बेरोजगारी का जिन्न

अर्थव्यवस्था की चुस्ती आमजन की जेब से जुड़ी है। लोगों की जेब में पैसे होंगे तो वे खर्च करेंगे, तभी बाजार में मांग बढ़ेगी। मांग बढ़ेगी तभी नौकरियां पैदा होंगी। मुनाफा अगर बाजार का मूल सिद्धांत है

Update: 2022-05-03 03:15 GMT

सरोज कुमार: अर्थव्यवस्था की चुस्ती आमजन की जेब से जुड़ी है। लोगों की जेब में पैसे होंगे तो वे खर्च करेंगे, तभी बाजार में मांग बढ़ेगी। मांग बढ़ेगी तभी नौकरियां पैदा होंगी। मुनाफा अगर बाजार का मूल सिद्धांत है, तो घाटा सह कर बाजार नौकरियां नहीं पैदा करेगा।महामारी से पहले भी बेरोजगारी चिंता का गंभीर विषय बनी हुई थी। लेकिन महामारी के दौरान बेरोजगारी का ठीकरा फोड़ने के लिए हमें एक मुकम्मल सिर मिल गया था।

आज जब आर्थिक गतिविधियां पटरी पर लौट आई हैं तब बेरोजगारी के सवाल पर रोजगार के प्रबंधक सिर खुजा रहे हैं। मार्च 2022 के रोजगार के आंकड़े अर्थव्यवस्था की डरावनी तस्वीर पेश कर रहे हैं। एक तरफ नौकरियां घट रही हैं, दूसरी तरफ बेरोजगारी की दर भी और तीसरी तरफ दर-दर भटकने के बाद निराश हाल बेरोजगार घरों को लौट रहे हैं। अर्थव्यवस्था बंजर भूमि बन गई है, जहां रोजगार का अंकुर असंभव हो गया है।

मार्च 2022 में बेरोजगारी की दर नीचे आई तो आर्थिक पंडितों ने अर्थ निकाला कि अर्थव्यवस्था सुधार पर है। रोजगार के आंकड़े आते ही इस अर्थ में छिपा अनर्थ सामने आ गया। सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनामी (सीएमआइई) के आंकड़े बताते हैं कि मार्च 2022 में बेरोजगारी दर घट कर 7.60 फीसद पर आ गई, जो फरवरी 2022 में 8.10 फीसद थी।

बेरोजगारी दर घटने से नौकरियां बढ़नी चाहिए थीं, लेकिन यहां तो चौदह लाख नौकरियां घट गर्इं। फिर बेरोजगारी दर घटने का क्या अर्थ? बेरोजगारी दर का सीधा अर्थ श्रम बाजार में श्रमिकों की भागीदारी से जुड़ता है। श्रम बाजार में उपलब्ध रोजगाररत और बेरोजगार श्रमिकों के औसत के आधार पर बेरोजगारी दर बनती है। यदि श्रम बाजार में श्रमिक काम मांगने नहीं जाएंगे तो बेरोजगारी दर स्वत: नीचे आ जाएगी। मार्च महीने में बेरोजगारी दर के नीचे आने की वजह यही रही।

मार्च, 2022 में श्रमिक भागीदारी दर (एलपीआर) घट कर 39.5 फीसद रह गई, जो फरवरी में 39.9 फीसद थी। यानी श्रमिक भागीदारी दर जितनी घटी, लगभग उतनी ही बेरोजगारी दर नीचे आई है। आश्चर्य की बात यह कि मार्च की श्रमिक भागीदारी दर महामारी की दूसरी लहर के दौरान की दर से भी नीचे रही, जब कई प्रतिबंधों के कारण आर्थिक गतिविधियां बुरी तरह बाधित थीं। उस दौरान (अप्रैल-जून, 2021) औसत श्रमिक भागीदारी दर चालीस फीसद थी और न्यूनतम श्रमिक भागीदारी दर भी जून में 39.6 फीसद थी।

पिछले पांच सालों में 2017 से 2022 के बीच श्रमिक भागीदारी दर लगभग छह फीसद घट गई। देश में लगभग 90 करोड़ लोग नौकरी योग्य हैं। जबकि मार्च 2022 में श्रम बाजार में श्रमिकों की संख्या अड़तीस लाख घट कर बयालीस करोड़ अस्सी लाख रह गई। यानी अकेले मार्च में अड़तीस लाख लोग नौकरी की उम्मीद छोड़ घर बैठ गए। जुलाई 2021 से आठ महीने की अवधि में श्रम बाजार में श्रम बल की यह न्यूनतम संख्या है। मार्च का महीना आर्थिक गतिविधि के लिहाज से साल का सबसे व्यस्त महीना माना जाता है, ऐसे में श्रम बाजार में श्रमिक भागीदारी दर के साथ नौकरियों का घटना अर्थव्यवस्था में बड़े संकट की आहट है। जून 2018 के बाद तीन वर्षों की अवधि में श्रम बाजार में श्रमिकों की संख्या में इस तरह की गिरावट पहली घटना है।

रोजगार बाजार में जो नौकरियां बची हैं, अब जरा उन पर गौर किया जाए। मार्च, 2022 में चौदह लाख की गिरावट के बाद कुल नौकरियों की संख्या 39.6 करोड़ रह गई, जो जून, 2021 के बाद का सबसे निचला स्तर है। अगर कृषि क्षेत्र न होता तो नौकरियों का यह निचला स्तर रसातल में चला जाता। कृषि क्षेत्र की अधिकांश नौकरियां हालांकि छद्म श्रेणी में रखी जाती हैं, जिसे सरल भाषा में 'बैठे की बेगार' कहते हैं।

माना जाता है कि जब दूसरे क्षेत्रों में नौकरियां नहीं मिलतीं, तब श्रमिक कृषि क्षेत्र में लौट जाते हैं। इसी कृषि क्षेत्र में मार्च 2022 में एक करोड़ तिरपन लाख नौकरियां बढ़ गर्इं, जिसके कारण दूसरे क्षेत्रों में एक करोड़ सड़सठ लाख नौकरियों के खत्म होने की काफी हद तक भरपाई हो गई। कृषि क्षेत्र ने रोजगार के आकड़े को रसातल में जाने से भले बचा लिया, लेकिन यहां कार्यरत श्रमिकों की हालत क्या है, किसी से छिपी नहीं है। खेती से किसान की रोज की कमाई मात्र सत्ताईस रुपए है।

पिछले पांच सालों में दो करोड़ से ज्यादा नौकरियां जा चुकी हैं। मार्च 2022 में जिन क्षेत्रों में नौकरियां गर्इं, उनमें वे क्षेत्र शामिल हैं जो सर्वाधिक नौकरियां पैदा करने के लिए जाने जाते हैं, जैसे- उद्योग, विनिर्माण, निर्माण, खनन और खुदरा क्षेत्र। मार्च, 2022 में औद्योगिक नौकरियां छिहत्तर लाख घट गर्इं। विनिर्माण क्षेत्र में इकतालीस लाख नौकरियां खत्म हो गर्इं, जिसमें ज्यादातर नौकरियां सीमेंट और धातु जैसे संगठित क्षेत्र की हैं। निर्माण क्षेत्र में उनतीस लाख और खनन क्षेत्र में ग्यारह लाख नौकरियां चली गर्इं।

विनिर्माण क्षेत्र की सेहत बताने वाला इंडिया मैन्युफैक्चरिंग परचेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स (पीएमआइ) मार्च में घट कर 54.0 पर आ गया, जो फरवरी में 54.9 था। यह आंकड़ा फैक्टरी संबंधित गतिविधि में सितंबर 2021 से अब तक की सबसे धीमी वृद्धि को प्रदर्शित करता है। महामारी की भेंट चढ़े वित्त वर्ष 2020-21 के बाद जुलाई, 2021 को छोड़ दिया जाए, तो 2021-22 के पूरे वित्त वर्ष के दौरान विनिर्माण क्षेत्र में सुधार का रुख था। मार्च में भी यह सिलसिला जारी रहने की उम्मीद थी। पर परिस्थिति दगा दे गई।

आर्थिक गतिविधियां बहाल होने के बाद निर्माण क्षेत्र में भी तेजी की उम्मीद थी। लेकिन छह करोड़ चालीस लाख नौकरियों तक पहुंच कर यह क्षेत्र भी ठिठक गया। वर्ष 2018 में यहां छह करोड़ अस्सी लाख से सात करोड़ बीस लाख लोग रोजगाररत थे। मार्च 2022 में तो निर्माण क्षेत्र में छह करोड़ बीस लाख से भी कम नौकरियां रह गर्इं। खुदरा क्षेत्र के लिए भी यह वक्त मायूसी भरा रहा, जहां नौकरियां घट कर छह करोड़ छप्पन लाख रह गर्इं। फरवरी 2022 में यहां सात करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ था।

गैर कृषि क्षेत्र में नौकरियों का जाना इन क्षेत्रों में सुस्ती का संकेत है। लेकिन यह सुस्ती चुस्ती में कैसे बदले? बड़ा सवाल यही है। अर्थव्यवस्था की चुस्ती आमजन की जेब से जुड़ी है। लोगों की जेब में पैसे होंगे तो वे खर्च करेंगे, तभी बाजार में मांग बढ़ेगी। मांग बढ़ेगी तभी नौकरियां पैदा होंगी। मुनाफा अगर बाजार का मूल सिद्धांत है, तो घाटा सह कर बाजार नौकरियां नहीं पैदा करेगा। मुनाफे का सिद्धांत महंगाई बढ़ा रहा है। यह एक खतरनाक रुझान है। देश ने वित्त वर्ष 2021-22 में चार सौ अरब डालर से अधिक मूल्य के निर्यात का इतिहास रचा।

निर्यात के इस आंकड़े के अनुसार बाजार में मांग और रोजगार का टोटा नहीं होना चाहिए था। लेकिन अर्थव्यवस्था के तमाम संकेतकों से लगता है निर्यात में यह उछाल परिस्थितिजन्य प्रकृति की है, बाधित आपूर्ति श्रृंखला के बहाल होने का तात्कालिक परिणाम। यदि निर्यात की यह रफ्तार आगे बनी रहती है तो रोजगार बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है। लेकिन अस्थिर वैश्विक आर्थिक हालात इसकी संभावना को कमतर करते हैं।

कृषि क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र संकट की हर घड़ी में लाभ-हानि की परवाह किए बगैर रक्षक की भूमिका में रहे हैं। इन दोनों क्षेत्रों को मजबूत करना समय की मांग है। 2019-20 में जहां कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर साढ़े पांच फीसद थी, वहीं गैर कृषि क्षेत्र साढ़ तीन फीसद वृद्धि दर के साथ घिसट रहा था। वित्त वर्ष 2020-21 में जब अर्थव्यवस्था 6.3 फीसद गोता लगा गई, तब भी कृषि क्षेत्र 3.3 फीसद की दर से आगे बढ़ रहा था। 

Tags:    

Similar News

-->