इस दुनिया में नया जीवन पैदा करना हर मां के लिए पुनर्जन्म की तरह
ऊना उन 22 बच्चों में से एक है, जो अपने देश पर हुए हमले के बाद बीते एक हफ्ते में इस दुनिया में आए
एन. रघुरामन का कॉलम:
ऊना उन 22 बच्चों में से एक है, जो अपने देश पर हुए हमले के बाद बीते एक हफ्ते में इस दुनिया में आए। ऊना यूक्रेन का निकनेम भी है। मां के सीने से चिपककर दूध पीती हुई उस बच्ची का हाथ हर वक्त संयोग से अपनी मां के चेहरे की ओर बढ़कर उसे छू जाता, मानो मां के आंसू पोंछकर कह रही हो, 'मैं आ गई ना, तू रोना मत।' शायद यही कारण हो कि ऊना की मां उसकी नाजुक हथेली पकड़कर, उसे चूमते हुए जोर से कहती, 'कितनी बहादुर है मेरी बच्ची।'
और उन शब्दों के साथ आंसुओं की धार फूट पड़ती क्योंकि उसे चिंता सताती है कि इस खूबसूरत बच्ची की सुरक्षा-देखभाल कैसे करेंगी। ऐसा इसलिए क्योंकि मां-बच्ची दोनों कीव के तलघरे में बने छोटे से नर्सिंग होम में हैं और सूरज ढलते ही क्लीनिक की रोशनी बुझा दी जाती है। डॉक्टर्स फोन की लाइट से वार्ड में आवाजाही करते हैं। गर्भवती मांएं, नई मांएं, होने वाले पिता बेसमेंट व अस्पताल के फ्लोर पर ऊपर-नीचे होते रहते हैं। नर्सें नवजातों को बेसमेंट में एक परिवर्तित कैफेटेरिया में ले जाती हैं।
यह युद्धकाल का प्रसूति वार्ड है। भीषण पीड़ा के बीच जन्म और आनंद। हालांकि हमले के बाद कई लोग यूक्रेन छोड़ चुके हैं, लेकिन ऊना की मां जैसों ने कुछ अच्छी चॉइस के साथ यहां रहना चुना। उनके लिए भागना मतलब बिना किसी चिकित्सकीय मदद के बस या ट्रेन में बच्चे को जन्म देना और रुकना मतलब बमबारी के बीच रहना था। बेसमेंट में लेटे हुए और भविष्य के बारे में पूरी तरह अनिश्चित ऊना की मां बच्चे को इस दुनिया में लाने का पूरा साहस जुटाती हैं।
वो डर आंसुओं में तब्दील हो रहा है और वो मासूम प्रतीकात्मक रूप से आंसू पोंछ रही है! यूक्रेन के हालातों के कारण मुझे 1968 में बनी एक परिस्थिति याद आ गई। तब तमिलनाडु में चेन्नई से 600 किमी दूर मंदिरों वाले कस्बे कुंभकोणम में मेरी बहन इस दुनिया में आने ही वाली थी। 33 हजार आबादी वाले कस्बे में हिंदू त्योहार 'महामहम' मनाने के लिए लाखों लोग जुटे थे, कुंभ मेले की तरह ये भी हर 12 साल में महामहम कुंड में आयोजित होता है।
महामहम के दिन श्रद्धालु इसमें डुबकी लगाना पवित्र मानते हैं। और जब यह शाही स्नान अपने चरम पर था, मेरी मां को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई। और उन्हें छोटे से घर से नर्सिंग होम तक पहुंचाना मतलब किसी सुनामी को पार करना था, जो कि असल में लोगों की सुनामी थी। मेरी मां अपने होठों को दांतों से कसकर दबाए इस दुनिया में आने वाली मेरी बहन से कहना चाह रही थीं कि जरा देर रुक जाओ।
इस दौरान मां के होंठ कट गए थे और उनसे खून आने लगा था। 1993 में मेरी बहन मुंबई में मेरी भांजी को जन्म दे रही थी कि अचानक शहर में बम धमाके की खबर आग की तरह फैलने से अफरा-तफरी मच गई। और बॉम्बे की सड़कों पर हम वही स्थिति फिर से देख रहे थे। फिर 2008 में मुंबई आतंकी हमले के बीच, पत्रकार होने के नाते स्टोरी कवर करते हुए मैंने ऐसी कई डरी हुई मांओं को देखा।
कामा अस्पताल की पहली मंजिल पर वे मांएं तालाबंद थीं, जहां उस रात आतंकियों ने कईयों को मार दिया था। प्रसूति विभाग में लाइट नहीं थी, नर्स ने चतुराई से लोहे का बाहर वाला गेट बंद कर दिया था। हर मां बच्चे को सामान्य से ज्यादा दूध पिला रही थीं ताकि बच्चे रोकर शोर न करें। अगर मुझे यह महिला दिवस किसी को समर्पित करना पड़े, तो मैं आंख मूंदकर बिना कुछ सोचे सारी मांओं को यह समर्पित करूंगा।
फंडा यह है कि इस दुनिया में नया जीवन पैदा करना हर मां के लिए पुनर्जन्म की तरह होता है। अगर अभी भी वो आपके साथ हों, तो कृपयाकर उन्हें सलाम करें, गले लगाएं और उनके आगे नतमस्तक हो जाएं। हां, ऐसा सिर्फ महिला दिवस के दिन नहीं, बल्कि हर रोज करें।