हास्य व्यंग्य: तीन-तिकड़म करने वालों की ताकत, आज विभागों में ईमानदार को माना जाता है निरीह
एक कार्यालय में लल्लूलाल और दल्लूलाल एक ही संवर्ग के अधिकारी थे
सोर्स- Jagran
सूर्यकुमार पांडेय। एक कार्यालय में लल्लूलाल और दल्लूलाल एक ही संवर्ग के अधिकारी थे। दोनों दो छोर थे। लल्लूलाल सज्जनता की प्रतिमूर्ति समझे जाते तो दल्लूलाल तीन-तिकड़म के बादशाह जाने जाते। दोनों की अपनी ख्याति थी। एक विख्यात। दूसरा कुख्यात। एक ने दुनिया देख रखी थी तो दूसरे को दुनिया को दिखलाने का हुनर आता था।
अचानक ऊपर वालों की अनुकंपा से उनके दफ्तर को एक बड़ा प्रोजेक्ट मिला। मोटी रकम का प्रोजेक्ट था। जो भी इसमें हाथ लगाता, मालामाल हो जाता। कार्यालय में जोड़-तोड़ चालू हो गई। दफ्तर में निजी ठेकेदारों का आवागमन देखा जाने लग गया, किंतु जिस अधिकारी के नियंत्रण में यह प्रोजेक्ट संचालित होना था, वह दैवयोग से लल्लूलाल थे।
तब विभाग की ऊंची कुर्सी ने अपने कनिष्ठ अफसर लल्लूलाल को बुलाकर प्रेमपूर्वक कहा, 'आप ऐसा करो कि इस वाले प्रोजेक्ट की समस्त पत्रावलियां तत्काल प्रभाव से दल्लूलाल को सौंप दो। आपके पिछले कार्यानुभव को देखते हुए लगता है कि आप इस मामले को सही ढंग से डील नहीं कर पाओगे।' अति आत्मविश्वास और आश्चर्य से लबालब लल्लूलाल बोले, 'क्यों सर, मैं तीस वर्षों से इसी सेक्शन का काम देख रहा हूं। क्यों डील नहीं कर सकता मैं? दल्लूलाल तो मुझसे बहुत जूनियर हैं। उनके पास तो कुल दस वर्षों का कार्य-अनुभव है। वह भला किस तरह से इतने बड़े प्रोजेक्ट को हैंडल कर पाएंगे?'
ऊंची कुर्सी ने हंसते हुए कहा, 'लल्लूलाल, आप तो लल्लू के लल्लू ही रह गए। आज भी 30 साल पहले वाली कार्य-संस्कृति में जीते हो। आप नए घोड़ों के साथ रेस नहीं कर पाओगे। ईमानदार आदमी हो। सेवानिवृत्ति के दो-तीन साल बचे हैं। पाक-साफ तरीके से नौकरी निकल लो तो ही अच्छा है।'
लल्लूलाल बोले, 'मैं कुछ समझा नहीं सर!' ऊंची कुर्सी ने ठहाके लगाते हुए कहा, 'आप ईमानदार आदमी हो। नाक की सीध में चलना जानते हो। पिछले वाले प्रोजेक्ट में मैंने आप पर भरोसा किया था तो मेरी नाक कटते-कटते बची थी। मंत्रीजी के सामने मेरी छीछालेदर हुई थी तो सिर्फ तुम्हारी वजह से!'
सहसा ऊंची कुर्सी 'आप' से 'तुम' पर उतर आई थी। उस कुर्सी पर विराजमान अधिकारी के हावभाव से लल्लूलाल को शंका हो चली कि अब वह किसी भी क्षण 'तू' के संबोधन पर भी आ सकता था। लल्लूलाल को घनघोर ग्लानि का अनुभव होने लग गया था। पिछले वाले प्रोजेक्ट में कुछ भी तो गलत नहीं होने दिया था उन्होंने। आधा बजट बच गया था। काम भी उच्च कोटि का हुआ था।
उन्हें हैरानी थी कि राजकोषीय बचत के बावजूद उनका उच्चाधिकारी उनसे असंतुष्ट था। लल्लूलाल के जी में आया कि अपने भीतर की ईमानदारी को वहीं पर कालर पकड़कर बाहर घसीट लें। उस ऊंची कुर्सी के सामने ही चार जूते लगाएं, लेकिन वह एक जोड़ी सस्ती चप्पल पहने हुए थे। लल्लूलाल ने हथियार डालते हुए कहा, 'तो ठीक है सर। जैसे आपके आदेश होंगे, वैसा ही किया जाएगा।'
लल्लूलाल अपने कार्यालय की उस ऊंची कुर्सी के कमरे से मुंह लटकाए हुए बाहर निकल आए। उनका मुंह सूख रहा था। उन्होंने फटाफट एक गिलास पानी गटका। बैठे-बैठे आत्मविश्लेषण करने लगे, 'वाह रे जमाने! देखते ही देखते क्या से क्या समय आ गया? एक वे दिन थे, जब उनके विभाग में उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, क्योंकि वह ईमानदार थे। नियम-कायदे के जानकार थे। अधिकारियों की आंख का तारा हुआ करते थे। आज उस ईमानदारी का कुल हासिल निरीह होना मात्र रह गया है। अब तो जैसे वह प्रजाति ही विलुप्त हो गई', परंतु समय के इस परिवर्तन से जीत पाना संभव नहीं था। लल्लूलाल ने मन ही मन सोचा, 'अब यह ईमानदारी वाली नीति बेहतर के स्थान पर बदतर में तब्दील हो गई है। तो फिर अब वह करें भी तो क्या करें?'
लल्लूलाल ने अपनी मेज से एक सादा कागज उठाया। लंबी छुट्टी का आवेदन लिखा। घंटी बजाई। चपरासी को बुलाया और वह अवकाश का प्रार्थनापत्र ऊंची कुर्सी के कमरे में भेज दिया। वह बाहर निकले ही थे कि कार्यालय के मेन गेट पर एक ठेकेदार से हंसते-बतियाते हुए दल्लूलाल से उनकी मुलाकात हो गई। उन्होंने दल्लूलाल को झुककर सादर नमस्कार किया। वाहन स्टैंड पर आकर अपना पुराने माडल का खटारा स्कूटर उठाया और चुपचाप घर को रवाना हो गए।