By: Divyahimachal
आखिर यह बार-बार क्यों होता है कि चुनावों के दौरान देश के प्रधानमंत्री के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल किया जाता है या राजनीतिक, सामाजिक मर्यादाएं तार-तार की जाती हैं? क्या लोकतंत्र में ऐसा भी होता है कि जनादेश अपशब्दों या अहंकारों पर तय किए जा सकते हैं? क्या अपशब्द भी 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' की परिधि में आते हैं? क्या जनता में प्रधानमंत्री के प्रति वितृष्णा, विक्षोभ, गुस्सा और नफरत के भाव पैदा करने को भी गालियां दी जाती हैं और असंसदीय व्यवहार वाले चुनावी कामयाबी भी हासिल कर लेते हैं? हमारे जेहन में ऐसे कई सवाल उमड़-घुमड़ करते रहे हैं, क्योंकि खासकर गुजरात चुनाव प्रचार विषाक्त हो गया है। हालांकि चुनाव आयोग ने मतदान और मतगणना का कार्यक्रम अभी घोषित नहीं किया है, लेकिन चुनावी और संवैधानिक मर्यादाओं को लगातार लांघा जा रहा है।
यदि उच्च शिक्षित, कथित संस्कारी और ईमानदार तथा दिल्ली अद्र्धराज्य के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी इस विषाक्त दौड़ में शामिल हैं, तो बहुत संताप होता है। कांग्रेस में मणिशंकर अय्यर, जयराम रमेश, शशि थरूर, प्रमोद तिवारी और सबसे बढक़र कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और आलाकमानी नेता राहुल गांधी आदि ने, प्रत्यक्ष तौर पर, प्रधानमंत्री मोदी के लिए अपशब्दों और भद्दे विशेषणों का प्रयोग किया है, तो वे भी निंदनीय हैं, क्योंकि वे सभी खूब पढ़े-लिखे हैं और संवैधानिक पदों पर रहे हैं। अब भी कमोबेश सांसद तो हैं। इतिहास सोनिया गांधी के 'मौत का सौदागर' सरीखे अपशब्दों को भूल नहीं सकता। जिन्होंने प्रधानमंत्री को तानाशाह, हिटलर, सांप, बिच्छू, कातिल, हत्यारा, भस्मासुर, कुएं का मेंढक, वायरस आदि करार दिया और प्रधानमंत्री के लिए ही 'खून की दलाली' जैसे गंभीर आरोप चस्पा किए, क्या जनता का आम आदमी उन्हें नजरअंदाज़ कर देगा? हालांकि चुनाव के मौजूदा परिदृश्य में कांग्रेस अपेक्षाकृत खामोश है और अपनी परंपरागत सीटों पर ही जोर लगा रही है, लेकिन आम आदमी पार्टी (आप) गालियों के संदर्भ में बेहद आक्रामक और बेलगाम है। कभी पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं पूर्व आईएफएस अधिकारी मणिशंकर अय्यर ने प्रधानमंत्री को 'नीच किस्म का इनसान' कहा था। 'चायवाला' तो उन्होंने असंख्य बार दोहराया है, लेकिन गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान 'आप' के प्रदेश अध्यक्ष गोपाल इटालिया ने प्रधानमंत्री को न केवल 'नीच' कहा है, बल्कि कुछ ऐसे अपशब्दों का भी इस्तेमाल किया है, जिन्हें हम अपनी संपादकीय नैतिकता के कारण लिख भी नहीं सकते।
केजरीवाल ने 'कृष्ण अवतार' का अहंकार पाल लिया है। वह बार-बार मंचों से जनसभा को संबोधित करते हुए ताल ठोंक रहे हैं कि भगवान ने उन्हें 'कंस की औलादों' का वध करने पृथ्वी पर भेजा है। वाह! क्या अहंकार और खुशफहमी है कि केजरीवाल सरीखे नेता जनादेश को पुख्ता करने के लिए गालियां दे रहे हैं? उन्होंने तो शुचिता, ईमानदारी, नैतिकता और जनवादी मुद्दों वाली राजनीति करने का दावा करते हुए सियासत की शुरुआत की थी। आखिर गुजरात में 'कंस' कौन है, क्योंकि केजरीवाल मुग़ालते में हैं कि कांग्रेस तो 'मृतप्राय' पार्टी है। जाहिर है कि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और भाजपा के शीर्ष नेता ही 'कंस' हो सकते हैं! क्या चुनाव प्रचार के दौरान ऐसे अपशब्दों को सार्वजनिक मंच से बोलना कानूनन दंडनीय अपराध नहीं है? दरअसल सवाल यह भी है कि 'नीच' या 'कंस' सरीखे अपशब्दों से आम जनता का क्या लेना-देेना है? जनादेश तो जनता ने ही देना है, लिहाजा वे मुद्दे और समस्याएं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, जो सीधा जनता से जुड़े हैं। राजनीतिक दल और नेता बिजली, पानी, सडक़, गरीबी, बेरोजग़ारी, महंगाई, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि विषयों पर, अपनी नीतियों के अनुरूप, जनादेश मांग सकते हैं। ऐसी गालियां दी जाती हैं, तो प्रधानमंत्री और भाजपा उन्हें गुजरात और देश की अस्मिता और इज्जत से जोड़ लेते हैं। ऐसी राजनीति में उनका कोई सानी नहीं है। वैसे भी देश का प्रधानमंत्री कोई भी हो, वह समूचे राष्ट्र का सम्मान और उसकी गरिमा होता है। इस तरह की सियासत स्वीकार्य नहीं है।