महंगाई घटाए सरकार

आटा, चावल, दाल, बेसन, दूध, घी, दही, मक्खन, पनीर, शहद, स्टेशनरी, अस्पताल के कमरे, होटल रूम, सब्जियां, चाकू, चम्मच, मुरमुरे, गुड़, डेयरी मशीनरी, खाद, कृषि उपकरण, सोलर वाटर हीटर, एलईडी लैंप, जूट, चेकबुक आदि खाने-पीने और रोजमर्रा की चीजों पर जीएसटी थोपकर सरकार ने एक बार फिर आम आदमी की जेब पर डाका डाला है

Update: 2022-07-19 19:02 GMT

सोर्स - divyahimachal  

आटा, चावल, दाल, बेसन, दूध, घी, दही, मक्खन, पनीर, शहद, स्टेशनरी, अस्पताल के कमरे, होटल रूम, सब्जियां, चाकू, चम्मच, मुरमुरे, गुड़, डेयरी मशीनरी, खाद, कृषि उपकरण, सोलर वाटर हीटर, एलईडी लैंप, जूट, चेकबुक आदि खाने-पीने और रोजमर्रा की चीजों पर जीएसटी थोपकर सरकार ने एक बार फिर आम आदमी की जेब पर डाका डाला है। सरकार महंगाई को बढ़ाने वाले फैसले करती रही है। राजधानी दिल्ली में रसोई गैस का सिलेंडर 1053 रुपए का है। दूरदराज के इलाकों में 1100 रुपए से भी महंगा मिलता है। दरअसल प्रधानमंत्री मोदी को अपना बयान और पूर्व वित्त मंत्री दिवंगत अरुण जेतली के आर्थिक दर्शन को याद कर लेना चाहिए।
खाने-पीने और रोजमर्रा की चीजों को जीएसटी-मुक्त रखने की घोषणाएं की गई थीं। यदि देश पर आर्थिक संकट है, वित्तीय घाटे की भरपाई करनी है और राजस्व बढ़ाना है, तो शराब और पेट्रोल-डीजल को भी जीएसटी के दायरे में लाना चाहिए। इस सनातन मुद्दे पर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के वित्त मंत्रियों के बीच सर्वसम्मति क्यों नहीं बनती? देश के 18 राज्यों में भाजपा-एनडीए की सरकारें हैं, तो जीएसटी परिषद में शराब और पेट्रो पर कर लगाने का निर्णय क्यों नहीं हो सका है? इस मुद्दे पर विपक्ष की सरकारें हामी भरती रही हैं। साफ है कि सरकारें आम आदमी के संसाधनों को चूस लेना चाहती हैं। लोकतंत्र है, लिहाजा आम नागरिक सबसे ताकतवर और महत्त्वपूर्ण ईकाई है, लिहाजा मतदान के जरिए सरकारों को झटके क्यों नहीं दिए जाते? दान में आपको रोजी-रोटी नसीब नहीं होगी। बहरहाल खाने-पीने और रोजमर्रा की चीजों पर 18 जुलाई से जीएसटी प्रभावी हो गया है। आम आदमी के त्राहिमाम की ख़बरें आ रही हैं, क्योंकि उसका रोजग़ार घटा है, आय कम हो गई है अथवा नौकरी छूट गई है। जीएसटी से रसोई का खर्च 1000-1500 रुपए माहवार तक बढ़ सकता है। अमीरों, राजनेताओं, सांसदों, विधायकों और मंत्रियों को यह आर्थिक बोझ नहीं चुभेगा, क्योंकि उनके संसाधन अपार हैं। उन्हें बहुत-सी सुविधाएं और सेवाएं मुफ़्त में ही मिलती हैं। हमारे जन-प्रतिनिधि ऐसे हैं कि जैसे ही संसद भवन की सीढिय़ां चढक़र अंदर जाएंगे, तो उनका 2000 रुपए का दैनिक भत्ता पक्का हो जाएगा। वेतन और अन्य भत्ते अलग हैं। आम आदमी की जेब तो छोटी-सी है। जिस देश में करीब 25 करोड़ लोग गरीबी-रेखा के तले जी रहे हों, देश के प्रति व्यक्ति पर औसतन 101048 रुपए का कजऱ् हो, जीडीपी की तुलना में राष्ट्रीय कजऱ् बढक़र चेतावनी के स्तर तक पहुंच चुका हो, ऐसे में यह दलील समझ के परे है कि जीएसटी लगाने से महंगाई कैसे कम हो जाएगी?
यह कैसा अर्थशास्त्र है मोदी सरकार का? जून, 2022 में करीब 1.44 लाख करोड़ रुपए का जीएसटी संग्रह किया गया है। जनवरी, 2022 से यह कर-संग्रह लगातार बढ़ता रहा है। सरकार ने आयकर संग्रह भी बेहतर किया है। तेल पर उत्पाद शुल्क से करीब 30 लाख करोड़ रुपए वसूले जा चुके हैं। औद्योगिक उत्पादन भी बढ़ रहा है, कृषि उत्पादन लबालब हुआ है। विदेशी मुद्रा भंडार करीब 600 अरब डॉलर का है। विश्व बैंक की रपट में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.5 फीसदी से ज्यादा आंकी गई है, जो विश्व में सर्वाधिक है। फिर ऐसी क्या मजबूरी है कि सरकार और जीएसटी परिषद ने आम नागरिक की भोजन की थाली और भी महंगी कर दी है? ऐसा नहीं माना जा सकता कि भारत सरकार और प्रधानमंत्री मोदी को यह एहसास नहीं होगा कि आम आदमी पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा। काम-धंधा नहीं है या बेहद सीमित है, तो पैसे भी सीमित ही होंगे, लिहाजा बाज़ार में मांग कम रहेगी, तो ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था कैसे सुधर सकती है? महंगाई भी कम कैसे होगी? क्या मिलावट का कारोबार नहीं बढ़ेगा, क्योंकि जीएसटी पैकेट वाले उत्पादों पर लगाया गया है? जो माल खुला बेचा जाएगा, जाहिर है कि उसमें मिलावट की गुंज़ाइश ज्यादा होगी। सवाल यह भी है कि क्या मोदी सरकार को देश पर आसन्न आर्थिक संकट महसूस होने लगा है और वह आम नागरिक की जेब से भी छीन लेना चाहती है? केंद्र सरकार को पहल करते हुए महंगाई को घटाना ही होगा।


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