प्रियंका गांधी की इन घोषणाओं से एक सवाल यह भी उठता है कि उनकी पार्टी ये घोषणाएं पंजाब, उत्तराखंड, गोवा या मणिपुर जैसे अन्य चुनावी राज्यों में क्यों नहीं कर रही है? क्या वहां की महिलाओं, किसानों और गरीबों को इसकी जरूरत नहीं है? जरूरत तो है, लेकिन वहां कांग्रेस चुनावी गुणा-गणित में है। इसलिए इन राज्यों में कांग्रेस उप्र जैसा जुआ खेलने से परहेज कर रही है। उप्र में कांग्रेस की दुर्दशा जगजाहिर है। इसीलिए जुआ खेला जा रहा है। यह सवर्ण मतदाताओं को लुभाने की सुचिंतित रणनीति भी है। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के परंपरागत वोटबैंक रहे सवर्ण मतदाता 1989 में उसके क्रमिक अवसान के बाद भाजपा की ओर चले गए हैं। भाजपा के उभार में हिंदुत्ववादी राजनीति और सवर्ण जातियों के ध्रुवीकरण की निर्णायक भूमिका रही है।
उप्र के पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की बैसाखी के सहारे कांग्रेस सात सीट और पांच फीसद मत प्राप्त कर सकी थी। इसबार समाजवादी पार्टी ने उसे झटक दिया है। 2019 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ सोनिया गांधी चुनाव जीत सकी थीं। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तक कांग्रेस परिवार की परंपरागत सीट से बड़े अंतर से चुनाव हार गए थे। इस तरह के निराशाजनक चुनाव परिणामों के बावजूद कांग्रेसियों द्वारा पिछले चार-पांच साल में जमीनी स्तर पर संगठन खड़ा करने या फिर जनता के बीच जाने की जहमत नहीं उठाई गई। पार्टी की इसी निष्क्रियता से त्रस्त होकर जितिन प्रसाद जैसे बड़े नेता कांग्रेस से किनारा करके सत्तारूढ़ भाजपा की नैया पर सवार हो गए हैं। कांग्रेस के निराशाजनक वातावरण के चलते कांग्रेस के अनेक छोटे-बड़े नेता अपने भविष्य की चिंता में अलग-अलग राजनीतिक दलों की ओर खिसक रहे हैं। वे सब अपने राजनीतिक भविष्य के प्रति आशंकित हैं।
आज उप्र में कांग्रेस की हालत यह है कि उसके पास न तो नेता है, न नीति है, न संगठन है, न ही कार्यकर्ता हैं। राष्ट्रीय लोकदल, आम आदमी पार्टी, पीस पार्टी और एआइएमआइएम जैसे छोटे दल आगामी चुनाव में उससे आगे निकलकर चौथे स्थान पर आने की फिराक में हैं। इस परिस्थिति में प्रियंका के पास घोषणाबाजी के जुए के अलावा विकल्प ही क्या बचता है? प्रियंका द्वारा की जा रही इन घोषणाओं के मायने क्या हैं? दरअसल किसी जमाने में दक्षिण भारत से शुरू हुई लोक-लुभावन घोषणाओं और मुफ्तखोरी की यह राजनीति आज दिल्ली तक पैर पसार चुकी है। वोट के बदले फ्री साड़ी, टीवी, फ्रिज और बिजली-पानी देने की परंपरा ने लोकतंत्र को विकृत किया है। संप्रग में कांग्रेस द्वारा किसानों की 70 हजार करोड़ रुपये की कर्जमाफी की आड़ में किए गए घोटाले को कौन भूल सकता है। संभवत: प्रियंका की प्रेरणा भी यही है।
अगर कांग्रेस पार्टी महिला सशक्तीकरण के प्रति वास्तव में गंभीर थी, तो उसने संप्रग सरकार के 10 साल के कार्यकाल में महिला आरक्षण विधेयक पास क्यों नहीं किया? या फिर सांगठनिक पदों की नियुक्तियों में महिलाओं की भागीदारी क्यों नहीं बढ़ाई? ध्यान रहे कि उत्तर प्रदेश में 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों और पिछले विधानसभा चुनाव में जाति का जादू नहीं चला। लोगों ने विकास और बदलाव के लिए मतदान किया। यह देखना होगा कि आगामी चुनाव में उप्र का मतदाता फिर से विकास और सुशासन के लिए मतदान करता है या फिर जातिवादी राजनीति की ओर वापसी करता है। वर्तमान में कांग्रेस के साथ न तो कोई जाति जुड़ती दिखती है और न ही उनके पास विकास का कोई विश्वसनीय माडल है। महज जुबानी जमा खर्च से जनता को लुभाया नहीं जा सकता है।
प्रियंका इस बात से अनभिज्ञ नहीं हैं कि भाजपा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, सपा अखिलेश यादव और बसपा मायावती के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही हैं। यह जानते हुए भी वे अपने चुनाव लड़ने के सवाल पर कन्नी काट रही हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे स्वयं आगामी चुनाव में होने वाले कांग्रेस के हश्र से आशंकित हैं। चुनाव लड़ने-न लड़ने को लेकर प्रियंका की दुविधा उनके वादों और दावों को संदिग्ध बनाता है। इससे उनकी चुनावी रणनीति कमजोर पड़ती है। उन्हें जल्दी से जल्दी निर्णय लेकर या तो खुद के चुनाव लड़ने की स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए या फिर सपा-बसपा जैसी किसी पार्टी का साथ लेकर कांग्रेस की रही-सही साख बचाने का जतन करना चाहिए।
(लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)