परिवारवादी दलों से मुंह मोड़ रही जनता, गांधी परिवार को उद्धारक के रूप में देख रहे कांग्रेस नेताओं को समझनी होगी यह बात

पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद जैसे ही इसके आसार उभरे कि कांग्र्रेस की शर्मनाक हार के लिए गांधी परिवार पर अंगुलियां उठेंगी, वैसे ही कई कांग्रेस नेता परिवार के बचाव में आ गए।

Update: 2022-03-20 04:58 GMT

प्रणव सिरोही: पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद जैसे ही इसके आसार उभरे कि कांग्र्रेस की शर्मनाक हार के लिए गांधी परिवार पर अंगुलियां उठेंगी, वैसे ही कई कांग्रेस नेता परिवार के बचाव में आ गए। इसी कारण सोनिया गांधी की ओर से नेतृत्व छोड़ने की पेशकश करते ही चाटुकार कांग्रेस नेताओं में उनमें आस्था जताने की होड़ मच गई। गांधी परिवार ने पांच राज्यों में हार की जिम्मेदारी लेने के बजाय जिस तरह इन राज्यों के कांग्रेस अध्यक्षों से त्यागपत्र मांग लिए, उससे यदि कुछ स्पष्ट हुआ तो यही कि परिवार पार्टी पर अपना कब्जा छोडऩे को तैयार नहीं। अभी यह कहना कठिन है कि कांग्रेस को संचालित करने के तौर-तरीकों से नाखुश जी-23 समूह के नेताओं ने जो दबाव बनाया हुआ है, वह कुछ रंग लाएगा या नहीं, लेकिन यदि कांग्रेस इसी तरह चलती रही तो उसका कोई भविष्य नहीं। इस समूह के नेताओं में केवल कपिल सिब्बल ही हैं, जिन्होंने पार्टी का नेतृत्व गांधी परिवार से इतर अन्य किसी को सौंपने की मांग की है। कांग्र्रेस की वर्तमान स्थिति देखकर लगता है कि सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी अभी भी उसी मनोदशा में हैं, जिसमें वे तब थे जब संप्रग सरकार सत्ता में थी।

यह ठीक है कि 2004 से लेकर 2014 तक सोनिया गांधी ने पर्दे के पीछे से मनमोहन सरकार को संचालित किया, लेकिन उसके बाद से हालात बहुत बदल चुके हैं। गांधी परिवार की भक्ति में डूबे कांग्रेस नेता यह समझने को तैयार नहीं कि संप्रग शासन के समय भी सोनिया गांधी कांग्रेस को जमीनी स्तर पर सशक्त नहीं कर पाईं। इस दौरान राहुल गांधी कांग्रेस उपाध्यक्ष बने, लेकिन वह अपनी छाप छोडऩे में असफल साबित हुए। अध्यक्ष बनने के बाद तो वह और अधिक नाकाम रहे। स्वास्थ्य संबंधी कारणों से सोनिया गांधी ने भले ही राजनीतिक सक्रियता सीमित कर दी हो, लेकिन राहुल के प्रति अनुराग के कारण वह वैसे निर्णय नहीं ले पा रही हैं, जैसे आवश्यक हो चुके हैं। कांग्रेस गांधी परिवार के नेतृत्व से इतर कुछ सोच नहीं पा रही है। गांधी परिवार की चाटुकारिता कर रहे नेताओं को लगता है कि वे इस परिवार के बिना न तो चुनाव जीत सकते हैं और न ही एकजुट रह सकते हैं। इसी कारण वे सोनिया, राहुल और प्रियंका में ही अपना भविष्य देखते हैं, बिना यह समझे हुए कि आज के भारत की राजनीति और आम जनता की आकांक्षाएं बदल गई हैं। राहुल और प्रियंका में लगन और राजनीतिक समझ का भी अभाव है। कांग्रेस राहुल को अपनी सबसे बड़ी उम्मीद के रूप में देख रही है, लेकिन उन्होंने यही साबित किया है कि उनकी पूरी राजनीति प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कोसने तक सीमित है। जब राहुल की यह राजनीति आत्मघाती सिद्ध हुई तो उन्होंने नरम हिंदुत्व की राह पकड़ी। इससे भी बात नहीं बनी तो फिर पुराने ढर्रे पर आ गए। वास्तव में वह तब तक इसी तरह विफल होते रहेंगे, जब तक ऐसा कोई वैकल्पिक विचार सामने नहीं रखते, जो जनता को आकर्षित करे।

राहुल एक अनिच्छुक और अगंभीर नेता के रूप में सामने आते रहते हैं। उन्होंने सरकार में शामिल होने के मनमोहन सिंह के प्रस्ताव को नहीं स्वीकारा। लोकसभा में सक्रियता नहीं दिखाई और एक बार तो एक अध्यादेश की प्रति सबके सामने फाड़कर मनमोहन सिंह को अपमानित किया। बीते आठ साल से विपक्षी नेता के रूप में वह कोई सार्थक भूमिका निभाने के बजाय खुद को गरीबों का मसीहा और मोदी सरकार को चंद उद्यमियों की सरकार बताने के अलावा और कुछ नहीं कर सके हैं। राहुल जैसा हाल प्रियंका गांधी का भी है, जिनमें एक समय इंदिरा गांधी की छवि देखी जाती थी। उत्तर प्रदेश के चुनाव में उनके कथित करिश्मे की पोल खुल गई। पंजाब में गांधी परिवार ने जिस तरह नवजोत सिंह सिद्धू की मनमानी के आगे घुटने टेके और अमरिंदर सिंह को अपमानित किया, उससे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का ही काम किया। यह प्रसंग सोनिया, राहुल और प्रियंका की राजनीतिक अपरिपक्वता का ही प्रमाण है। उनके तौर-तरीकों से तमाम वरिष्ठ कांग्र्रेस नेता निराश तो हैं, लेकिन उन्हें अब भी यह लगता है कि सोनिया गांधी के बिना पार्टी का कोई भविष्य नहीं। इन नेताओं में अनेक ऐसे हैं, जिनका कोई ठोस जनाधार नहीं। लगन और मेहनत के मामले में वे प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं की बात तो दूर, भाजपा के अन्य नेताओं की भी बराबरी नहीं कर सकते। उनमें यह क्षमता भी नहीं कि वह अपने बलबूते कोई पार्टी खड़ी कर सकें।

पता नहीं कांग्रेस अपने अस्तित्व को बचाने के लिए क्या करेगी, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि देश के लोकतंत्र के लिए इस पार्टी का पुनर्जीवन आवश्यक है। कांग्र्रेस के पास अभी भी लगभग 20 प्रतिशत वोट हैं। कांग्रेस का फिर से उद्धार वही नेता कर सकता है, जो आम जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता कायम कर सके। फिलहाल कांग्रेस में ऐसा कोई चेहरा नहीं दिखता। पंजाब गंवाने के बाद जिन दो राज्यों में कांग्रेस सत्ता में है, उनमें से राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत गांधी परिवार की कृपा पर आश्रित हैं। उनके लिए सचिन पायलट की चुनौती का सामना करना कठिन हो रहा है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल राज्य से बाहर कोई जनाधार नहीं रखते।

लोकतंत्र के लिए यह शुभ नहीं कि कांग्रेस सरीखा राष्ट्रीय दल लगातार कमजोर होता जाए। उसकी कमजोरी का लाभ आम आदमी पार्टी और अन्य क्षेत्रीय दल उठा रहे हैं। कई क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन कर भाजपा को चुनौती तो देना चाहते हैं, लेकिन वे देश के समक्ष कोई ठोस एजेंडा नहीं रख पा रहे हैं।

यदि सोनिया गांधी को कांग्रेस और देश की चिंता है तो उन्हें और उनके साथ राहुल और प्रियंका गांधी को राजनीति से किनारा कर लेना चाहिए, क्योंकि जो गांधी परिवार कभी कांग्रेस की ताकत हुआ करता था, वह अब उसके लिए बोझ बन गया है। सामंती सोच से ग्रस्त गांधी परिवार पार्टी के साथ-साथ देश को भी अपनी निजी जागीर की तरह समझने लगा है। गांधी परिवार को उद्धारक के रूप में देख रहे कांग्रेस नेताओं को यह समझना होगा कि देश की जनता परिवारवादी दलों से मुंह मोड़ रही है। कांग्रेस और अन्य परिवारवादी दल जितनी जल्दी यह समझ लें तो बेहतर कि परिवारवाद लोकतंत्र के लिए विष की तरह है।


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