ठीक तीस सालों बाद मैडम का कवित्व अचानक आज फूट पड़ा था। उन्होंने विभाग का निदेशक बनते ही नई कविता गढ़ी, जिसे उनके परमप्रिय चम्पुओं से भरपूर दाद मिली। वैसे इन चम्पुओं में से अधिकतर छुट्टी का प्रार्थना-पत्र लिखते हुए 'टू' और 'सेवा में' कोमा इस्तेमाल करने का भेद भले ही न जानते हों, पर उन्हें पता था कि मैडम की कविता सुनते हुए कहां दाद देनी है और कहां खुजली से बचना है। लेकिन कविता बात-बेबात तो कही नहीं जाती। अगर व्यक्ति जन्मज़ात कवि न हो तो कविता तभी छूटती है, जब पेट में दाने हों या न हों या फिर व्यक्ति अति प्रेम या वेदना में जीए। अगर केवल भूखे रह कर, प्रसन्न होकर या दुःखी होकर कविता हो सकती, तो मुँगेरी लाल मानते हैं कि संसार का हर व्यक्ति कविता छोड़ता रहता। कहते हैं मैडम तब कवि हुईं थीं, जब ज़माना भला था। सरकारी नौकरी के लिए आम आदमी भले ही मारा-मारी करता था, लेकिन जुगाड़ू पिछले दरवाज़े से कुरसी पर बैठ सकता था। बोलतीं चाहे वह नाक से थीं, लेकिन भले घर में जन्मे होने से उनके पास बात कहने का सलीक़ा था। नकिया कर बोलने के बावजूद आवाज़ में बनावटी कशिश थी। स्कूल-कॉलेज के नाटकों में सूत्रधार बनने और अभिनय करने से उनकी प्रतिभा किसी सरकारी नोट या चिट्ठी सी निखर उठी थी। उनकी यही प्रतिभा पिछले तीस सालों से उनका भरपूर साथ दे रही थी। वह हर उस महत्वपूर्ण सरकारी समारोह या कार्यक्रम का संचालन करते हुए अपनी आवाज़ का जादू बिखेरतीं, जहां अक्सर बड़े और छोटे बाबुओं का ध्यान केवल समारोहों को निपटाने या अपने सिर की बला किसी और के सिर डालने पर होता है। अगर किसी बड़े या महत्वपूर्ण समारोह में कोई बाबू उनकी सूत्रधारी या संचालन पर ऐतराज़ करता तो वह उससे बड़े बाबू के पास जाकर अपनी दावेदारी पेश करतीं। बात न बनने पर मंत्री के पास पहुँच जातीं। फिर भी अगर उनके नाम पर कोई आपत्ति होती, तो उनकी आँखों से झरते आँसू तमाम आपत्तियों को धो डालते। नतीजतन, उनकी नाक एक बार फिर बहने लगती। ओह! क्षमा करें।