युद्ध के स्थायी कारक
यह कैसी विडंबना है कि परमाणु हथियारों का निर्माण करने वाले अग्रणी देश ही दुनिया को निशस्त्रीकरण का पाठ भी पढ़ाते हैं, उस पर सम्मलेन करते हैं और यदि कोई नया देश इस दिशा में आगे आता है
जगमोहन सिंह राजपूत: यह कैसी विडंबना है कि परमाणु हथियारों का निर्माण करने वाले अग्रणी देश ही दुनिया को निशस्त्रीकरण का पाठ भी पढ़ाते हैं, उस पर सम्मलेन करते हैं और यदि कोई नया देश इस दिशा में आगे आता है तो उस पर आक्रमण करने से हिचकते भी नहीं हैं। मानव सभ्यता के इतिहास में हिंसा और युद्ध लगभग अनिवार्य रूप में मौजूद रहे हैं। समय के साथ मनुष्य ने इनके दुष्प्रभावों को समझा, लेकिन इनसे छुटकारा कभी नहीं पा सका।
इस साल फरवरी के प्रारंभ से ही सभी संचार माध्यम युद्ध की आशंकाओं से भरे रहे और अंतत: अंतिम सप्ताह में भीषण यद्ध छिड़ ही गया। युद्ध के चौथे दिन रूस ने अपने परमाणु हथियार इकाई को भी सतर्क कर दिया। इससे सारी दुनिया की चिंता बढ़ गई कि क्या अब महाविनाश होगा? किस देश के पास कितने परमाणु हथियार हैं, इसके आंकड़े दोहराए जाने लगे।
इस युद्ध का परिणाम जो भी हो, पर एक बार फिर यह स्पष्ट हो गया है कि मनुष्य ने अपनी बौद्धिक क्षमता, प्रयास और परिश्रम से अर्जित कौशलों से जो ज्ञान हासिल किया और विज्ञान-तकनीकी में प्रगति की है, उसका उपयोग तो सीखा ही, उसका दुरुपयोग उससे भी अधिक सीखा! संभवत: इसी सब का विश्लेषण कर बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा था कि यदि मनुष्य केवल अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त करने में ही लगा रहा, तो वह पृथ्वी पर नष्ट हो जाएगा। उसके बचे रहने का रास्ता है ज्ञान के साथ बुद्धि और विवेक का संवर्धन!
क्या विश्व की वर्तमान स्थिति इस कथन की पुष्टि नहीं करती है, जिसमें हथियारों की दौड़ को सामान्य और आवश्यक मान लिया गया है? इन्हें और अधिक मारक बनाने पर शोध खर्च इस चाहत में लगातार बढ़ रहा है कि मेरे हथियार दूसरे से बेहतर कैसे हों, यानी नहले पर दहला कैसे निर्मित हो! जब तक इधर सफलता मिलती है, प्रतिस्पर्धी और बेहतर बना चुका होता है! दहला फिर नहला बन जाता है, फिर से वही सब कुछ दोहराया जाने लगता है। कोई भी संगठित प्रयास इसे रोक नहीं पाया है। बीसवीं सदी में जितने देश परतंत्रता से निजात पा सके, अधिकांश लोकतंत्र को अपनाने की ओर बढ़े।
सभी शांति की चाहत को स्वीकार करते हैं। दो विश्व युद्धों का दंश झेलने के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ (अब संयुक्त राष्ट्र) स्थापित किया गया, ताकि आगे युद्ध न हो। उसका एक अति महत्त्वपूर्ण अंग बना सुरक्षा परिषद। साम्राज्यवाद भले ही अपनी नियति को पहुंचा हो, साम्राज्यवादियों की चतुराई में कोई कमी नहीं आई। शुरू में सुरक्षा परिषद में चार स्थायी सदस्यों को वीटो अधिकार मिला था, बाद में चीन को इसमें शामिल किया गया। यानी इन स्थायी सदस्यों में से कोई एक सदस्य ही किसी भी प्रस्ताव को निस्तेज कर सकता है। लोकतंत्र की भावना के साथ इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है?
इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में क्या यही मानव सभ्यता, विकास और प्रगति का द्योतक है? क्या विवेकशील मनुष्यों का कोई भी वर्ग यह जानते हुए कि जितने परमाणु हथियार विश्व ने बना लिए हैं, उनसे सैकड़ों बार पृथ्वी का विनाश किया जा सकता है, इनकी संख्या लगातार बढ़ाते रहने को उचित और तर्कसंगत मानेगा? स्पष्ट है कि जब यह संख्या बढ़ेगी, हर प्रकार के हथियारों का बाजार बढ़ेगा, उनकी बिक्री तभी बढ़ेगी जब युद्ध होते रहेंगे। और जब नहीं हो रहे होंगे, तब उनके होने की उसकी आशंकाएं बढ़ाई जाती रहेंगी!
मनुष्य ही वह प्राणी है जो अपने लिए समस्याएं स्वयं उत्पन्न करता है। उसकी विशेषता यही है कि वह उनका समाधान भी खोज ही लेता है। परमाणु बम का निर्माण आइंस्टीन के ऊर्जा-द्रव्यमान सूत्र के गहन अध्ययन और विश्लेषण से संभव हुआ। परमाणु विखंडन द्वारा 'नियंत्रित चेन रिएक्शन' से असीमित ऊर्जा प्राप्त करने की और परमाणु बम बनाने की व्यावहारिक संभावना 1939 में स्पष्ट दिखाई दी। अमेरिका में जब वैज्ञानिकों को पता चला कि हिटलर के आदेश पर नाजी इस दिशा में कार्य कर रहे हैं और अगर वे सफल हुए तो उन्हें महाविध्वंस करने से कोई नहीं रोक पाएगा, तो उन्होंने आइंस्टीन से अनुरोध किया कि वे अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट को पत्र लिखें कि इस दिशा में शोध को बढ़ावा दिया जाए।
गहन विचार-विमर्श के बाद 2 अगस्त 1939 को यह पत्र लिखा गया। आइंस्टीन स्वयं भी तब तक संभावित एटम बम की भीषणता का सही अनुमान लगा चुके थे और चिंतित थे। राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने आइंस्टीन को सुझाव के लिए धन्यवाद दिया और उस पर शोध के लिए छह हजार डालर की स्वीकृति की सूचना दी। अंतत: 16 जुलाई 1945 को पहला परमाणु विस्फोट लास अलामोस में किया गया और फिर छह अगस्त और नौ अगस्त 1945 को हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए गए। तब से लेकर आज तक मनुष्य परमाणु ऊर्जा के खतरों से उबर नहीं पाया है।
अप्रतिम प्रतिभा और व्यक्तित्व के धनी अल्बर्ट आइंस्टीन वैज्ञानिक जगत में अपना अद्वितीय स्थान बना चुके थे। वे अपनी विनम्रता के लिए भी जाने जाते थे। 1919 में पहली बार अमेरिका जाने के पहले वे प्राग यूनिवर्सिटी में एक व्याख्यान के लिए गए थे। तब रेलवे स्टेशन पर एक व्यक्ति जबरदस्ती उनसे मिलने पहुंच गया। उसका कहना था कि उनके सूत्र का उपयोग भयावह विस्फोटक बनाने में किया जा सकता है।
यह सुन कर आइंस्टीन विचलित हुए और उन्होंने तेजी से कहा कि 'मुझे मत बताओ कि उस सूत्र से क्या किया और क्या नहीं किया जा सकता है'। इस प्रकरण में सबसे महत्त्वपूर्ण वाक्य यह था- 'तुम्हें कहता हूं कि कभी भी कोई भी मेरे सूत्र का उपयोग विस्फोटक बनाने में नहीं करेगा।' सभ्य, सुसंस्कृत और संयमित व्यक्तित्व के धनी आइंस्टीन स्थायी विश्व शांति के प्रबल समर्थक थे। उनके सूत्र का घोर दुरुपयोग हिरोशिमा और नागासाकी में हुआ। और यह आज नहीं तक रुका नहीं है।
यह कैसी विडंबना है कि परमाणु हथियारों का निर्माण करने वाले अग्रणी देश ही दुनिया को निशस्त्रीकरण का पाठ भी पढ़ाते हैं, उस पर सम्मलेन करते हैं और यदि कोई नया देश इस दिशा में आगे आता है तो उस पर आक्रमण करने से हिचकते भी नहीं हैं। विश्व का भविष्य आज भी अधर में लटका है, जिसकी आशंका आइंस्टीन नें 1950 में व्यक्त कर दी थी। इसे आज यूक्रेन पर हुए रूसी हमले के रूप में सारा विश्व देख रहा है।
साल 2020 के आंकड़ों के अनुसार विश्व आयुध व्यापार का परिमाण साढ़े पांच सौ अरब डालर से ऊपर निकल चुका है। क्या यह कारोबार बिना युद्ध के चल सकता है? विश्व में शांति स्थापना में क्या वर्तमान स्थिति बिना दृष्टिकोण बदले संभव हो सकती है? जवाब एक ही है- नहीं! विकास की जिस वधारणा पर विश्व चल रहा है, वह पश्चिम से निकली है। पांच सौ साल से पहले यूरोप के लोग अपने देश की सीमाओं से बाहर निकलने लगे थे। उन्होंने अनेक देशों की खोज की और वहां के लोगों को सभ्य बनाने और उनकी आत्मा का उद्धार करने का बीड़ा उठा लिया! उत्तरी अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे देशों के मूल निवासी कहां गए, कैसे गए, इस पर अब कोई बहस नहीं होती है। जो लूट इन देशों ने सदियों तक की थी, उस सोच से ये अभी भी मुक्त नहीं हो पाए हैं।
पश्चिम की सभ्यता के सार को मोहनदास करमचंद गांधी ने 1909 में ही 'हिंद स्वराज' में पहचान लिया था। संप्रति विश्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है: राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर विकास की शोषण-विहीन और नैतिकता से परिपूर्ण अवधारणा की खोज और उसकी व्यापक स्वीकार्यता। आवश्यकता यह है कि विश्व का प्रबुद्ध और विवेकशील वर्ग अपना उत्तरदायित्व स्वीकारे और इस पर गहराई से चिंतन कर विकल्प प्रस्तुत करे।