By प्रभु चावला
उपद्रव से समाचार बनने के इस नये युग में कोई समाचार नहीं होना अच्छा समाचार है. विचारों के अभाव और बौद्धिक मूढ़ता के कारण पैदा हुए समाचार अकाल के दौर में किसी राजनीतिक दल में होने वाला नियमित सांगठनिक पुनर्गठन भी पहले पन्ने पर छा जाता है और प्राइम टाइम में हंगामे की वजह बन जाता है. 'कौन अंदर आया और कौन बाहर हुआ तथा इसके कारण क्या हैं' पर बहस आज बकवास टीवी पंडितों के ज्ञान और पहुंच की परीक्षा का मानदंड बन गयी है.
जब से राजनीति अकेले व्यक्ति का खेल बनी है, पार्टी मंचों की प्रासंगिकता घटती जा रही है. संवैधानिक प्रावधानों के कारण दलों को इन इकाइयों के गठन के लिए बाध्य होना पड़ता है. कुछ दिन पहले भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने 11 सदस्यों वाले संसदीय बोर्ड और 19 सदस्यों वाली केंद्रीय चुनाव समिति का पुनर्गठन किया है.
इन इकाइयों से बड़े जनाधार वाले कई राजनीतिक धुरंधरों को बाहर रखा गया है. कुछ महीने बाद नड्डा भी पदमुक्त होंगे. उनके पूर्ववर्ती अमित शाह ने भी पार्टी संरचना में बदलाव किया था. कुछ वर्षों तक इन दोनों इकाइयों की शायद ही बैठकें हुईं या उन्होंने पार्टी संविधान के नियमों का पालन किया. कुछ लोगों को शामिल किये जाने या हटाये जाने को और सोशल इंजीनियरिंग करने के चालाक संकेत के रूप में देखा जा रहा है.
केसरिया चाय के पत्तों को पढ़ने से इंगित होता है कि यह बदलाव नया नेतृत्व गढ़ने और 2024 के लिए चुनावी टीम बनाने के इरादे से किया गया है. नये चेहरों में मध्य स्तर के दलित नेता तथा अल्पसंख्यक व पिछड़े समुदायों के प्रतिनिधि शामिल हैं. इनमें से कई चुनाव हार चुके हैं. इस पुनर्गठन से यह भी संकेत मिलता है कि चेहराविहीन चापलूसी के रूप में भाजपा में भी चीजें बदल रही हैं, जहां अधिकतम निर्णय न्यूनतम चर्चा से लिये जाते हैं.
चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही हर लोकप्रिय फैसले का श्रेय मिलता है और अलोकप्रिय निर्णयों के लिए आलोचना भी उनकी ही होती है, इसलिए विश्लेषकों को नये चेहरों के पीछे उनका असर दिखता है. ऐसा क्यों न हो? आखिरकार यह मोदी का जादू ही है, जिसने भाजपा को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बना दिया. उन्हीं के नेतृत्व में तीस वर्षों बाद लोकसभा में भाजपा को बहुमत मिला. देश के लगभग 1400 भाजपा विधायक उन्हीं के कारण हैं.
पिछले चुनाव में उनके आकर्षण ने पार्टी को 36 फीसदी वोट दिलवाया. भाजपा देश के आधे राज्यों में सत्ता में है. मोदी प्रशंसकों का दावा है कि भाजपा को उनकी जरूरत कहीं ज्यादा है. इसलिए यह उनका अधिकार है कि वे पार्टी को अपनी इच्छा से आकार दें. पार्टी के आधिकारिक मंचों पर चुने हुए श्रोता हैं, जो एकतरफा संवाद में सर हिलाते रहते हैं.
नड्डा द्वारा हटाये गये वरिष्ठों में नितिन गडकरी और शिवराज सिंह चौहान शामिल हैं. चूंकि छह वर्षों में इन इकाइयों की गिनी-चुनी बैठकें हुई हैं, तो चर्चा में इन्होंने या अन्य सदस्यों ने शायद ही कोई योगदान दिया होगा. इसलिए न तो इन मंचों का महत्व है और न ही व्यक्तियों का. राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से सक्रिय पूर्व पार्टी अध्यक्ष गडकरी पहली बार निर्णायक मंचों से बाहर हुए हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व के करीबी गडकरी अपनी स्पष्टवादिता के लिए जाने जाते हैं. वे मोदी सरकार के संभवत: बेहतरीन मंत्री हैं. लेकिन यह बदलाव महाराष्ट्र के राजनीतिक हिसाब-किताब में बदलाव को भी इंगित करता है.
हालांकि देवेंद्र फड़नवीस को चुनाव समिति का सदस्य मात्र बनाया गया है, पर वे नयी व्यवस्था में महाराष्ट्र के अकेले नेता के रूप में देखे जा रहे हैं. जो हुआ है, वह रहस्यमय है. मोदी ने पार्टी और सरकार के नवाबों के लिए 75 साल की आयु सीमा में चुनिंदा तौर पर छूट दी है. नड्डा ने 79 वर्षीय बीएस येद्दियुरप्पा (कर्नाटक) और 77 वर्षीय सत्य नारायण जटिया (मध्य प्रदेश) को चयनित किया है. योगी आदित्यनाथ जैसे बड़े नेताओं पर असम के सर्वानंद सोनोवाल को तरजीह दी गयी है. हरियाणा में दो बार चुनाव हार चुकीं सुधा यादव को स्मृति ईरानी जैसे जानी-मानी महिला नेताओं को किनारे कर चुना गया है. उनके पति कारगिल की लड़ाई में शहीद हुए थे.
चुनाव पर जोर के अलावा नये सदस्यों का राष्ट्रवादी आधार उन्हें पूरी तस्वीर में अहम बना देता है. पंजाब में पुलिस अधिकारी रहे इकबाल सिंह लालपुरा 2012 में ही भाजपा में शामिल हुए थे. भिंडरावाले की गिरफ्तारी कर वे आतंक पर अपने कड़े रुख के लिए विख्यात हो गये थे. तेलंगाना में आक्रामक तेवर के साथ हिंदुत्व को आगे बढ़ाने में लगे के लक्ष्मण को जगह मिली है. यह स्पष्ट है कि भाजपा के नये आभामंडल में गडकरी, चौहान, सिंधिया आदि जैसे नेता अतीत की बहुलता के टूटे तारे हो चुके हैं.
बहरहाल, किसी भी दल के नाममात्र की ऐसी शीर्ष इकाइयों में आने से लोगों का कुछ मान बढ़ जाता है. उनमें से अधिकतर अपने सर्वोच्च नेता के रबर स्टांप या उसके नाम पर हस्ताक्षर भर करने वाले होते हैं. इस चलन को इंदिरा गांधी ने शुरू किया था. भाजपा राज्य स्तर पर पार्टी के चुनाव कराती है, पर उसकी प्रक्रिया भी गड़बड़ा रही है. ऊपरी स्तर पर हुए फैसले के अनुसार पार्टी अध्यक्ष राज्य इकाइयों के प्रमुखों को बदल देता है. हालिया बदलाव बताते हैं कि पार्टी प्रमुख ने निर्वाचित इकाइयों के अधिकारों को हड़प लिया है.
पार्टी संविधान के प्रावधानों का पालन नहीं किया गया है, जिनमें कहा गया है कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी संसदीय बोर्ड का गठन करेगी और केंद्रीय चुनाव समिति के सदस्यों को निर्वाचित करेगी. इस बार सड़क का मोड़ बहुत घुमावदार है. कुछ दिन पहले हुए पुनर्गठन में राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति को नहीं बनाया. यह कार्य पार्टी के अध्यक्ष ने किया है. शायद यह उन्होंने एक ऐसे अदृश्य प्रस्ताव के आधार पर किया है, जिसमें उन्हें पार्टी इकाइयों के पुनर्गठन के लिए अधिकृत किया गया होगा. केंद्रीय चुनाव समिति में चार स्थान रिक्त हैं.
इसी मंच पर आगामी आम चुनाव के लिए उम्मीदवारों के नाम तय किये जाते हैं. स्पष्ट है कि अन्य पार्टियों की तरह भाजपा भी सामूहिक नेतृत्व से निर्देशित लोकतंत्र की ओर बढ़ रही है. पहले पार्टियां नेता बनाती थीं. पर अब नेता पार्टियों को बनाते हैं या बर्बाद करते हैं. भारतीय राजनीति के छंद में सामूहिक बैठकी की जगह ऊपर से नियंत्रित लोकतांत्रिक संरचना ने ले ली है. शायद इसी कारण अब जोर 'बहुतों के एकताबद्ध' होने से हटकर 'एक के नीचे बहुत' पर हो गया है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)