चाहे मौत हमारे दरवाज़े पर दस्तक देती रहे, चाहे मृत्युबोध और उसका निरन्तर असहय होता हुआ सन्त्रस हमारी दहलीज़ छोडऩे से इन्कार कर दे, चाहे धरती कुपित होकर हमारे महानगरों से लेकर पहाड़ों के ऊंचे माथे को भूकम्प के झटकों पर झटका दे दे, हम जीवन की निस्सारता के एक नई शाल की तरह अपने कंधों पर ओढ़ते रहेंगे और दार्शनिक मुद्रा से प्रवचन देना चाहेंगे। अब इस जीवन में रखा ही क्या है, साहब। आपको तो पहले ही मंत्रवाक्य दे दिया था, 'ददन्नमंम' अर्थात सब मेरा नहीं है। आप माने नहीं। और देखिये चक्रवाती तूफान कलकत्ता, ओडि़शा और मुम्बई तक महासागर की लहरों में मौत बन गया। अब महापण्डितों के उवाचों में दम लगता है, 'न तेरा है न मेरा है, बस दुनिया रैन बसेरा है।' परन्तु कहां रखें इस रैन बसेरे को? भूख, बेकारी, बीमारी को फिलहाल भूल जाओ। वक्त देश की आज़ादी बनाए रखने के लिए कुर्बान होने का भी आ गया। महाप्रभुओं ने कहा 'दुश्मन को आर्थिक रूप से अपंग कर देने का वक्त है। यह इसलिए आओ, लोकल के लिए वोकल हो जाए। आओ दगाबाज दुश्मन के सामान की होली जलायें। हमारा सामान बना है या नहीं, बाद में देख लेंगे। पहले उसका पाटिया तो गुल कर दें।' कैसे दिन आ गए साब! ऐसे दुर्दिन, ऐसा दुर्भाग्य आपका मोहल्ला, आपका शहर और आपका देश ही इसका शिकार नहीं हुआ, आज पूरी दुनिया में मौत के हरकारे घूम रहे हैं। ऐसा वक्त आत्मचिन्तन का है साब।
लीजिए हर समाचार और वीडियो चैनलों ने अपने कैमरों के सामने आत्मतोष से मुस्कराते हुए चिन्तक बिठा दिए, जो बता रहे हैं कि इन दिनों में आसान मौत का स्वागत कैसे करना है। चिन्ता और व्यग्रता से छुटकारा कैसे पाना है? ज्यों ज्यों आपदा बढ़ती है, आपदा के नए बाज़ार सब और सजने लगते लगे। इसलिए फिलहाल दिलासा अथवा सांत्वना का प्रवचन सुनिये। उस अदृश्य शक्ति का ध्यान कीजिए, जिसने यह सब खेल रचाया है। उसकी प्रात: सायं वन्दना करके अपना इहलोक और परलोक सुधार लीजिए। परन्तु जिन्हें न अपने इहलोक की चिन्ता है, और न परलोक की, वे लोग तो कभी न सुधरने वाले अपने काम में लगे हैं। इसी अदृश्य शक्ति की सौगन्ध, कहीं आपका कोई सगा इसका शिकार हो गया और इसका कथित टीका या औषधि लेने बाजार में चले गए तो पहले इन्कार के बाद ये लोग चार से दस गुणा कीमत पर किसी छिपी दराज़ से बाहर निकाल लेंगे।
आप ठीक हो गए तो कृपा इन चोर बाजारियों की दया दृष्टि की, न ठीक हुए तो जैसी इच्छा प्रभु की। ऊपर आसमान में कभी महा सूर्य ग्रहण लगता है और कभी चन्द्रग्रहण। बन्धुवर, जैसे पूर्णबन्दी के अकेले दिनों ने कवि और लेखकों का सैलाब पैदा कर दिया, वैसे ही सूर्य, चांद और ग्रहों की चाल भांप कर 'कल, आज और कल' का हाल बताने वाले भविष्य वक्ता पैदा हो गए। अब इनकी कही बात सही हो तो जैसी राम की इच्छा साब। भरपूर कलियुग आ गया। सीधे चलो तो भी टेढ़ा रास्ता मिलता है। कल क्या होगा साब, कौन जानता है। कल मज़दूर लाखों की तादाद में अपने कार्यस्थलों के शहरों को छोड़ अपने गांव, घरों की ओर चल दिए थे। पैदल, साइकिल या रेलों और बसों में लदे-फदे, पेट के लिए दो रोटी, हाथ के लिए काम की तलाश में। आज देखो वक्त खुलने लगा। वही लोग अपने पुश्तैनी घरों के खण्डहरों से घबरा कर वापस शहरों की ओर लौट आए। वापसी की गाडिय़ां, वापसी के वाहन लौटती भीड़ बन लदने लगे। सवाल तो दो रोटी का है साब। जहां मिल जाए वहीं गनीमत। तुम पूछते हो इनके दस्ताने और मास्क कहां हैं? बार-बार लौटते वायरस का मुकाबला कैसे करेंगे? प्रश्न समयोचित है, इन्हें तत्काल मास्क पहनाने वाला। लेकिन इनके लिए दो रोटी और आधे-अधूरे काम का बंदोबस्त भी तो कर दो। नहीं तो कोई बन्दा इससे पहले पलायन और फिर वापस लौटने के रास्ते में खेत रहा तो उसे कोरोना वारियर का खिताब भी नहीं मिलेगा।
सुरेश सेठ
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By: divyahimachal