बुजुर्ग आबादी की बढ़ती मुश्किलें
आज जिस तरह से समाज में सामूहिकता की भावना समाप्त होती जा रही है, उससे परिवार की अवधारणा ही खत्म होने लगी है। ऐसे ही हालात रहे तो वह समय दूर नहीं जब परिवार संस्था ही समाप्ति के कगार पर खड़ी होगी।
ज्योति सिडाना: आज जिस तरह से समाज में सामूहिकता की भावना समाप्त होती जा रही है, उससे परिवार की अवधारणा ही खत्म होने लगी है। ऐसे ही हालात रहे तो वह समय दूर नहीं जब परिवार संस्था ही समाप्ति के कगार पर खड़ी होगी। सवाल है कि परिवार, समाज या सामाजिक संगठन के विघटन को कैसे रोका जा सकता है?
इस हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रत्येक परिवार की नींव उसकी बुजुर्ग पीढ़ी ही होती है। विशेष रूप से भारतीय समाज में तो यह माना जाता रहा है कि जिस घर में बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद होता है, वहां हमेशा समृद्धि का वास होता है। पर क्या आज भी लोग ऐसा ही सोचते या मानते हैं? संभवत: नहीं। सच्चाई तो यह है कि बयासी फीसद बुजुर्ग अपने परिवार के साथ रहते तो हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश अपने बेटे-बहुओं से खुद को पीड़ित महसूस करते हैं। ऐसी घटनाएं आए दिन देखने-सुनने को मिलती भी रहती हैं। घर वालों के दुर्व्यवहार के कारण तीन चौथाई से ज्यादा बुजुर्ग परिवार में रहने के बावजूद अकेलेपन का शिकार हैं।
देश में बुजुर्गों की स्थिति को लेकर समय-समय पर सर्वे और अध्ययन होते रहे हैं। इनसे यही सामने आया है कि देश में करीब साठ फीसद बुजर्गों को लगता है कि समाज में उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। हालांकि केवल दस फीसद ही इस बात को स्वीकार करते हैं कि वे भी दुर्व्यवहार के शिकार हैं। इसका कारण संभवत: परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा होता है। उन्हें लगता है कि लोग उनके परिवार के बारे में क्या सोचेंगे। पिछले दिनों एक सर्वे में सामने आया कि छत्तीस फीसद बुजुर्ग अपने रिश्तेदारों, पैंतीस फीसद बच्चों और इक्कीस फीसद बहू से परेशान हैं। वहीं सत्तावन फीसद अनादर, अड़तीस फीसद मौखिक दुर्व्यवहार, तेंतीस फीसद उपेक्षा, चौबीस फीसद आर्थिक शोषण और तेरह फीसद बुजुर्गों ने शारीरिक शोषण झेलने की बात कही।
इन आंकड़ों का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि ऐसी घटनाओं के लिए बहुत हद तक परिवारों की संस्कृति जिम्मेदार है। प्रारंभ से ही भारत में माता-पिता अपनी सारी जमा पूंजी अपने बच्चों के पालन-पोषण और भविष्य बनाने में लगा देते हैं, इस उम्मीद के साथ कि बुढ़ापे में बच्चे उनका सहारा बनेंगे। लेकिन जब बच्चे कमाने लगते हैं तो वे अपने माता-पिता को छोड़ कर अपने देश, राज्य या शहर से बाहर जाकर अपनी दुनिया बसा लेते हैं। दरअसल, आज की पीढ़ी के लिए परिवार का मतलब पति-पत्नी और उनके बच्चे हैं। उन्हें अपने माता-पिता या भाई-बहनों से कोई सरोकार नहीं होता। या फिर मासिक खर्चा भेज कर अपने कर्तव्य को पूरा हुआ मान लेते हैं। जाहिर है, आज के डिजिटल युग में भावनाओं का महत्त्व समाप्त हो चुका है।
समाज की इस गंभीर समस्या के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए समय-समय पर फिल्में और धारावाहिक बनते रहे हैं। फिल्म बागबान सभी को याद होगी कि किस तरह इस फिल्म में बच्चे अपने माता-पिता को कुछ-कुछ समय के लिए बारी-बारी से अ पने पास रखने को तैयार होते हैं, ताकि किसी एक पर उनका भार न पड़े। वे उनके साथ न केवल दुर्व्यवहार करते, बल्कि उनकी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को फिजूलखर्ची समझ कर उनकी उपेक्षा करते। लेकिन विरोधाभास यह है कि यही पीढ़ी जब इन धारावाहिकों या फिल्मों को देखती है तो उनकी आंखें नम हो जाती हैं, लेकिन सिनेमाहाल से बाहर आने के बाद वह भी वैसा ही व्यवहार करने में पीछे नहीं रहते। फिल्म क्या संदेश दे रही है, यह भूल जाते हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे तमाम संदेश देखने को मिल जाते हैं जिनसे पता चलता है कि आज की पीढ़ी बुजुर्गों के साथ रिश्तों को लेकर कितनी कदर करती है।
वृद्धावस्था उम्र का ऐसा पड़ाव होता है जब इंसान का मन और शरीर दोनों शिथिल होने लगते हैं। ऐसे में उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत अपनों के सहारे की होती है, विशेष रूप से भावनात्मक सहारे की। ऐसे में बुजुर्गों में तनाव, निराशा और अकेलापन जैसे लक्षण उभरना सामान्य बात है। अनेक शोधों में यह सामने आया कि अकेलेपन के कारण बुजुर्गों में याददाश्त की समस्या उत्पन्न हो जाती है। चिकित्सकों के अनुसार इस समस्या से ग्रस्त मरीज शारीरिक रूप से नहीं, बल्कि मानसिक रूप से ज्यादा कमजोर हो जाता है। यहां तक कि दैनिक कार्यों को पूरा करने के लिए भी उसे दूसरों की मदद लेनी पड़ती है।
यह कम बड़ी त्रासद स्थिति नहीं है कि जब बुजुर्गों को परिवार और बच्चों की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तब वे उनके पास नहीं होते। अनेक घटनाएं सुनने और देखने में आती हैं कि घर में बुजुर्ग व्यक्ति या दंपति मृत मिले अथवा घरेलू नौकर ने लूट की नीयत से उनकी हत्या कर दी.. आदि-आदि। बहुत से बुजुर्ग ऐसे भी हैं जिनके आगे-पीछे कोई नहीं है। ऐसे में ये बुजुर्ग घर में अकेले रहने के दौरान या अकेले बाहर निकलते वक्त अपराधियों के लिए आसान निशाना होते हैं। बुजुर्गों के साथ तेजी से बढ़ रही अपराध की घटनाएं इसी ओर संकेत करती हैं।
आज के उपभोक्तावादी समाज में रिश्ते, भावनाएं, प्रतिबद्धता और त्याग जैसे भाव अब अर्थहीन हो चुके हैं। इनके स्थान पर भौतिकतावादी वस्तुएं जैसे गेजेट, ब्रांडेड सामान, सोशल मीडिया पर दिखावा युवा पीढ़ी पर इतना हावी हो गया है कि परिवार की बुजुर्ग पीढ़ी उनके लिए एक तरह से निरर्थक हो चली है। आज के डिजिटल समाज में अधिकांश काम आनलाइन होने लगे हैं। लेकिन यह भी सच है कि आज भी अधिकांश बुजुर्ग डिजिटल तकनीक या विभिन्न आनलाइन सुविधाओं का उपभोग आसानी से नहीं कर पाते हैं। सर्वे के अनुसार इकहत्तर फीसद बुजुर्गों के पास स्मार्टफोन नहीं है और जो लोग स्मार्टफोन का उपयोग करते हैं, वे भी इसके लाभों से पूरी तरह परिचित नहीं हैं। एक सर्वे से पता चला है कि उनचास फीसद बुजुर्ग मोबाइल या स्मार्टफोन का उपयोग मुख्य रूप से काल करने, तीस फीसद सोशल मीडिया और सत्रह फीसद बैंकिंग लेनदेन के लिए करते हैं।
इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि समाज में पीढ़ी अंतराल तो सदियों से चला आ रहा है। दो पीढ़ियों की सोच और व्यवहार में अंतर सामान्य बात है, लेकिन एक पीढ़ी द्वारा दूसरी पीढ़ी को हाशिए पर खड़ा कर देना, उन्हें अर्थहीन मानना या खुद पर बोझ मानना समाज के समक्ष अनेक तरह के जोखिम उत्पन्न कर रहा है। चालीस फीसद बुजुर्गों ने यह स्वीकार किया कि वे स्वयं को आर्थिक रूप से सुरक्षित महसूस नहीं करते। परंपरागत परिवारों में माता-पिता हमेशा से ही अपनी सारी बचत और जमा पूंजी अपने बच्चों पर खर्च करते आए हैं। उन्होंने कभी यह सोचा ही नहीं होगा कि बच्चे उनके साथ उपेक्षित व्यवहार करेंगे।
इसलिए परिवार के इस आधुनिक चरित्र को बदलने की आवश्यकता है। आज जिस तरह से समाज में सामूहिकता की भावना की समाप्त होती जा रही है, उससे परिवार की अवधारणा ही खत्म होने लगी है। ऐसे ही हालात रहे तो वह समय दूर नहीं जब परिवार संस्था ही समाप्ति के कगार पर खड़ी होगी। सवाल है कि परिवार, समाज या सामाजिक संगठन के विघटन को कैसे रोका जा सकता है? परिवार प्रणाली में होने वाले इस विघटन को रोकने के लिए जरूरी है कि परिवार में लोकतांत्रिक मूल्यों को शामिल किया जाए। तकनीक और सोशल मीडिया पर वक्त कम देकर परिवार के सदस्यों को महत्त्व देना सीखना होगा। भौतिक वस्तुओं की तुलना में मानवीय संबंधों को अधिक महत्त्व देना होगा। कहते हैं कि अगर परिवार मजबूत होता है तो समाज मजबूत होता है और समाज मजबूत होता है तो राज्य भी मजबूत होता है। और राज्य मजबूत होता है तो अर्थव्यवस्था, राजनीति, संस्कृति सभी व्यवस्थाएं मजबूत होती चली जाती हैं।