हिमाचल में ऋण की मजदूरी

Update: 2023-06-30 16:40 GMT
By: divyahimachal  
ऋण के भंवर में हिमाचल की हस्ती का आलम यह है कि कमोबेश हर सत्ता को नाखून चबाने पड़ते हैं। यह विडंबना है कि सरकार नाखून चबाए और जनता नाखून बढ़ाए। ये ऐसी ख्वाहिशों के नाखून हैं जो हर सरकार को छीलती हैं और फिर चुनाव आने तक सियासत का लहू चूसती हैं। वर्तमान सरकार का ही हवाला लें, तो साल की सीमा में 4200 करोड़ का कर्ज उठाने की मोहलत में विकास की किश्तियां सफर पे निकली हैं। कर्ज कभी पीछे मुड़ के नहीं देखता और न ही उधार की विरासत में फूल खिलते हैं। कोई यह मानने को तैयार नहीं कि हिमाचल ने अपने संसाधनों की किश्ती हर बार यूं ही नहीं डुबोई, बल्कि यहां सरकारी नौकरी के राजघराने ने हर दौर में डाके डाले हैं। ये डाके समाज की फितरत में अधिकृत हैं और जहां सरकारें मजदूरी करती हैं। अपनी जनता के सामने कमोबेश हर सरकार ने उदारता के हर पहलू को सरकारी तंत्र के खेत में बोया, नतीजा यह कि हर बार कर्मचारियों के वेतन, भत्ते और पेंशन की अदायगी केवल राज्य के लिए उधार की एक किस्त बन जाती है। एक ओर खिलखिलाता हुआ हिमाचल, तो दूसरी ओर सरकारी खजाने के खर्च में कुम्हलाता हुआ हिमाचल। इस स्थिति के दोषी तलाशेंगे, तो एक साथ कई सरकारें और जनता तमाशबीन नजर आएगी। इसका एक अर्थ यह भी कि हिमाचल को अर्थ शास्त्र का ज्ञान नहीं या यह भी कि राजनीति में आर्थिक सरोकार ही पैदा नहीं हुए। केंद्रीय योजनाओं के भरोसे आर्थिक टोने-टोटके करती ब्यूरोक्रेसी ने ऋणों का साम्राज्य या उधार का एक मजहब हमें सौंप दिया।
इस मजहब के हम सब पात्र हैं। जब हम सरकारी नौकरी में ही भविष्य परोसेंगे, तो यह ऋण लेने का मजहब है। पूरा प्रदेश इस प्रयास में है कि किसी की जेब से ‘न हींग लगे, न फटकरी और रंग भी चौखा निकले। हम यही आशा प्रेम कुमार धूमल व वीरभद्र सिंह के बाद अब सुखविंदर सिंह सुक्खू से कर रहे हैं। इसलिए हिमाचल में मुख्यमंत्री का पद हमेशा जनता का कर्ज उतार कर प्रदेश को सौंप देता है। इसी महीने आठ सौ करोड़ का ऋण भी हमें ओवरड्रॉफ्ट के दुष्चक्र से नहीं बचा सका, तो हमारी वित्तीय व्यवस्था कुछ सबक लेने की हिदायत कर रही है। एक बार फिर लोन की प्रक्रिया में हम राज्य की जिस तस्वीर को बचा रहे हैं, वहां सरकारी वेतन, भत्ते और पेंशन के अधिकार में राज्य को कर्जदार बना रहे हैं। ऐसे में क्या और कब तक हिमाचल का नागरिक समाज आंखें मूंद कर बैठा रहेगा। आश्चर्य होता है कि इस प्रदेश में कहीं किसी नगर परिषद को गृहकर की दरें समेटनी पड़ रही हैं, तो कहीं पूरा व्यापार मंडल सात माह का गारबेज शुल्क माफ करवाकर अपना रुतबा बढ़ा रहा है। हम यानी हिमाचली जनता कर रुतबा हर बार राज्य के बजट में इसलिए बढ़ता है, क्योंकि हमें कोई नए, अतिरिक्त या बढ़े हुए शुल्क नहीं देने पड़ते, जबकि दूसरी ओर हमारे अ$खराजात को ढोता राज्य और कर्ज उठा लेता है। हमने विश्वविद्यालय, कालेज, स्कूल, अस्पताल और मेडिकल कालेज इतने बढ़ा लिए कि अब गुणवत्ता पर चर्चा ही नहीं, बल्कि इन संस्थानों के नखरे उठाने के लिए राज्य को उधार की भीख चाहिए।
क्या हमारा विकास, आर्थिक विकास के जरिए खजाने को आत्मनिर्भर नहीं बना सकता। क्या हम स्वरोजगार के सरोकार अपनी शिक्षण व्यवस्था को सौंप कर इसका ढांचा बना पाए। क्या हम जनसहयोग के रास्ते पर प्रदेश को खड़ा कर पाए या कभी सोचा कि कर प्रणाली के जरिए मानव संसाधन को आत्मनिर्भर बनाएं। दरअसल हिमाचल की सियासत ने अपना मूल्य इतना बढ़ा दिया कि मतदाता भी हर चुनाव की बोली में महंगा हो गया। सरकारें मिशन रिपीट के सिंड्रोम में कर्ज उठा रही हैं, जबकि सियासत के वर्तमान ढर्रे को तोडक़र ही कर्ज की फांस से राहत मिलेगी। हिमाचल में कड़े और कठिन फासलों की राह, कर्ज की राह से लंबी हो चुकी है, यह प्रदेश को फैसला करना है कि किस रास्ते पर चलते हुए कर्ज को पछाड़ा जाए।
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