त्योहारों पर गांव-घर जाने का जुनून

सन 2020 की शुरुआत में केंद्र सरकार द्वारा अचानक देशव्यापी लॉकडाउन के फैसले के बाद हमने लाखों बेरोजगार श्रमिकों की घर वापसी का दुखद तमाशा देखा था

Update: 2021-11-08 18:31 GMT

एस श्रीनिवासन सन 2020 की शुरुआत में केंद्र सरकार द्वारा अचानक देशव्यापी लॉकडाउन के फैसले के बाद हमने लाखों बेरोजगार श्रमिकों की घर वापसी का दुखद तमाशा देखा था। परिवहन की सुविधा न मिल पाने के कारण मजदूर पैदल ही अपने गांव लौटने को मजबूर हुए थे। अचानक रोजगार छिन जाने की वजह से उनके पास कोई विकल्प भी नहीं बचा था। यह पलायन कोरोना महामारी की देन था। अप्रत्याशित हालात और सरकार द्वारा लिए गए गलत फैसलों के कारण ऐसा हुआ था, जिस पर दुनिया भर में व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी।

मगर आप हर साल होने वाली उस घर वापसी के बारे में क्या कहेंगे, जब दीपावली से कुछ दिन पहले लाखों लोग चेन्नई और बेंगलुरु जैसी अपनी कर्मभूमि को छोड़कर अपनी माटी की ओर लौटते हैं। अस्थाई ही सही, लेकिन यह पलायन भी शोचनीय है। और, त्योहार जैसे ही खत्म होते हैं, ये तमाम लोग अपने-अपने काम पर वापस आ जाते हैं। तमिलनाडु सरकार ने त्योहारी भीड़ से निपटने के लिए 12 लाख अतिरिक्त बसें बेड़े में लगाईं और कई विशेष ट्रेनों की शुरुआत की है। साधन-संपन्न लोग निजी गाड़ियों से ही गांव की ओर विदा हुए, तो शहर के नजदीक रहने वाले दोपहिये से। राज्य सरकार ने दीपावली के अगले दिन शुक्रवार और शनिवार को छुट्टियां घोषित कर दीं, जिस कारण लोगों को जश्न मनाने के लिए चार दिन का समय मिल गया। कहते हैं न, जहां दिल रमे, वही घर है, और इसीलिए शहरवासियों का दिल उन नई जगहों पर भी रम जाता है, जो उन्हें रोजगार व शिक्षा देते हैं और नए सामाजिक संबंध बनाने में मदद करते हैं। मगर तमिलनाडु की बात थोड़ी अलग है। यहां के मूल बाशिंदे अपनी सांस्कृतिक जड़ों और परंपराओं को सींचने के लिए परिवारों के बीच लौटना पसंद करते हैं। यहां एक परंपरा है। लोग अपने कुल देवता की पूजा करते हैं, और तमाम गांववाले मिलकर धार्मिक कार्यक्रम आयोजित करते हैं। शहरवासी इन आयोजनों में इसलिए शिरकत करते हैं, क्योंकि इससे उन्हें अपनी जड़ों से जुड़ने में मदद मिलती है।
शहर से दूर रहने के कई फायदे और सुख भी हैं। अंधाधुंध दौड़ से आप बच जाते हैं, अपने दादा-दादी, माता-पिता का प्यार पाते हैं, एक बेहतर भावनात्मक रिश्ता बनाते हैं, सादा-सरल जीवन जीते हैं, पौष्टिक खाना खाते हैं, अधिकाधिक आध्यात्मिक व पारंपरिक माहौल पाते हैं, और खराब कनेक्टिविटी के कारण डिजिटल दुनिया की जहरीली आबोहवा से दूर रहते हैं।
तमिलनाडु में परंपराओं का पालन पूरे जोश-ओ-खरोश से किया जाता है और इसमें कतई मलिनता नहीं दिखाई जाती। यहां की फिल्मों में भी यह स्पष्ट दिखता है। नायक-नायिकाओं के लिए पारंपरिक पोशाक पहनना और स्थानीय संस्कृति का जश्न मनाना यहां आम है। इसी तरह, कॉलेजों में भी पारंपरिक धोती और साड़ी में छात्र-छात्राओं को आसानी से देखा जा सकता है। युवतियां अपने बालों में फूल सजाती हैं और पुरुष माथे पर विभूति या सिंदूर लगाते हैं। दीपावली के अलावा सूर्य देवता को समर्पित फसलोत्सव पोंगल ही है, जिसे यहां काफी हर्ष-उल्लास के साथ मनाया जाता है।
तमिलनाडु बेशक भारत के शहरीकृत सूबों में एक है, लेकिन यहां गांव और शहर में खाई गहरी नहीं है। यहां संचार और डिजिटल प्रौद्योगिकी के हमले, सोशल मीडिया का प्रचार और ऑनलाइन खुदरा कारोबार राज्य के कोने-कोने में व्याप्त हैं, फिर भी खान-पान, भाषा और वेश-भूषा के रूप में हर इलाके की अपनी-अपनी अनूठी संस्कृति और परंपराएं महकती रहती हैं।
ऐसे में, घर वापसी और मौसमी प्रवासन कई तरह से राज्य के चरित्र को भी परिभाषित करते हैं। पिछले सात दशकों से सूबाई सियासत पर हावी सुधारवादी आंदोलन और द्रविड़ संस्कृति ने सांस्कृतिक परंपराओं को मजबूत किया है, लेकिन वे लोगों को उनकी धार्मिक परंपराओं और प्रथाओं से दूर नहीं कर सके हैं। लोगों ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को अपनाया है, लेकिन अपनी निजी धार्मिक मान्यताओं को छोड़ा नहीं है। दोनों का बराबर अस्तित्व बना हुआ है, क्योंकि यहां के लोग काफी ज्यादा धार्मिक हैं। ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि द्रविड़ आंदोलन के अलावा तमिलनाडु में शैववाद की भी जड़ें काफी गहरी रही हैं। नास्तिकता की वकालत करने वाले पेरियार के बरअक्स यहां कुंद्राकडी आदिगल जैसे शैव हिंदूवादी भी हुए हैं। आदिगल ईश्वर में विश्वास रखते थे, लेकिन वह और पेरियार, दोनों ने साथ मिलकर काम किया और दोनों ने जातिवाद के उन्मूलन को लेकर प्रतिबद्धता दिखाई।
धर्म के अलावा, लोकप्रिय संस्कृति और स्थानीय शब्दावलियों में प्रकृति व पर्यावरण को भी सांस्कृतिक परंपरा के रूप में देखा जाता है। वनों की कटाई, घटती जैव विविधता, खेती व पशुपालन सहित कृषि पद्धतियों के वन्य जीवन के करीब जाने से वन्य जीवों से होने वाली बीमारियों जैसे मसलों ने लोगों के बीच नई जागरूकता पैदा की है। ग्रामीण इलाकों के विकास के महत्व पर साहित्य और टेलीविजन शो में भी जोर दिया गया है। इन्हीं वजहों से महामारी के कारण नौकरियों और व्यापार पर आए संकट ने कई लोगों को गांवों की ओर लौटने को मजबूर किया। ज्यादातर कुशल कामगार, विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में काम करने वाले कर्मी, जिन्होंने वर्क फ्रॉम होम के कारण सुदूर इलाकों से भी काम करना सीख लिया है, अब पैतृक गांवों में रहने लगे हैं। शहरों में भीड़ के संपर्क से बचने के लिए जो कवायद शुरू हुई थी, वह अब कुछ लोगों के लिए आदत बन गई है, और कुछ के लिए जुनून की वजह। कई लोग अब इसी व्यवस्था के हिमायती बन गए हैं।
यहां तक कि राजनीतिक दल भी, जो या तो जाति-आधारित सियासत करते हैं या जातीय शुद्धता और उप-राष्ट्रवाद को बढ़ावा देते हैं, पर्यावरण संबंधी मसलों को महत्व देने लगे हैं, क्योंकि ये मुद्दे अब युवा आबादी को प्रभावित करते हैं। हालांकि, यहां सब कुछ धवल नहीं है। राज्य की अपनी समस्याएं भी हैं। जाति विभाजन हमेशा की तरह ज्यादा है। वर्षों की शिक्षा, जागरूकता और सामाजिक सुधारों ने इन दुष्प्रवृत्तियों को रोके जरूर रखा है, लेकिन इनको मिटाने में सफलता नहीं मिल सकी है। मजबूत क्षत्रपों की कमी और सूबाई सियासत में दक्षिणपंथ की दस्तक से कई प्रवृत्तियों की काया बदल सकती है, लेकिन हाल-फिलहाल में यह होगा, ऐसा लगता नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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