कोई मतदाता आपको अतीत के नाम पर वोट नहीं देने वाला; नेहरू, इंदिरा और राजीव को लेकर आग्रहों को कम कीजिए

सोनिया गांधी ने काफी देर से उदयपुर में हुए कांग्रेस ‘चिंतन शिविर’ की शुरुआत यह कहते हुए की कि पार्टी को नया स्वरूप देना

Update: 2022-05-17 08:33 GMT

शेखर गुप्ता का कॉलम: 

सोनिया गांधी ने काफी देर से उदयपुर में हुए कांग्रेस 'चिंतन शिविर' की शुरुआत यह कहते हुए की कि पार्टी को नया स्वरूप देना है। इससे चार सवाल उभरते हैं- 1. गर्त में पहुंच चुकी कांग्रेस को अब नया स्वरूप प्रदान किया भी जा सकता है क्या? 2. अगर यह संभव है, तो इसके लिए क्या करना पड़ेगा? 3. जब कई क्षेत्रीय ताकतें विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए उभर रही हैं, तब एक राष्ट्रीय विपक्षी पार्टी का होना कितना महत्व रखता है? 4. क्या वह अखिल भारतीय विपक्षी पार्टी केवल कांग्रेस ही हो सकती है? क्या वह नया विकल्प बन सकती है?
आपको याद होगा कि एक समय हर तरफ नजर आने वाली एंबेसडर मॉडल की कार कैसी हुआ करती थी। भारत के छोटे-से कार बाजार में कभी इसका दबदबा था और यह शासन तंत्र की वैसी ही प्रतीक थी जैसी कांग्रेस दशकों तक रही। 1980 के दशक के अंत में जब मारुति-सुजुकी उभरी और 1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के साथ कारों के दूसरे आकर्षक मॉडल बाजार में छा गए तब एंबेसडर बनाने वाली हिंदुस्तान मोटर्स के मालिकों-प्रबंधकों के मन में भी ऐसे सवाल उठे होंगे कि क्या हम नया वर्जन ला सकते हैं?
अगर ऐसा हो सकता है तो यह बदलाव कैसे आएगा? भारत के कार बाजार के लिए क्या अखिल भारतीय लोकप्रियता वाला एक ब्रांड जरूरी है? और क्या वह ब्रांड एंबेसडर ही हो सकता है? यह भी याद कीजिए कि हिंदुस्तान मोटर्स ने इस कार को नया रूप देने के लिए क्या-क्या किया। उसने उसका बाहरी स्वरूप बदला, उसके एयर-कंडीशन वाले मॉडल निकाले, उसमें जापानी इंजन डाला। लेकिन बात न बनी। अब आप इस कसौटी पर कांग्रेस पार्टी को कसें, तो पहले दो सवालों के जवाब मिल जाएंगे।
इतने पुराने ब्रांड को नए अवतार में बदलना संभव नहीं है। जो कोशिशें की वे विफल हो चुकी हैं। कांग्रेस ने जो नई चीजें की, वे चमक खो चुकी हैं। इसका सबसे नया सबूत यह है कि पार्टी के गुजराती नेता हार्दिक पटेल उदयपुर में नहीं थे। पार्टी ने उन्हें युवा प्रदेश अध्यक्ष के रूप में शामिल किया था और कहा जा रहा था कि यह क्रांतिकारी कदम है।
नए गठबंधन बनाए गए, चाहे ममता बनर्जी के साथ हों, वामदलों के साथ, कर्नाटक में जेडी(एस) के साथ, राजद के साथ, तेलंगाना में टीडीपी के साथ या सबसे अहम यूपी में सपा के साथ। पर इनकी विफलता इतनी घातक रही है कि अब संभावित सहयोगी भी कांग्रेस से जुड़ाव को खुदकशी मानने लगे हैं। हाल में राहुल गांधी ने खुलासा किया कि यूपी में उनकी पार्टी ने मायावती की ओर हाथ बढ़ाया था लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।
आज एनसीपी और झामुमो के सिवा भारत की लगभग सभी पार्टियां कांग्रेस को गठबंधन के काबिल नहीं मानतीं। कांग्रेस ने खुद को नया रूप देने की और भी कई कोशिशें की लेकिन विफल रही। 'अंबानी-अडानी की सरकार' के नारे के साथ वामपंथी झुकाव देने और 'चौकीदार चोर है' के नारे के साथ भ्रष्टाचार विरोधी तेवर देने की कोशिश हुई, मंदिरों के दौरे किए गए और खासकर दत्तात्रेय गोत्र के जनेऊधारी ब्राह्मण होने के दावे तक किए गए।
प्रियंका गांधी को प्रचार में उतार दिया गया। प्रमुख राज्यों में नए नेताओं को आजमाया गया, जैसे पंजाब में सिद्धू को। लेकिन सारे प्रयास विफल रहे। इसलिए, पहले दो सवालों का जवाब यही है कि कांग्रेस नामक ब्रांड का नया अवतार नहीं गढ़ा जा सकता। अब सवाल यह है कि क्या इसकी जरूरत है भी? क्या इसे इतिहास में विलीन नहीं हो जाना चाहिए? और क्या भाजपा विरोधी राजनीतिक 'स्पेस' को ज्यादा सक्षम उत्तराधिकारियों के लिए नहीं छोड़ देना चाहिए?
पार्टी के जहीन लोग जब चिंतन में लगे हैं, तब ऐसे तर्क कड़वे लग सकते हैं। लेकिन जब तक आप चुनौती की गंभीरता को कबूल नहीं करेंगे तब तक आप गंभीर आत्म-विश्लेषण कैसे करेंगे? आप ट्विटर पर अपनी अपराजेयता और अपरिहार्यता के दावे हमेशा नहीं करते रह सकते। यह हमें तीसरे और चौथे सवालों के सामने ला खड़ा करता है। इसमें शक नहीं कि जरूरत हो या न हो, कारों में अखिल भारतीय दबदबे वाला एक ब्रांड होगा ही।
यह संयोग है कि आज यह ब्रांड मारुति है, लेकिन कल यह हुंडई, परसों टोयोटा, महिंद्रा या टाटा इत्यादि हो सकते हैं। हर तरह की कार में एक प्रमुख मॉडल होगा, पर जो निरंतर बदलता रहेगा और नयापन लाता रहेगा, वही बचा रहेगा। जिसका नाम ही पुराने का एहसास दिलाता हो, उसे नया अवतार देने की संभावना ही नहीं बनती। कांग्रेस के लिए आगे का रास्ता वही है जो एंबेसडर के निर्माताओं के सामने रहा होगा।
बाजार को 'नया, बेहतर और परिवर्तित' मॉडल देकर नहीं बल्कि एकदम नया ब्रांड उतारकर चकित कर दीजिए। जो ब्रांड इतना टूट चुका हो उसे नया स्वरूप नहीं दिया जा सकता। आपको नया ब्रांड ही बनाना पड़ेगा। अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो हमारा चौथा सवाल आपको परेशान करेगा। भारतीय लोकतंत्र में आज भाजपा को चुनौती देने के लिए एक मजबूत अखिल भारतीय ताकत की जरूरत है, ताकि उसे तुरंत न भी हटाया जा सके तो हमारी राजनीति में कुछ संतुलन तो बना रहे।
लेकिन 1990 के दशक वाली एंबेसडर की तरह वह ताकत अब कांग्रेस नहीं हो सकती। हिंदी पट्टी में एक के बाद एक राज्य में जाति आधारित दलों ने 'सेकुलर' व वंचित तबकों के वोटों पर कब्जा किया है। इन नए नेताओं में अधिकतर तो कांग्रेस के ही बागी हैं। चाहे वह ममता हों या जगन या हिमंत। और अब उसके बाकी बचे वोटों पर 'आप' कब्जा कर रही है।
धीमी गति वाला विभाजन
विभाजन कांग्रेस के लिए नई बात नहीं है, खासकर 1960 के दशक के मध्य से। समय-समय पर इसमें से कई गुट अलग होते रहे हैं- कांग्रेस-ओ, आई, जे, एस, आर, एनसीपी, सीएफडी… सवाल यह है कि अगर कांग्रेस टूटती है तो किसके पल्ले क्या पड़ेगा और कौन क्या छोड़ जाएगा? पिछले एक दशक में गांधी परिवार कई नेताओं को गंवा चुका है। इसे धीमी गति वाला विभाजन कहा जा सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Similar News

-->