इस सामान्य अनुभव को किनारे रखकर भरत की एकता को कृत्रिम एवं प्रायोजित घोषित करते हुए विविधता के शास्त्र को बड़ी तेजी से आगे बढ़ाने में हमारे प्रगतिशील विचारक महानुभाव सतही जानकारियों का अंबार लगाते हुए विविधताओं की नई-नई किस्में खड़ी करते नहीं थकते। उनका स्थायी भाव रहता है कि विविधता प्राणदायी है और एकता की खातिर उसकी हर कीमत पर रक्षा की जानी चाहिए। विविधता का उत्सव मनाते हुए इन विशेषज्ञों को विविधता ही मूल लगती है। इसीलिए वे विखंडन में ही भविष्य देखते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि विविधता भी किसी एकता के सापेक्ष ही हो सकती है। यदि मूल का उच्छेदन करते हुए सिर्फ प्रकट विविधता पर ही ध्यान देते रहेंगे तो सत्य से केवल आंशिक एवं अपूर्ण साक्षात्कार हो सकेगा और उससे गलत निष्कर्ष ही निकलेगा। इस अधकचरे ज्ञान से उपजने वाली विखंडन की प्रक्रिया आत्मघाती हो जाती है। ऐसे सोच में बिना पूर्वापर का विचार किए किसी एक मूल से उत्पन्न प्रत्येक नई इकाई एक दूसरे से स्वतंत्र हो जाती है। फिर वह अन्य इकाइयों से प्रतिस्पर्धा में द्वंद्व करती है। ऐसी विखंडनकारी परियोजनाओं की परिणति प्राय: ¨हसा में घटित होती दिखाई पड़ती है। यह तो जड़ को उखाड़ने जैसा है, जिसके उपरांत वृक्ष की सभी शाखाएं निर्जीव हो जाएंगी।
भारत को स्वभावत: बिखरा हुआ और परस्पर असंबंधित देखने की प्रवृत्ति भारत की प्रकृति, इतिहास और संरचना के सत्य को अनदेखा करती है। भारत की विविधताओं को खतरे में बताना असल में अपने सीमित अहंकार की पुष्टि और तात्कालिक हितों की तुष्टि के लिए ही किया जाता है । इस युक्ति का उपयोग करते समय यह भुला दिया जाता है कि भारत की मौलिक एकता और राष्ट्र के साथ रागात्मक संबंध की अनुगूंज ऋग्वेद से आरंभ होकर रामायण, महाभारत और विष्णु पुराण अदि से होते हुए रवि ठाकुर, सुब्रह्मण्य भारती, मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर समेत अन्यान्य रचनाकारों तक विस्तृत होती आ रही है। सहृदयता के साथ सौमनस्य का स्वीकार और प्रसार का लक्ष्य समरसता और पारस्परिक निकटता की भावना से ही संभव हो पाता है।
यह पृथ्वी नाना धर्म वालों और विविध भाषाओं को बोलने वालों का भरण-पोषण करती है। इसी अर्थ में भूमि माता है। देवता और मनुष्य भिन्न होते हुए भी परस्पर एक दूसरे पर निर्भर माने गए हैं। यहां तक कि भक्त जितना भगवान पर निर्भर होता है, उतना ही भगवान भी भक्त पर निर्भर होते हैं। यही सोचकर बार-बार यह आकांक्षा की जाती रही कि विविधवर्णी समाज में बुद्धि, हृदय और मन सभी समान हों। साथ चलने, साथ बोलने और साथ मन बनाने पर बल दिया जाता रहा। भिन्नता तो है, मगर भिन्नताओं के बीच पारस्परिकता और परस्पर निर्भरता भी है। भिन्नता है, मगर उसका अतिक्रमण करते हुए जीना उद्देश्य है। इसीलिए भारतीय मन सारी वसुधा को ही कुटंब मानकर आगे बढ़ता है। जो भारत में जन्मा है, उसकी भारतीयता भारत की विविधता को, उसकी समृद्धि को बढ़ाती है। यह अकारण नहीं है कि हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख जैसे भारत के सभी धर्म अहिंसा पर बल देते हैं, जो दूसरों को मिटाकर नहीं, बल्कि उनसे मन मिलाकर साथ रहने के मार्ग ढूंढ़ते हैं। इतिहास साक्षी है कि वे अन्य धर्मावलंबियों की तरह आक्रांता कभी नहीं रहे और कभी उपनिवेश नहीं बनाया न किसी समुदाय पर जुल्म ढाए। इस प्रसंग में भारत विद्या के प्रख्यात अध्येता आनंद कुमारस्वामी स्मरण आते हैं, जिनके शब्दों में भारत की विश्व को सबसे बड़ी देन उसकी भारतीयता है। भारतीयता की व्याख्या में उन्होंने तमाम सूत्र भी दिए हैं।
एकता से विविधता जरूर पैदा होती है, पर एकता ही मूल में है। जड़ और चेतन सबमें एक तत्व की प्रधानता देखना यहां की चिंतन शैली की प्रमुख विशेषता है। इस एकता की पराकाष्ठा की अवधारणा में होती है, जो स्वयं अपने से सृष्टि करता है। दूसरी ओर एक ही तत्व के विभिन्न गुण पृथकता का अनुभव देते हैं। जैसे कि हमारे शरीर के सारे अंग प्रत्यंग अलग-अलग कार्य करते हैं और मिलकर एक सत्ता का निर्माण करते हैं। विविधताओं का संजाल परस्पर मिला हुआ है और एक रचना का निर्माण करता है। इस तरह पार्थक्य केंद्रीय नहीं है। उसकी जगह सब मिलकर संयुक्त रूप में जो पूर्णता का अहसास कराते हैं, वह महत्वपूर्ण है।
स्वतंत्रता के यज्ञ में आहुति देने वाले वीर पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण हर ओर से आए थे। वे हर धर्म और जाति के थे और देश के साथ उनका लगाव उन्हें जोड़ रहा था। उनके सपनों का भारत एक समग्र रचना है। यह इसलिए भी जरूरी है कि हम उनका भरोसा न तोड़ें और उनकी विरासत को साझा करें। उपनिवेश काल में जो छवि गढ़ी गई, हमें उस छवि से आगे बढ़ते हुए अपने समष्टिगत स्वरूप को पहचानने की जरूरत है। इसी पहचान से एक स्वायत्त राष्ट्र की चेतना वाला भारत ही श्रेष्ठ भारत होगा।