एमएसपी का मुद्दा 1970 के दशक से प्रभावी है, लेकिन पहले मात्र 6 फीसदी किसानों को इसका लाभ मिलता था। अब 10-12 फीसदी किसानों को फायदा मिलता होगा! कुछ भी निश्चित नहीं है। सारांश यह है कि एमएसपी आज भी पूरी तरह प्रभावी नहीं है। किसानों को सरकार के घोषित मूल्यों से कम पर अपनी फसलें बेचनी पड़ती हैं। भारत सरकार ने एमएसपी के दायरे में सिर्फ 23 फसलें ही रखी हैं, जबकि 150 से अधिक कृषि-उत्पादों के मूल्य सरकार द्वारा तय किए जाने चाहिए। गेहूं और चावल की खरीद एमएसपी पर कुछ हद तक संभव हो जाती है। जिनकी फसलें सरकार खरीद नहीं पाती, उन्हें 50 फीसदी से भी कम मूल्य पर फसलें बेचनी पड़ती हैं। यदि मक्का, बाजरा, जौ आदि की खरीद का विश्लेषण किया जाए, तो उनकी औसतन 2-3 फीसदी ही सरकारी खरीद हो पाती है। बीते करीब 50 सालों में किसानों को करीब 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान झेलना पड़ा है और औसत किसान गरीब तथा कर्ज़दार होता रहा है। ये सरकारी आंकड़ों की रपटें ही हैं कि औसतन किसान की रोज़ाना की आमदनी करीब 27 रुपए है। यह दयनीय और शर्मनाक है! 2022 तो ऐसा वर्ष है, जब प्रधानमंत्री मोदी की घोषणा और आश्वासन के मुताबिक किसान की आमदनी दुगुनी होनी चाहिए। एनएसएसओ और नीति आयोग के आकलनों के मुताबिक, आज किसान की मासिक आय 21,000 रुपए से ज्यादा होनी चाहिए, लेकिन यह 10,000 रुपए से कुछ ज्यादा तक पहुंच पाई है।
किसान की आमदनी दुगुनी कैसे होगी? एमएसपी उसकी आय की बुनियाद साबित हो सकता है। इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की विशेषज्ञ कमेटी के एक सदस्य अनिल घनवट की सार्वजनिक रपट के खुलासे भी महत्त्वपूर्ण हैं। कमेटी ने अपनी रपट 19 मार्च, 2021 को सीलबंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी थी। शीर्ष अदालत ने न तो उस पर सुनवाई की और न ही कोई संज्ञान लिया, लिहाजा घनवट ने अपनी रपट सार्वजनिक कर दी। जिन 73 किसान संगठनों से बातचीत हुई, उनमें से 61 संगठनों ने केंद्र सरकार के तीनों विवादास्पद कानूनों का समर्थन किया था। बहरहाल मुद्दा एमएसपी का है, जिसे घनवट तर्कसंगत नहीं मानते। कमेटी का भी मानना था कि सरकार एमएसपी पर कानूनी गारंटी दे ही नहीं सकती। सारी फसलें सरकार खरीद नहीं सकती। यदि बाज़ार में एमएसपी जबरन थोपा जाएगा, तो व्यापारी खरीदेंगे ही नहीं। अरहर और मक्का के उदाहरण देकर अनिल घनवट ने समझाया है कि एमएसपी कानून ठीक नहीं है। आंदोलित किसानों की आशंका है कि यदि सरकार की कमेटी में ऐसे विशेषज्ञ आ गए, जो खुला बाज़ार समर्थक हैं, तो एमएसपी पर कानून बनाया ही नहीं जा सकता। इन विशेषज्ञों को संयुक्त किसान मोर्चा कॉरपोरेट के दलाल करार देता है। यह भी संभव नहीं है कि सरकारी कमेटी में आंदोलित किसान ही एक सबल पक्ष के तौर पर शामिल रहें। नतीजतन कमेटी का मुद्दा ही 'मूंछ का सवाल' बनकर रह गया है। हमारा तो सिर्फ इतना मानना है कि सरकार ही तय करे कि एमएसपी पर गारंटी कानून बनेगा या नहीं! जिस तरह यह विषय अभी तक लटकता आया है, वह नियति नहीं होनी चाहिए। आखिर देश के प्रधानमंत्री ने आश्वस्त किया था! एमएसपी से अगर किसानों को लाभ होता है तो इसे किसानों को दिया ही जाना चाहिए। संभव है इससे केंद्र सरकार की किसानों की आय दुगना करने की प्रतिज्ञा पूरी हो जाए।