संसद असफल न हो !

लोकतन्त्र में यह कभी संभव नहीं है कि इसकी सर्वोच्च संस्था संसद को ही ‘असंगत’ बना दिया जाये और इसमें बैठने वाले जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को सड़कों पर चीखने-चिल्लाने के लिए छोड़ दिया जाये।

Update: 2021-08-01 01:27 GMT

लोकतन्त्र में यह कभी संभव नहीं है कि इसकी सर्वोच्च संस्था संसद को ही 'असंगत' बना दिया जाये और इसमें बैठने वाले जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को सड़कों पर चीखने-चिल्लाने के लिए छोड़ दिया जाये। भारत ने जब संसदीय चुनाव प्रणाली का चुनाव किया था तो इस देश में ब्रिटिश राज था और ब्रिटेन की संसद ही इसका भाग्य लिखा करती थी। परन्तु 1935 में जब अंग्रेजों ने 'भारत सरकार कानून' लागू किया तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में साफ कर दिया गया कि भारत संसदीय प्रणाली को अपनाएगा उस पर ब्रिटिश संसद के उच्च सदन 'हाऊस आफ लार्डस' में लम्बी बहस चली और अंग्रेज विद्वानों ने चेतावनी भरे लहजे में कहा कि भारत ने एक एेसे अंधे कुएं में छलांग लगा दी है जिसके बारे में कुछ अता-पता नहीं है। तब बापू ने कहा था कि भारत के लोगों के सुजान पर उन्हें पूरा भरोसा है और भारत इस दिशा में सफलता प्राप्त करेगा। भारत सरकार कानून के तहत ही तब चुनिन्दा मताधिकार के आधार पर प्रान्तीय एसेम्बलियों के 1936 में चुनाव हुए थे और भारत के राजनीतिक दलों की सरकारें ही गठित हुई थीं। जाहिर है कि तब पूरे देश में कांग्रेस का ही बोलबाला था।

स्वतन्त्रता मिलने के बाद भारत का जो संविधान बना उसमें प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार मिला और संसद से लेकर राज्य विधानसभाओं का गठन हुआ जिनमें विधायिका की सत्ता स्थापित करने के सिद्धान्त के आधार पर बहुमत के शासन की प्रणाली अपनाई गई। परन्तु हर चुने हुए सदन में समूची विधायिका को विशेषाधिकार से सम्पन्न करके इसके सदनों के भीतर स्वतन्त्रता व निडरता भी तय की गई। सदनों के भीतर शासन करने वाली सरकारों को इनके चुने हुए अध्यक्षों की मार्फत 'फरमाबदार' बनाया गया और सुनिश्चित किया गया कि विपक्ष में बैठे सदस्यों को सन्तुष्ट करते हुए उन्हें साथ लेकर चलना हर सरकार का फर्ज हो। इसी वजह से संसद से लेकर विधानसभाओं में विपक्षी सदस्यों को एेसे अधिकारों से लैस किया गया कि वे सरकार की जवाबतलबी खुलकर कर सकें। दरअसल पूरी लोकतान्त्रिक दुनिया की भारत की यह व्यवस्था कशीदाकारी की गई खूबसूरत प्रणाली है जिसके माध्यम से बहुमत के आधार पर चुनी गई सरकार 24 घंटे जनता के प्रति जवाबदेह बनी रहती है। इस जवाबदेही का अर्थ सरकार की कमजोरी बिल्कुल नहीं है बल्कि उसके हर वक्त शक्तिशाली बने रहने व दिखने की कवायद है जिससे उसका इकबाल हर परिस्थिति में बा-बुलन्द रह सके।
बेशक संविधान के अनुसार हर पांच साल बाद चुनाव होते हैं और बहुमत की सरकार को इस अवधि तक सत्ता में बने रहने का अधिकार होता है मगर इस दौरान संसद व विधानसभाओं के माध्यम से सरकार की कार्यप्रणाली व उसके फैसलों के जनहित पर खरा उतरने की परीक्षा की व्यवस्था भी इस प्रणाली का मूल अंग होती है। इसी वजह से बार-बार पिछले कई दशक से यह मांग उठ रही है कि संसद की बैठकें साल में कम से कम एक सौ दिन जरूर हों। परन्तु वर्तमान संसद के वर्षाकालीन सत्र में सत्ता व विपक्ष के बीच जिस प्रकार का गतिरोध कायम हो गया है उसे देखते हुए यह आशंका व्यक्त की जाने लगी है कि कहीं संसद के सत्र को बीच में ही स्थगित न कर दिया जाये। यदि एेसा होता है तो भारत के लोकतन्त्र के लिए यह बहुत दुखद होगा क्योंकि इससे यह सन्देश पूरी दुनिया को चला जायेगा कि भारत की संसद अपने दायित्व का निर्वाह करने में असमर्थ हो चुकी है। लोकतन्त्र में पूरी संस्था का ही असंगत होना या उसका नाकाम हो जाना समूचे तन्त्र के असफल हो जाने का प्रतीक माना जाता है। इस सन्दर्भ में भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्व. के.आर. नारायणन का वह कथन याद किया जाना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि 'लोकतन्त्र ने हमें असफल नहीं किया बल्कि हमने लोकतन्त्र को असफल कर दिया है'। अतः प्रमुख बात यह है 'संसद हमें फेल नहीं कर रही बल्कि संसद को हम फेल कर रहे हैं'। अतः हर राजनीतिक दल अपने गिरेबान में झांक कर देखे और सोचे कि जिस जनता ने उनमें विश्वास व्यक्त करके उनके नुमाइन्दों को संसद में भेजा है वे सत्ता और विपक्ष मंे बंट कर अपने दायित्व का शुद्ध अन्तःकरण से पालन कर रहे हैं या नहीं।
सवाल यह नहीं है कि विपक्ष और सत्ता पक्ष पेगासस मुद्दे पर जिद पर क्यों अड़े हुए हैं बल्कि सवाल यह है कि इसका शिकार संसद को क्यों बनाया जा रहा है? संसद को चलाने की सारी प्रणाली क्यों ठप्प हो गई है और हर निर्णायक पद तमाशबीन कैसे बना हुआ है? संसद में बेशक राजनीतिक दल अपने हितों का ध्यान रखते हुए ही सियासी शतरंज बिछाते हैं मगर ध्यान रखा जाना चाहिए कि खेल के नियम सभी के लिए एक जैसे होते हैं। राजनीतिक दलों के संसद के भीतर पाला बदलने से ये नियम नहीं बदलते हैं। इस हिसाब से अगर हम सोचेंगे तो वर्तमान गतिरोध का उत्तर और समाधान जल्दी से जल्दी से पा लेंगे। संसद का वर्षाकालीन सत्र वैसे भी बहुत छोटा 19 जुलाई से 13 अगस्त तक का है जिसमें कुल 19 बैठकें होनी थीं। इनमें से नौ बैठकें गतिरोध की भेंट चढ़ चुकी हैं। अब शेष दस बैठकें बची हैं मगर गतिरोध टूटने का नाम नहीं ले रहा है और आशंका व्यक्त की जा रही है कि यह संक्षिप्त सत्र बीच में ही स्थगित हो सकता है।


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