क्या हिज़्बुल्लाह और इजरायल के बीच संघर्ष की संभावना है?

हिज़्बुल्लाह का अपना टैंक बेड़ा है. उनके पास लगभग सभी तरह के आधुनिक हथियार हैं

Update: 2021-11-06 12:29 GMT

ज्योतिर्मय रॉय.

लेबनान की भौगोलिक और संवैधानिक संरचना के कारण यहां की सरकार सदैव उतार-चढ़ाव की स्थिति में रहती है. यहां अक्सर राजनीतिक और धार्मिक विभाजन को लेकर ईसाइयों और मुसलमानों के बीच टकराव कि स्थिति बनती रहती है. शिया, सुन्नी, बैपटिस्ट, कैथोलिक संघर्ष यहां सामान्य घटना है. लेबनान सीरियाई, फ़िलिस्तीनी, इराकी शरणार्थियों से भरा हुआ है. काम के अभाव में ये लोग भीख भी मांगते हैं. समाज की ऐसी दयनीय स्थिती में 'हिज़्बुल्लाह' (Hezbollah) संगठन इन लोगों के लिये भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा की व्यवस्था करते हैं. वे इन कार्यों में मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच कोई भेदभाव नहीं करते. लेकिन इजरायल विरोधी होने के कारण 'हिजबुल्लाह' संगठन से अमेरिका और इजरायल बेहद असंतुष्ट है. 'हिजबुल्लाह' का नाम आतंकी संगठनों की सूची में सबसे ऊपर है.


लेबनान में हिज़्बुल्लाह एक राजनीतिक दल है, जो लेबनान की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं. 2016 के चुनाव में, हिज़्बुल्लाह और उसके सहयोगियों ने लेबनान की 128 सीटों वाली संसद में 67 सीटें जीतीं, जिनमें से हिज़्बुल्लाह के अपने 13 सांसद हैं. हालांकि, विभिन्न कारणों से, हिज़्बुल्लाह और उसके सहयोगी चुनाव के बाद भी सत्ता में नहीं रह सके. पिछली बार सितंबर में देश में नई सरकार बनी थी.


शिया संगठन होने के बाद भी हिज़्बुल्लाह को सुन्नी समर्थन हासिल है
ईरान समर्थित 'हिज़्बुल्लाह' लेबनान का एक शिया राजनीतिक और अर्द्धसैनिक संगठन है, जिसे दुनिया का सबसे शक्तिशाली गुरिल्ला संगठन कहा जाता है. मध्य पूर्व में भू-राजनैतिक स्थिति को देखते हुए, हिज़्बुल्लाह को नकारा नहीं जा सकता. 'हिज़्बुल्लाह' के पास एक राजनीतिक दल और एक सैन्य विंग है. लेबनान के अलावा कई अन्य देशों में हिज़्बुल्लाह की शाखाएं हैं. जिस तरह फिलीस्तीन में स्थित 'हमास' इजरायल के खिलाफ लड़ रहा है, उसी प्रकार लेबनान में 'हिजबुल्लाह' इजरायल के खिलाफ लड़ रहा है. हिज़्बुल्लाह हमास की तुलना में बहुत बड़ा और अधिक शक्तिशाली संगठन है.

हालांकि हिज़्बुल्लाह की स्थापना 1975 में हुई थी, लेकिन 1982 में इजराइल ने जब दक्षिणी लेबनान पर आक्रमण किया था, तब हिज़्बुल्लाह संगठन अस्तित्व में आया था. जिनके नेता हसन नसरूल्लाह हैं. आधिकारिक रूप से 1985 में अपनी शुरुआत की. इस संगठन को ईरान और सीरिया का समर्थन प्राप्त है. हिज़्बुल्लाह का अर्थ है "अल्लाह की पार्टी". हिज़्बुल्लाह लेबनान का शिया मुस्लिम राष्ट्रवादी समूह होने के बाद भी कई सुन्नी इससे जुड़े हुए हैं.

ईरान समर्थित हिज़्बुल्लाह
ईरान हिजबुल्लाह का करीबी सहयोगी है और वह फिलिस्तीन के प्रति सहानुभूति रखते हैं. वे दुनिया के मुसलमानों का ध्यान और सहानुभूति जीतने के लिए एक राजनीतिक रणनीति के रूप में फिलिस्तीन का समर्थन करते हैं. हिज़्बुल्लाह के सैन्य बजट या हथियारों का लगभग 70 प्रतिशत ईरान से आता है. सीरिया और कतर से भी इन्हें वित्तीय और सैन्य सहायता मिलती रहती है. कुछ साल पहले, कतर की नाकाबंदी के नाम पर सऊदी अरब सहित कई देशों ने हमास और हिजबुल्लाह को वित्तीय सहायता की थी.

सैन्य विश्लेषकों का दावा है कि हिज़्बुल्लाह का वार्षिक सैन्य बजट 1.50 अरब अमेरिकी डॉलर है. हिज़्बुल्लाह के पास जितने सैनिक और हथियार हैं, वह कई देशों के सैन्य बलों के पास भी नहीं हैं. इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद और अमेरिकी सीआईए के तरह हिज़्बुल्लाह ने अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये अपनी ख़ुफ़िया विभाग को तैयार किया है.

हिजबुल्लाह एक बहुत शक्तिशाली सशस्त्र संगठन है
सैन्य विशेषज्ञों के अनुसार हिजबुल्लाह एक बहुत शक्तिशाली सशस्त्र संगठन है. इस संगठन के सदस्य युद्ध के अनुभव, उच्च प्रशिक्षित तथा सभी आधुनिक हथियारों से सुसज्जित हैं. हिज़्बुल्लाह के पास 25,000 नियमित सैनिक के अलावा, 50,000 से अधिक लड़ाकू रिजर्व में है. हिजबुल्लाह का अपना प्रशिक्षण शिविर और हथियारों का कारखाना है जहां मिसाइल बनाने की सुविधा भी है.

हिज़्बुल्लाह की अपनी वर्दी, सैन्य नियम, वेतन और भत्ते, वित्तीय संस्थान और आय के विशिष्ट स्रोत हैं. हिज़्बुल्लाह का वर्तमान प्रमुख हसन नसरुल्लाह है, जिनके देखरेख में सात सदस्यीय शूरा परिषद हिज़्बुल्लाह संगठन के सभी काम संभालते हैं. इनका मुख्यालय बेरूत, लेबनान में है.

हिज़्बुल्लाह का अपना टैंक बेड़ा है. उनके पास लगभग सभी तरह के आधुनिक हथियार हैं. लेकिन हिज़्बुल्लाह का मुख्य बल रॉकेट है. उनके पास अत्याधुनिक मोबाइल बेस रॉकेट, मल्टीपल लॉन्चिंग रॉकेट सिस्टम और आर्टिलरी डिस्ट्रॉयर हैं. उनके पास ईरान में बनी विभिन्न प्रकार की बैलिस्टिक मिसाइलें भी हैं. 2008 में, हिजबुल्लाह ने इजरायल की राजधानी पर मिसाइल हमला करके दुनिया को चौंका दिया था.

हिज़्बुल्लाह अपनी स्थापना के बाद से कई युद्धों में शामिल हो चुका है, उनमें से उल्लेखनीय है लेबनानी गृहयुद्ध, ईरान-इराक युद्ध और इजरायल के साथ युद्ध. इज़राइल और हिज़्बुल्लाह के बीच 12 जुलाई 2006 को शुरू हुआ युद्ध, 34-दिवसीय युद्ध गतिरोध के बाद 8 सितंबर को समाप्त हुआ. इस युद्ध में कई इजरायली मार्कावा टैंक को नष्ट करने में हिज़्बुल्लाह सफल रहा. हिज़्बुल्लाह इस समय सीरिया में असद सरकार के लिए लड़ रहा है. वे सीरियाई गृहयुद्ध में राष्ट्रपति बशर अल-असद के भी सहयोगी रहे. हिज़्बुल्लाह ने मार्च 2011 में शुरू हुए गृहयुद्ध में सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद की सरकार की मदद के लिए हज़ारों लड़ाकों को भेजा था.

इज़राइल के साथ युद्ध ने हिज़्बुल्लाह को लेबनान में लोकप्रिय बनाया
2006 में इज़राइल के साथ युद्ध ने हिज़्बुल्लाह को लेबनानी समाज के साथ-साथ सुन्नी और अन्य जातीय समूहों में स्वीकृति का एक रूप दिया. हिज़्बुल्लाह लेबनान के शिया समुदाय के एक बड़े वर्ग और ईसाईयों सहित अन्य धार्मिक समूहों के साथ मित्रतापूर्ण संपर्क स्थापन करने में सफल रहा है. प्यू रिसर्च सेंटर की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 31 फीसदी लेबनानी ईसाई और 9 पीसदी सुन्नी मुसलमान उनका समर्थन करते हैं.

ईरान शिया गतिविधि फैलाने के लिए हिज़्बुल्लाह का इस्तेमाल कर रहा है
अयातुल्ला खुमैनी के छात्र और करीबी रिश्तेदार मूसा सदर द्वारा स्थापित शिया आतंकवादी समूह 'हरकत अमल' के नेताओं और कार्यकर्ताओं को लेकर हिजबुल्लाह का गठन किया गया है. सुन्नियों का आरोप है कि अरब दुनिया में ईरानी शिया सांप्रदायिक गतिविधि फैलाने के लिए ईरान हिज़्बुल्लाह को एक साधन के रूप में उपयोग कर रहा है. शिया-सुन्नि संघर्ष शुरू से ही चला आ रहा है. यह संघर्ष सऊदी अरब और ईरान के बीच लेबनान और यमन को लेकर चल रहे सत्ता संघर्ष का परिणाम है. हिज़्बुल्लाह की राजनीतिक और सैन्य शक्ति में वृद्धि और सीरिया युद्ध में इसकी भागीदारी ने लेबनान सहित इस क्षेत्र में शिया-सुन्नी तनाव को बढ़ाया है.

सीरिया में युद्ध में भाग लेकर ईरान और हिज़्बुल्लाह ने अपने राजनीतिक और सैन्य प्रभाव को बढ़ाया है. इजराइल इस मुद्दे को एक खतरे के रूप में देखता है. इज़राइल नहीं चाहता कि ईरान और हिज़्बुल्लाह का सीरिया स्थायी प्रभाव हो. इसके मद्देनजर इजरायल और हिजबुल्लाह के बीच एक और युद्ध की आशंका है, जिसमें ईरान भी शामिल हो सकता है. सैन्य विशेषज्ञ के अनुसार, इजरायली सेना और रक्षा मंत्रालय के "राष्ट्रीय आपातकालीन प्रबंधन प्राधिकरण" हिज़्बुल्लाह के खिलाफ एक चौतरफा युद्ध की तैयारी में लगा है. इजरायली अधिकारियों अब एक सप्ताह तक चलने वाले सैन्य अभ्यास का आयोजन में लगा है. इजरायली राज्य मीडिया ने ऐसी खबर की पुष्टि की है.

धार्मिक और सांप्रदायिक विविधता के कारण लेबनान बाहरी ताकतों के लिए एक आसान लक्ष्य
संवैधानिक रूप से, लेबनान में 18 धार्मिक समुदाय हैं. मैरोनाइट ईसाई समुदाय से राष्ट्रपति, शिया मुस्लिम से स्पीकर और सुन्नी मुस्लिम से प्रधान मंत्री चुना जाता है. यह प्रावधान 1943 के समझौते के तहत लागू है. संसद में 128 सीटें ईसाइयों और मुसलमानों (ड्रूज़ सहित) के बीच समान रूप से विभाजित हैं. यह धार्मिक और सांप्रदायिक विविधता है जिसने देश को बाहरी ताकतों के हस्तक्षेप के लिए एक आसान लक्ष्य बना दिया है, जैसे कि ईरान ने शिया हिज़्बुल्लाह आंदोलन को व्यापक समर्थन दिया और यहूदियों ने इज़राइल को प्रभावित किया. नेतागण अपने-अपने धार्मिक समुदाय के हितों की रक्षा करने में व्यस्त रहते हैं जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं. सत्ता के बंटवारे की ऐसी सांप्रदायिक व्यवस्था लेबनान के शासन व्यवस्था को कमजोर कर रहा है और राजनीतिक पतन का कारण बन रहा है, जिसका फायदा हिजबुल्लाह और इजरायल उठा रहे हैं. जैसे हिजबुल्लाह के समर्थन में सरकार बनना और गिरना भी उन्हीं की देन है, उदाहरण के लिये, सुन्नी नेता रफीक हरीरी की मृत्यु के बाद उनके बेटे साद हरीरी की सरकार का गिरना है.

आर्थिक तंगी से जुझ रहा है हिज़्बुल्लाह
समाज में पकड़ कमजोर होता जा रहा है. लेबनान राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है. लेबनान के एक तिहाई लोग अब गरीबी रेखा से नीचे हैं. लंबे संघर्ष के कारण लाखों लोगों की आजीविका चली गई है. हिज़्बुल्लाह आने वाली पीढ़ियों को अपार दुख के चक्र से बाहर निकालने का सपना देखता है और युवा और आम लोग एक सुंदर और स्वच्छ भविष्य की आशा में उनका पक्ष लेते हैं. लेकिन हिज़्बुल्लाह दशकों से दिखाए गए इन सपनों को हकीकत में बदलने में नाकाम रहा. परिणामस्वरूप, लेबनान की राजनीति में उनका प्रभाव कम हो गया है. अब दुनिया के अग्रणी सशस्त्र समूह हिज़्बुल्लाह आर्थिक तंगी से जुझ रहा है.

इस बीच, यह कहा जाने लगा है कि हिज़्बुल्लाह, जिस तरह से पूरे मध्य पूर्व में फैल गया है, वह अब इजरायल के खिलाफ अपने युद्ध को उतनी मजबूती से महसूस करने में असमर्थ है, जितना पहले हुआ करता था. युद्ध से जमीन जीती जा सकती है, लेकिन घर नहीं. युद्ध से सत्ता छीनी जा सकती है, लेकिन दिल नहीं. धर्म के नाम लोगों को डराया जा सकता है, लेकिन आस्था को नहीं. राष्ट्रीय नेता इन बातों को जितनी जल्दी समझ लें, राष्ट्र और मानवता के लिए उतना ही अच्छा होगा.
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