्रकारीय योगदान को लगभग भूला ही दिया जाता है। जंगे-आजादी के दौर में उनकी पत्रकारिता ब्रिटीश हुकूमत के विरुद्ध ललकार की पत्रकारिता थी। इसकी बानगी प्रेमचंद द्वारा संपादित काशी से निकलने वाले दो पत्रों 'जागरण' और 'हंस' की टिप्पणीयों-लेखों और संपादकीय में देखा जा सकता है। वैसे तो पत्रकारिता को दैनिक इतिहास का दर्जा प्राप्त है।
पर मुंशी प्रेमचंद आर्थिक तंगहाली के वक्त भी अपने लेखन के जरिये जुर्माने का जोखिम उठाकर भी इतिहास की धारा को नया मोड़ देने की दिशा में संलग्न दिखते है।इस भूमिका में भी प्रेमचंद पत्रकारिता को नये तेवर-कलेवर के साथ समाज के आगे चलने वाली मशाल बनाना चाहते है।
बात उस दौर की
यह वह दौर था, जब राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर महात्मा गांधी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन को सविनय अवज्ञा, भूख हड़ताल और असहयोग जैसे सर्वथा नये औजारों से लैश कर रहे थे। काशी में भी प्रेमचंद-जयशंकर प्रसाद और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की त्रयी पुराने जीर्ण शीर्ण मूल्यों की जगह नये मूल्यों-संस्कारों से साहित्य के आंगन को सजा-संवार रहे थे।
'मैं धनी नहीं मजदूर आदमी हूं'
"हंस" पत्रिका निकालने के पूर्व जयशंकर प्रसाद को लिखे एक पत्र में प्रेमचंद जी लिखते हैं कि- काशी से कोई साहित्यिक पत्रिका न निकलती थी। मैं धनी नहीं मजदूर आदमी हूं, मैंने 'हंस' निकालने का निश्चय कर लिया है। इस निश्चय के साथ मार्च 1930 में बसन्त पंचमी के दिन 'हंस' के प्रकाशन की शुरुआत हुई।
'हंस' नामकरण के बारे में कमल किशोर गोयनका कहते है कि-यह नाम उनके मित्र एवं प्रख्यात कवि जयशंकर प्रसाद ने छह माह पूर्व सुझाया था।इस पत्रिका का प्रकाशन भी उन्हीं के सरस्वती प्रेस से हुआ। 'हंस' के प्रथम अंक के संपादकीय लिखते हुए प्रेमचंद ने लिखा है- हंस भी अपनी नन्हीं चोंच में चुटकी भर मिट्टी लिये हुए समुद्र पाटने, आजादी की जंग में योगदान देने चला है।... साहित्य और समाज में वह उन गुणों का परिचय करा ही देगा, जो परंपरा ने उसे प्रदान किया है।
मुंशी प्रेमचंद जयंती विशेष: सन् 1935 में 'हंस' को भारतीय साहित्य का मुख्य पत्र बना दिया गया।
एक युगद्रष्टा पत्रकार भी
प्रेमचंद एक युगद्रष्टा साहित्यकार ही नहीं, एक युगद्रष्टा पत्रकार भी थे। अपने पत्रों लेखों और टिप्पणीयां वे मानो आज की सच्चाई बयां करते लगते है। सन् 1905 में 'जमाना' में स्वदेशी चीजों का प्रचार कैसे बढ़ सकता है- विषय पर एक गंभीर टिप्पणी लिखते हुए मुंशी प्रेमचंद कहते है कि- स्वदेशी का अलख जगाने वाले और समाजवाद को ओढ़ने-बिछाने वाले बराबर दूरी पर खड़े हैं।
इस लिए खुली अर्थव्यवस्था और विनिवेश का अश्वमेध जारी है। प्रेमचंद की पत्रकारिता इस अश्वमेध के खिलाफ ललकार है। उनकी संपादकीय तटस्थता को साहित्यकार जैनेंद्र कुमार 'ममताहीन स द् भाव' कहा है।
भारत के स्वाधीनता संग्राम में भले ही प्रेमचंद ने खुलेआम भाग न लिया हो। पर अपने उपन्यासों-कहानियों, पत्र पत्रिकाओं में लेखों के जरिये वे आजादी के सवाल को और उस बहाने आजादी के संघर्ष के लिए लड़ने वाले नायकों में विद्रोह की चेतना जगाने में कभी पीछे नहीं रहे।अपने इस दृष्टिकोण का इजहार 3जून 1932 को बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखे एक पत्र में भी किया है- मेरी आकांक्षा बहुत ज्यादा नहीं है।
खाने भर का मिल जाता है। मुझे दौलत-शोहरत नहीं चाहिए। पर मेरे भीतर 'मोटर बम' है। मैं तीन-चार अच्छी पुस्तकें लिख सकूं जो आजादी के काम आ सके। मेरे मानस का हंस अपनी चोंच में आजादी की मिट्टी लेकर अपना योगदान कर रहा है।
मुख्य पृष्ठ पर कन्हैयालाल मुंशी का नाम
सन् 1935 में 'हंस' को भारतीय साहित्य का मुख्य पत्र बना दिया गया। इसके मुख्य पृष्ठ पर कन्हैयालाल मुंशी का नाम भी जाने लगा। इस पत्रिका के सलाहकार मंडल में हिंदी, उर्दू, आसामी, उड़िया, गुजराती, मराठी, कन्नड़, तमिल, तेलगू और मलयालम के प्रतिष्ठित विद्वानों को शामिल किया गया। हिंदी में महात्मा गांधी, पुरुषोत्तम दास टंडन, रामनरेश त्रिपाठी काका साहेब कालेलकर सरदार नर्मदा प्रसाद सिंह जैसे नामचीन हस्तियां शामिल थी। अप्रैल सन् 1932 के अंक में संपादकीय टिप्पणी दमन की सीमा प्रकाशित हुई।
इस टिप्पणी के छपने के बाद हर्जाने के रूप में एक हजार जमानत मांगी गयी। प्रेमचंद ने जमानत जमा नहीं किया और हंस पत्रिका बंद करने का निर्णय किया। हंस की हंसवाणी कालम में अपनी भाषा सम्बधी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए मुंशी प्रेमचंद जी लिखते है कि- अंग्रेजी भाषा का जादू कब तक हमारे सिर रहेगा? कब तक हम अंग्रेजों के गुलाम बने रहेंगे। इससे यहीं टपकता है कि हमारी राष्ट्रीयता अभी हृदय की गहराई तक नहीं पहुंची है।
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सोर्स: अमर उजाला