बंधुओ! मन की बात करूं तो कुत्ता होकर बहुत जी लिया। वफादारी का जहर हद से अधिक पी लिया। सबने काम निकाल दुर्र दुर्र ही की। जिससे भी वफादारी की उसने ही फाइनली मक्कारी की। सो अब सोच रहा हूं मौसम भी है, समय भी है और चीते भी। तो क्यों न चीता होकर भी जी लिया जाए। इधर मन में ये ख्याल आया तो मैंने आनन-फानन में वफादारी वाली काया परे करने की सोची और हो लिया देश में ताजे आए चीतों की ओर, चीता होने के लिए। जिस तरह सफल आदमी बनने के लिए आदमी होने के बाद भी सफल आदमी से आदमियत के गुर सीखने की जरूरत होती है, सफल चोर बनने के लिए पैदाइशी चोर तक को किसी पहुंचे हुए महाचोर को अपना गुरु बनाना पड़ता है, सफल रिश्वत लेना सीखने के लिए घाघ टाइप के रिश्वतखोर की चरण धुलाई करनी पड़ती है, उसी तरह कुत्ते से चीता बनने के लिए चीते का सान्निध्य जरूरी होता है। बिन किसी के सान्निध्य के, हम वह कदापि नहीं बन सकते जो हम बनना चाहते हैं।
और मैं सीधा कुत्ते की दुम घर में छोड़ जा पहुंचा नए नवेले आए चीतों से मिल उनसे कुत्ते से चीता होने के गुर सीखने ताकि आने वाले समय में मुझ कुत्ते को सब चीते के नाम से जाने। काम तो खैर बदले नहीं जा सकते। गृहस्थी यदि संत भी बन जाए तो भी वह न खुलने वाले मोह माया के अंग वस्त्र धारण ही किए रहता है। मन था कि चीतों के दर्शन करते ही भौं भौं करना छोड़ऩा चाहता था। तब मैंने मन को समझाते कहा भी, 'मन रे! तू काहे न धीर धरे। वो निर्मोही तुझको न जाने तू जिसका रूप धरे। मन रे…', और मैं अधीर मन, व्याकुल तन लिए जा पहुंचा दूर देस से आए चीतों के हेड ऑफिस। उनके ऑफिस के बाहर उनका पीए खड़ा था। मुझे सीधे चीतों के पास जाते देख उसने मुझे ऐसे रोका जैसे बहुधा मैं अपने लोकप्रिय मंत्री जी से मिलने की तीव्र उत्कंठा लिए उनसे मिलने जाने पर उनके दरबान द्वारा कान खींच रोक जाता रहा हूं, 'कहां जा रहे हो सीधे? साहब के परिवार से हो क्या?' 'जी नहीं।
मैं तो कुत्ता जात का हूं', आदमी न होने के बाद भी मैंने आज तक अपनी जात नहीं छुपाई, सो सच कह दिया। 'तो इस तरह…बड़े साहब से मिलने का कोई प्रोटोकॉल हो या नहीं, पर…'। 'तो इनसे मिलने के लिए मुझे क्या करना होगा सर?' मेरे भीतर के कुत्ते ने चूं चूं करते पूछा, 'इनसे बात नहीं बनेगी क्या?' मैंने जेब में हाथ डालते जनाब से पूछा तो उन्होंने कपड़े से ढके सीसीटीवी कैमरे की ओर इशारा कर हताश होते कहा, 'ऑन है।' 'तो मुझे टाइम दे दीजिए सर! मैं बहुत परेशान हूं। मैं शीघ्र अतिशीघ्र कुत्ते से चीता होना चाहता हूं। फीतामय होकर बहुत जी लिया।' 'सो तो ठीक है पर…अभी वे किसी को दर्शन देना नहीं चाहते। सफर में बहुत थके हैं। ऊपर से….', 'पर क्यों?' 'उनकी मर्जी!' सत्ता के साथ चाहे आदमी जुड़े चाहे जानवर, देर सबेर अहंकारी हो ही जाता है। 'मतलब? तो मेरे मन की साध मेरे मन ही रह जाएगी क्या?' 'अभी उनसे चार महीने बाद मिलने के सारे स्लॉट एडवांस में बुक हो चुके हैं। अपना मेल पता लिखवा जाओ। जब तुम्हारी उनसे मिलने की बारी आएगी मेल कर दी जाएगी।' चीतों के पीए ने मुझे सच्ची का कुत्ता जान हडक़ाते कहा तो मैंने सादर आदमियों वाले हाथ जोड़े, 'सर! इससे पहले कि वे चीतों से बिल्ले हो जाएं मुझे उनसे मिलने दीजिए।' 'क्या मतलब तुम्हारा?' 'हद से अधिक संरक्षण में रहते शेर भी मैंने बिल्ले होते देखे हैं सर! जिसे एक बार आरामतलबी की लत लग जाए वह…इसलिए प्लीज!' पर यहां प्लीज करने वालों को सुनता ही कौन है? पर यहां प्लीज करने वालों की सुनता ही कौन है?
अशोक गौतम
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By: divyahimachal