फालतू याचिकाओं की बाढ़

निचली अदालतों से लेकर शीर्ष अदालत तक मुकदमों का बोझ काफी ज्यादा हो चुका है

Update: 2021-08-05 14:16 GMT

आदित्य नारायण चोपड़ा। निचली अदालतों से लेकर शीर्ष अदालत तक मुकदमों का बोझ काफी ज्यादा हो चुका है। वैसे भी कोरोना महामारी के दौरान लम्बित मुकदमों की संख्या 3.5 करोड़ से बढ़कर 4.1 करोड़ हो गई है। लोग बेसिरपैर की याचिकाएं डाल रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत के लोगों का सर्वोच्च अदालत पर काफी भरोसा है। सुप्रीम कोर्ट की साख काफी ऊंची बनी हुई है, लेकिन हम लोग ही जब छोटी-छोटी बातों को लेकर जनहित याचिकाएं दायर करने लग जाएंगे तो फिर त्वरित न्याय हो ही नहीं सकेगा।

सुप्रीम कोर्ट ने हर मामले में फालतू याचिकाओं पर नाराजगी जताई है। तुच्छ और केवल प्रचार पाने के लिए फालतू याचिकाओं से परेशान सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस ऋषिकेश राय ने कहा है कि सामूहिक रूप से हम सभी न्यायिक प्रणाली का मजाक बना रहे हैं। इन याचिकाओं की नजर से अदालत को उन मामलों के निपटारे में दिक्कत हो रही है, जिसका निपटान बहुत जरूरी है और लोग लम्बे समय से न्याय का इंतजार कर रहे हैं। हर मामले में अपील दायर करने के चलन को हतोत्साहित करना होगा। पीठ का यह कहना भी सही है कि एक आम इंसान को कोर्ट की बारीकियों या बड़े कानूनी ​सिद्धांत में कोई दिलचस्बीनहीं है, एक वादी यह जानने में उत्सुक रहता है ​कि उसके मुकदमे में दम है या नहीं और यह जानने के लिए वह अनिश्चितकाल तक इंतजार नहीं करना चाहता वह सही था या नहीं। अगर फैसला आने में दस या बीस वर्ष लग जाएं, तो वह उस फैसले का क्या करेगा। कई दीवानी मुकदमे तो 45 वर्षों से लम्बित थे जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने निपटाया है। अग्रिम जमानत, जमानत, अंतरिम राहत और विविध याचिकाओं की बाढ़ आ चुकी है। यही वजह है कि कोर्ट को पुराने मामलों को तय करने के लिए समय ही नहीं निकाल पाता। हर कोई अंतरिम राहत चाहता है कि कोई भी अंतिम मामलों में बहस नहीं करना चाहता।
जब अदालतों में मामलों की संख्या बेतहाशा बढ़ने लगे तो इसका सीधा संकेत यही होता है कि कार्यपालिका और विधायिका अपना काम सही ढंग से नहीं कर पा रही हैं। लोगों की उम्मीदें ध्वस्त हो रही हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में बड़ी अजीब स्तिथि है। जो कानून अस्तित्व में ही नहीं है, उसी के तहत अलग-अलग राज्यों की पुलिस गिरफ्तार करे और लोगों को बेवजह प्रताड़ित करे। ऐसा पिछले पांच वर्षों से चल रहा है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने आईटी अधिनियम की धारा 66 ए को रद्द कर दिया था। पुलिस फिर भी इसी के तहत मामूली और साधारण बात को लेकर भी लोगों को ​गिरफ्तार कर जेलों में डालती रही। क्या कोई देखने वाला नहीं था कि निरस्त की जा चुकी धारा का अंधाधुंध इस्तेमाल कर लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा है। इसका अर्थ यही है कि विधायिका और कार्यपालिका अपना काम सही तरीके से नहीं कर रही हैं। जब एक गैर सरकारी संस्था इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची और अदालत के पास धारा 66ए के बेजा इस्तेमाल की शिकायतें पहुंची तो सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रुख अपनाया। क्या राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों की सरकारों की यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह लागू कानूनों की वैधता को परखें और कसौटी पर सही और न्यायिक होने का हर वक्त ध्यान रखें। जब लोगों का पुलिस पर से विश्वास उठ गया तो जाहिर है कि न्याय के लिए लोग सुप्रीम कोर्ट पहुंचेंगे ही। 2 अगस्त तक सुप्रीम कोर्ट में 69476 केस लम्बित हैं। इनमें से 50901 मामले अंतरिम राहत पाने के लिए हैैं। कई सिविल और आपराधिक मामले तो दशकों पुराने हैं। मुआवजों से सम्बन्धित मामले एक के बाद एक दायर कराए जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि हर मामले में उसके आदेशों के खिलाफ अपील दायर की जाती है। कहीं न कहीं तो रुकना होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने बेसिरपैर की याचिकाओं पर कड़ा रुख अपनाया है, उसने कई बार याचिकादाता को जुर्माना भी लगाया है। कहीं न कहीं तो इसे रोकना ही होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कानून के एक ही तरह के मामलों से सम्बन्धित एक जैसे सवालों को लेकर बार-बार अपील दायर करने पर केन्द्र सरकार की खिंचाई भी की थी। उसने टिप्पणी की थी की केन्द्र सरकार बेकार के मामलों पर अपील दायर करके जहां खुद का वित्तीय बोझ बढ़ाती है, वहीं इससे अन्य वादियों को भी नुक्सान होता है। लोगों को ​सस्ता और त्वरित न्याय मिले, इसके लिए जरूरी है की केसों का बोझ घटाया जाए। लोगों को भी चाहिए कि फालतू की जनहित याचिकाएं दायर करने से परहेज करें। बहुत जरूरी हो तो ही शीर्ष अदालत में पहुंचा जाए अन्यथा न्यायिक व्यवस्था ही चरमरा जाएगी। केसों के लम्बित रहने की अवधि कम करने के ​लिए कुछ नहीं किया गया।


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