By: divyahimachal
यह बहुत बड़ा राजनीतिक उलटफेर है। यही खानदानी पार्टियों की नियति है। समाजवादी पार्टी और शिवसेना में यह उलटफेर हो चुका है। यह कुनबे के दूसरे सदस्यों की महत्त्वाकांक्षा है। एक ही परिवार या एक ही बुजुर्ग की अनंत कुंडली अब स्वीकार्य नहीं है। खानदान के दूसरे चेहरे भी अपनी सियासी पारी खेलना चाहते हैं। मुख्यमंत्री भी बनना चाहते हैं। बेशक शिवसेना में कुछ अलग घटित हुआ। वहां बाल ठाकरे के शिव सैनिकों ने बगावत की और दिवंगत पार्टी प्रमुख के ‘राजकुमार’ को नकार दिया। चुनाव आयोग ने भी पार्टी का नाम और निशान शिव सैनिकों को आवंटित कर उन्हें ‘असली शिवसेना’ की मान्यता दी। मामला फिलहाल सर्वोच्च अदालत में है। इसी तर्ज पर ‘राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी’ (एनसीपी) में हुआ है। एनसीपी करीब 24 साल तक शरद पवार की थी, क्योंकि वह पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष रहे। अब उन्हीं के सगे भतीजे एवं राजनीतिक शिष्य अजित पवार ने पार्टी छीन ली और खुद को एनसीपी का नया राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया। उसके बाद ही भाजपा से गठबंधन किया और शिंदे सरकार में शामिल हो गए। गठबंधन पार्टी के स्तर पर हुआ है, लिहाजा अब एनसीपी एनडीए का घटक दल है। चुनाव आयोग से मान्यता के लिए अजित गुट ने याचिका दी है। उधर शरद पवार गुट ने उन 9 विधायकों को पार्टी से बर्खास्त किया है, जिन्होंने बीती 2 जून को मंत्री पद की शपथ ली थी। चुनाव आयोग को उन विधायकों को ‘अयोग्य’ करार देने की भी अर्जी दी गई है। अब संघर्ष ‘अपनी-अपनी एनसीपी’ का है। दोनों गुटों ने विधायकों, सांसदों, नेताओं की जो अलग-अलग बैठक बुलाई थी, उनमें बहुमत अजित के पक्ष में है।
अजित गुट में 31 विधायकों ने हलफनामे पर हस्ताक्षर किए हैं, जबकि दावा यह है कि 42 विधायकों ने हलफनामा भर कर अजित को समर्थन दिया है। अब महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि कौन शरद पवार का कितना करीबी था? नैतिकता और निष्ठा कहां गई? क्या शरद को यथासमय रिटायर होकर नया अध्यक्ष चुनना चाहिए था? क्या बेटी सुप्रिया सुले को ‘कार्यकारी अध्यक्ष’ बनाने का फैसला भी खानदानी था? यदि अजित को अध्यक्ष बनाया जाता, तो वह भी खानदान की नई पीढ़ी होते। खानदान से बाहर सोचना ऐसी पार्टियों का सरोकार ही नहीं है। गौरतलब यह है कि पवार के घर की भीतरी कलह सतह पर आकर सार्वजनिक क्यों हुई? अजित पवार ने यह क्यों कहा कि वह शरद पवार के बेटे नहीं हैं, तो इसमें उनकी गलती क्या है? यानी वह लगातार अपेक्षा कर रहे थे कि खानदानी पार्टी का नेतृत्व ‘चाचाजी’ उन्हें ही सौंपेंगे। अजित ने यह भी आरोप लगाया कि उन्हें बार-बार अपमानित किया गया। विलेन (खलनायक) घोषित किया गया, जबकि चाचा ने कई निरंकुश फैसले किए और बड़े-बड़े नेताओं को दरकिनार किया। खुद शरद पवार 2014, ’17, ’19 में भाजपा के साथ गठबंधन कर सरकार बनाने के पक्षधर थे। अंतत: उन्होंने शिवसेना और कांग्रेस के साथ ‘महाविकास अघाड़ी’ सरकार बनाई। यदि यह गठबंधन बनाया जा सकता है, तो भाजपा के साथ क्यों नहीं किया जा सकता?
ऐसे कई सवाल अजित पवार ने उठाए हैं। वह यह भी मानते और स्वीकार करते हैं कि शरद पवार आज भी उनके ‘देवता’ हैं। उन्हीं के मार्गदर्शन और छत्रछाया में राजनीति सीखी है। उन्हें साष्टांग प्रणाम भी करते हैं, लेकिन यह भी कहते हैं कि अब ‘गुरुजी’ का समय बीत चुका है। अब नई पीढ़ी का वक्त है, लिहाजा उसके लिए आसन खाली करो। गौरतलब यह है कि दोनों ‘पवारों’ का व्यापक जनाधार पश्चिम महाराष्ट्र, मराठवाड़ा, विदर्भ आदि इलाकों में है। उसी क्षेत्र की बारामती सीट से सुप्रिया सुले लोकसभा सांसद हैं और विधानसभा सीट से अजित पवार विधायक हैं। राजनीति तब ‘चरम’ पर होगी, जब 2024 के आम चुनाव होंगे। अगले साल ही विधानसभा चुनाव हैं। भाजपा को एक सशक्त चुनाव क्षेत्र ‘तोहफे’ में मिला है। शिवसेना और एनसीपी के साथ मिलकर भाजपा कई तिलिस्म तोड़ सकती है। अजित पवार के सामने भी चुनौती है।