राजभाषा की ओर बढ़ती जनभाषा

हिंदी को राजभाषा की सांविधानिक प्रतिष्ठा और मान्यता तो प्राय

Update: 2021-11-14 08:25 GMT

राम मोहन पाठक हिंदी को राजभाषा की सांविधानिक प्रतिष्ठा और मान्यता तो प्राय: 72 साल पहले 1949 में मिली, किंतु इसे व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए जारी प्रयासों में 'अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन' का ऐतिहासिक महत्व है। हिंदी के साहित्य तीर्थ वाराणसी में 13-14 नवंबर को आयोजित सम्मेलन राजभाषा हिंदी के प्रति नवजागरण व प्रयोग का नया अध्याय लिखेगा और भविष्य की दिशा सुनिश्चित करेगा। ऐसी आशा की जानी चाहिए। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग द्वारा पहली बार राजभाषा चेतना का यह राष्ट्रीय आयोजन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की संकल्पना है। पिछले 72 वर्ष में राजभाषा के अनेक प्रयोगधर्मी छोटे-छोटे कार्यक्रम क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर होते रहे हैं, किंतु प्रथम अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन के परिप्रेक्ष्य व्यापक हैं। प्रस्तावित छह सम्मेलनों की शृंखला में पहला काशी सम्मेलन राजभाषा की संकल्पना को मूर्त रूप देने में आधारशिला या प्रस्थान-बिंदु का काम करेगा।

भाषा का प्रश्न अंकों और आंकड़ों से कहीं अधिक भाव और भावनाओं से जुड़ा है। राजकाज में हिंदी के प्रयोग की धीमी गति को त्वरा प्रदान करने में केवल सांविधानिक प्रावधान या कानून ही सार्थक नहीं हो सकते। कानूनी प्रावधानों के अंतर्गत पूरे देश को क, ख, ग क्षेत्रों में बांटकर राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग और विभिन्न व्यावहारिक प्रतिबंधों, जैसे- राजभाषा अधिनियम के अंतर्गत निर्धारित 14 प्रांतों को मूल या अनूदित रूप में हिंदी में जारी करने के प्रावधान धीरे-धीरे अमल में लाए जा रहे हैं, परंतु इस प्रावधान को पूर्ण रूप से व्यवहार में लाने के लिए अभी समर्पित प्रयासों की आवश्यकता लंबे अरसे से अनुभव की जा रही है। वैसे कानूनी प्रावधानों के अंतर्गत ऐसे सभी प्रांतों में सूचना, निविदा, टिप्पणी-प्रपत्र, विज्ञप्ति, कार्यवृत्त, आदेश, मैनुअल, नामपट, ज्ञापन, संकल्प, अधिसूचना, नियम, अनुबंध, पत्र-पैड, लिफाफा आदि को राजभाषा में न जारी करना दंडनीय है, किंतु व्यवहार के स्तर पर यह मान्यता महत्व रखती है कि दंड के माध्यम से राजभाषा को शत-प्रतिशत लागू करना संभव नहीं है। प्रयोजनमूलक भाषा प्रयोग के स्तर पर कर्मियों, अधिकारियों में एक लगाव या समर्पण की भावना उत्पन्न करना दंड से कहीं अधिक प्रोत्साहन से संभव है।
भारत के संघीय ढांचे में राजभाषा के रूप में हिंदी को संविधान के अनुच्छेद 343-351 में मान्य किया गया है। भारत संघ गणराज्य की भाषा हिंदी और वर्तनी देवनागरी है, किंतु अनुच्छेद 348 में उच्च और उच्चतम न्यायालयों में कामकाज, दावे, बहस और निर्णयों की भाषा के रूप में अंग्रेजी को मान्यता दी गई है, किंतु इसके अपवाद अब सामने आ रहे हैं। लगभग दो दशक पूर्व प्रयाग (उत्तर प्रदेश) उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त ने हिंदी में चर्चित फैसला सुनाया था। उस समय न्यायपालिका में एक नई भाषायी चेतना का संचार हुआ। इसी क्रम में हाल में चेन्नई में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भारतीय भाषाओं में न्याय और निर्णय उपलब्ध कराए जाने की आवश्यकता पर बल दिया है।
महात्मा गांधी ने 'राष्ट्रभाषा बिना राष्ट्र गूंगा है' कहकर जिस चुनौती का हमारे स्वतंत्र भारत के लिए उल्लेख किया था, उस चुनौती का हल ढूंढ़ने की दिशा में, यानी एक राष्ट्रभाषा की ओर हमारी यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव 'राजभाषा' को लागू किया जाना है। देश के बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, अंडमान निकोबार द्वीप समूह को 'क', गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, चंडीगढ़, दमन-दीव, दादरा नगर हवेली को 'ख' और बाकी देश के शेष भाग को 'ग' क्षेत्र में विभाजित कर राजभाषा संबंधी व्यावहारिक नियम-कानून बनाए गए हैं, पर हिंदी के हृदय क्षेत्र 'क' राज्यों में राजभाषा नियमों के लागू किए जाने की शत-प्रतिशत उपलब्धि की स्थिति अभी व्यावहारिक रूप नहीं ले सकी है। 'ख' और 'ग' क्षेत्रों में भी अभी अथक प्रयास जरूरी हैं। वैसे, फीजी देश में राजभाषा के रूप में हिंदी की मान्यता और व्यवहार हमारे लिए अनुकरणीय हैं।
भाषा की अपार शक्ति को पूरे विश्व ने पहचाना है। संयुक्त रूस (यूएसएसआर) का भाषायी आधार पर 15 देशों में विभाजन और भारत में भी भाषायी आधार पर राज्यों का गठन इसके प्रमाण हैं। संभवत: इसे ही ध्यान में रखकर हमारे संविधान के उपबंध 351 में केंद्र सरकार को यह दायित्व सौंपा गया है, 'केंद्र सरकार हिंदी भाषा के विकास के लिए सतत कार्य करेगी और अन्य भारतीय भाषाओं की सहायता से हिंदी भाषा की समृद्धि, उन्नति सुनिश्चित करेगी।' इसी दायित्व से अभिप्रेरित केंद्रीय गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग द्वारा आयोजित दो दिवसीय वाराणसी सम्मेलन को 'संकल्प सम्मेलन' कहना इसलिए उचित होगा कि इसमें देश भर के प्राय: ढाई हजार संकल्पवान हिंदीप्रेमी, हिंदीसेवी और राजभाषा अधिकारी आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर अपनी भाषा के प्रति समर्पण व्यक्त करेंगे।
राजभाषा और राष्ट्रभाषा का प्रश्न जटिल अवश्य है, परंतु हल असंभव नहीं। दुनिया के केवल एक चौथाई देशों (51) की अपनी संविधान-घोषित राष्ट्रभाषा है। भारत में राजभाषा के रूप में हिंदी को मान्यता के 72 वर्षों में हिंदी के लिए एक सकारात्मक वातावरण बना है। इसे और मजबूत किए जाने की जरूरत सभी महसूस करते हैं।
वस्तुत: भाषा, मानवीय व्यवहार और संस्कृति निरंतन परिवर्तनशील प्रक्रिया हैं, परंतु यह परिवर्तन प्राय: अत्यंत धीमी गति से रूप लेता है। यह परिवर्तन समय-साध्य है। आज भारत में हिंदी और राजभाषा हिंदी की जो वर्तमान स्थिति है, उससे कहीं अधिक कमजोर और नगण्य स्थिति साम्राज्यवादी इंग्लैंड में अंग्रेजी की थी। एक दौर था, जब धीरे-धीरे अंग्रेजों के लिए भी फ्रेंच भाषा का प्रयोग सम्मान का विषय बन गया था। सदियों लंबे विरोध और संघर्ष के बाद अंग्रेजी आज सिर्फ अपने देश इंग्लैंड में राज-कार्य की ही नहीं, बल्कि विश्व की संपर्क भाषा का रूप ले सकी है। अत: हिंदी को व्यावहारिक राजभाषा का स्थान दिलाने के प्रयासों-परिणामों में लंबा समय लगने से हताश होने की जरूरत नहीं।
संयुक्त राष्ट्र की सातवीं भाषा के रूप में हिंदी को मान्यता दिलाने के अथक प्रयास जारी हैं। जनभाषा से राजभाषा की ओर बढ़ती हिंदी की यात्रा को सार्थक बनाने की प्रथम अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन की पहल और बृहत् आयोजन के दूरगामी परिणाम होंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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