शिक्षा को खूंटे से खोलें

उजालो में दीये की लौ कितनी दूर तक देखेगी, यह दिन की ठोकरों में आंख पर चढ़ा चश्मा क्या बताएगा

Update: 2022-05-10 09:24 GMT

उजालो में दीये की लौ कितनी दूर तक देखेगी, यह दिन की ठोकरों में आंख पर चढ़ा चश्मा क्या बताएगा। प्रशासन जब मिलकीयत बन जाए तो हर विभाग एक मिट्टी का टीला है। इसे देखना है तो हिमाचल की करवटों में कई विभागों के कामकाज पर नजर दौड़ाएं, लेकिन इसी बीच शिक्षा विभाग के आंचल में प्रदेश के नसीब को जगा कर देखें कि फैसलों के बीच किस तरह के आंदोलन हो रहे हैं। जिनके बच्चे सुबह साढ़े सात बजे स्कूल में जाकर आंख खोलें या गर्मी से मुकाबला करते हुए साढ़े बारह बजे लौटें, उनसे पूछिए कि फैसलों में क्रांतियों के उद्घोष यूं ही सिरफिरे नहीं होते। शिक्षा को हम शिक्षकों की वजह, विभागीय मंत्री के अनमने अवचेतन और स्कूलों में रंग रोगन की रोशनी में देखने लगे हैं। स्कूल अपने आप में राजनीति की घोषणा ही तो है, जहां शिक्षा की जादूगरी देखते-देखते बच्चे बेरोजगारी की शाखाओं पर सवार हो गए और फिर किसी कनस्तर की तरह खाली दिमाग में पाठ्यक्रम को भरने के लिए पढ़ाई के घंटे गिने जाते हैं। गर्मियों में आए पसीने को पोंछते हुए विभाग के शिमला मुख्यालय ने सोच लिया कि स्कूलों को जलते सूरज से कैसे बचाया जाए। यानी हर प्रकोप और प्राकृतिक आलोप में मुद्दे को ही गायब करने का समार्थ्य हमारे विभागीय कौशल में है। बाकी विभागों की तरह शिक्षा विभाग भी अब आंकड़ा ही तो है।

कुछ सुखद आंकड़ों का वितरण और कुछ राजनीतिक उत्कंठा का सम्मिश्रण ही तो शिक्षा हो गई। ऐसा नहीं है कि विभाग के भीतर सोच-समझ या सरोकारों की कमी है, फिर भी संसाधनों की फिजूलखर्ची में शिक्षा को अपने लक्ष्य के बजाय सत्ता की छवि की चिंता है। इन पंक्तियों के लेखक के पास हिमाचल के एक शिक्षविद के तीन संदेश आते हैं, तो मालूम होता है कि हम संसाधनों की कब्रगाह में शिक्षा के दीये की लौ जला रहे हैं। गोपनीयता के कारण हम उपर्युक्त शिक्षाविद का नाम नहीं दे रहे, लेकिन इतना जरूर कहेंगे कि शिक्षण संस्थानों के भीतर कहीं न कहीं शिक्षक के मन की पवित्रता घुटन महसूस कर रही है। भले ही स्कूलों से बोरियां भर-भर कर हम आंकड़े निकाल लें, लेकिन उस अध्यापक को भी बोरी बना रहे हैं, जो छात्रों के व्यक्तित्व में खुद की पहचान देखता है। हमारे पास तीन शिकायतों में से पहली सरकारी यूनिफार्म के आबंटन को लेकर आई है। भले ही प्लस टू के बच्चे वार्षिक परीक्षाओं को देकर रुखस्त हो गए, लेकिन शिक्षा विभाग उन्हें वर्दी पहनाने पर तुला है। यह शिक्षा विभाग का तुला दान है जो जमा दो के छात्रोें को इसलिए मिल के रहेगा, क्योंकि सरकारी वर्दी सिलने के बजाय विभाग की अपनी सलवटें सामने न आ जाएं। हैरानी यह कि मुफ्त वर्दी का मोह पैदा करने की कला में शिक्षा विभाग इतना पारंगत हो चुका है कि स्कूल छोड़ने पर भी आबंटन के आंकड़े दुरुस्त हो रहे हैं। सुझावों की रद्दी में शिक्षा निदेशालय की गोपनीयता को ढूंढना इतना भी मुश्किल नहीं, फिर भी आलम यह है कि हर बार दाखिलों की तारीख बढ़ा कर पूरे शिक्षा सत्र की बखियां उधेड़ी जा रही हैं।
दाखिले की तारीख बढ़ने से एक तो शिक्षा में अनुशासन की धज्जियां उड़ती हैं, दूसरे जो बच्चे आरंभ में प्रवेश नहीं लेते हैं, उनके लिए पाठ्यक्रम की सूई कम से कम एक महीने तक अटकी रहती है। क्या एक महीना गंवाने की रिवायत में, दाखिले की तारीख बढ़ा कर शिक्षा विभाग अति सक्षम होता है या यह अनुशासन सिखाने की जरूरत है कि इस तरह की परंपराएं सख्ती से रोकी जाएं। शिक्षा विभाग के ही अधिकारी के तीसरे संदेश में शिक्षा की आत्मा का हरण होने का दर्द है। उक्त प्राचार्य के स्कूल की तीन गर्भवती शिक्षिकाएं छह माह की छुट्टी पर जा रही हैं और यह कमोबेश हर शिक्षण संस्थान की व्यथा है कि सत्र के बीच मानवीय पहलुओं की अनिवार्यता के कारण रिक्तता पैदा होती है। प्रदेश के पूरे स्कूलों में हर साल मातृत्व अवकाश की अनिवार्यता के कारण पाठ्यक्रम भी किसी बच्चे की तरह रोता-बिलखता है, तो साथ ही साथ यह इंतजाम क्यों नहीं कि विभाग अपने औचित्य की भरपाई में विद्यार्थियों के लिए अवकाश पर गए शिक्षकों का विकल्प रखे। मातृत्व अवकाश की अनुमति के साथ ही ऐसी व्यवस्था की शुरुआत को स्थानांतरण नीति से जोड़ देना चाहिए। शिक्षा को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए शिक्षकों की व्यथा को इस दृष्टि से देखा जाए कि हर स्कूल में इसका सही उत्पादन हो। अंत में इस शिक्षावाद का आभार प्रकट करते हम हर विभाग के ऐसे अधिकारियों से निवेदन करेंगे कि व्यवस्था के ढांचे को मजबूत करने के लिए आगे आएं।

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचली

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