हद पार का साम्राज्य

Update: 2023-07-30 19:01 GMT
By: divyahimachal  
ऊंचे लक्ष्यों के फलक पर हिमाचल ने अपनी हैसियत पर दबाव बढ़ाते हुए क्षमता का क्षरण कर लिया है। यह दौड़ आंकड़ों में बेशक विशेष दर्जा हासिल करती होगी, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से बेअसर होने लगी है। केवल सरकारी मेडिकल कालेजों में एमबीबीएस की 870 सीटें भरी जाएंगी। एम्स व एक निजी मेडिकल कालेज के प्रवेश को जोड़ा जाए तो आंकड़ा हजार को पार कर जाएगा। यह हद को पार करने का साम्राज्य है, जो अपनी ही क्षमता को खंडित करता है। दरअसल स्वास्थ्य सेवाओं के मापदंड को हम मेडिकल कालेजों की शक्ति में विभाजित कर चुके हैं। जो डाक्टर कभी अपनी दक्षता के शिखर पर मरीज की देखभाल करते थे, आज मेडिकल कालेजों के प्रबंधन में व्यस्त हैं। चिकित्सा संस्थानों की शुमारी में व्यावसायिक पदोन्नतियां हो गईं, लेकिन मरीजों के हाल पे किसी को रोना नहीं आया। कमोबेश शिक्षा का भी अति से पार साम्राज्य तब बनता है जब हर विषय, हर कालेज में और हर स्कूल-विज्ञान स्कूल का दावा करता है। प्रदेश के पास सरकारी कालेजों की संख्या अगर 140 तक पहुंच गई, तो इसे उपलब्धि कहें या हिमाचल में शिक्षा का नया आयाम मानें।
यह दौड़ कालेज-कालेज का खेल या यह तेरा कालेज-यह मेरा कालेज का राजनीतिक फलक है, जो एक दूसरे के मुकाबले राजनीतिक प्रतिनिधित्व की शक्ति है। यानी पिछले कुछ सालों में कई कालेज बिना किसी कारण या रणनीति के स्नातकोत्तर हो गए। उदाहरण के लिए घुमारवीं के सरकारी कालेज में अगर एक दर्जन स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम हैं, तो फिर नए विश्वविद्यालय की आवश्यकता क्यों हुई। हिमाचल में फैकल्टी बाद में आती है, पहले पाठ्यक्रम और नित नए कालेज, स्नातकोत्तर कालेज और अब तो विश्वविद्यालय भी उग रहे हैं। राजनीतिक सीमाओं के विभाजन में शिक्षा और चिकित्सा के लिए कई इमारतें बंट सकती हैं या संस्थानों की नई फेहरिस्त खड़ी हो सकती है, लेकिन गुणवत्ता के लिहाज से कार्य संस्कृति, काबिलीयत और कर्मठता की जरूरत हमेशा रहती है। हम नए संस्थानों, नए आंकड़ों और नए भवनों की आशा में भूल गए हैं कि महज 70 लाख की आबादी के लिए कितने फलक चाहिए। हम अपनी क्षमता के निर्माण में काबिलीयत को भूल रहे हैं। रोजगार के नाम पर सरकारी सेवाओं में समर्पण भूल रहे हैं। ऊंचे शिखर की तलाश में हम अपना आधार भूल रहे हैं। भूल रहे हैं कि अगर एक सिविल अस्पताल या क्षेत्रीय अस्पताल मरीज को बचाने के लक्ष्य से काम करे, तो मेडिकल कालेज भी इसके स्तर को ऊंचा करेगा, वरना मरीज यूं ही किसी न किसी बहाने आगे धकिया दिए जाएंगे या रैफर-रैफर के खेल में सारा इंतजाम बंट जाएगा। पिछले दिनों बिलासपुर के क्षेत्रीय अस्पताल से एम्स पहुंची मरीज को आईजीएमसी रैफर किया गया, लेकिन अंतत: डिलीवरी तो एक एंबुलेंस सहायक ने ही करवा दी।
ऐसे इंतजाम से भयभीत होने की वजह हमेशा रहेगी। इसी तरह सरकारी स्कूल अगर शिक्षा के आधार को पुख्ता करेंगे, तो कालेज की पढ़ाई आगे ले जाएगी, लेकिन अब तो स्कूल से कालेज और कालेज से विश्वविद्यालय के बीच उच्च स्तर का भी कोई फासला नहीं रहा, बस एक डिग्री भर का अंतर है। हमने इसी तरह बीएड कालेजों की संख्या को घर-घर पहुंचा दिया, तो इंजीनियरिंग की पढ़ाई को ही बेरोजगार बना दिया। आश्चर्य यह कि अति पढ़ा-लिखा होकर भी हिमाचल अशुद्ध पाठ्यक्रम का बेरोजगार हो गया। डाक्टरी की पढ़ाई सरकारी अस्पतालों की काबिलीयत में हार गई। आम शिक्षा बेरोजगारी में मात खा गई। कहने को हमारे पास मेडिकल यूनिवर्सिटी भी है, लेकिन जब अस्पताल की अल्ट्रासाउंड को भी सही से नहीं पढ़ा जाएगा तो किसी मरीज का जनाजा तो उठेगा ही। जब से तकनीकी विश्वविद्यालय बना है, इंजीनियरिंग हार गई। प्रदेश में एमबीए की पढ़ाई अब एक शगल बन गई। राष्ट्रीय मूल्यांकन में सिफर होते अतीत की श्रेष्ठता को अगर शिमला विश्वविद्यालय नहीं बचा पा रहा है, तो मंडी विश्वविद्यालय की सौगात में एक और तश्तरी तैयार है। हिमाचल की सियासी किश्ती में इमारतों का साम्राज्य और आंकड़ों का शासन अगर यूं ही सवार रहा, तो हम सिर्फ इनके जंगल में भटकते रहेंगे। गुणात्मक दृष्टि से आधारभूत सेवाओं में कार्य संस्कृति में निखार के साथ-साथ पारदर्शिता व जवाबदेही की जरूरत कहीं अधिक है। व्यवस्था में परिवर्तन के लिए आई कांग्रेस से उम्मीद है कि इमारतों को बाहर के बजाय, इनके भीतर से सुधारा जाए।

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