किसान लड़ेंगे चुनाव

पंजाब में किसानों का चुनावी मोर्चा अप्रत्याशित नहीं है

Update: 2021-12-26 19:00 GMT

पंजाब में किसानों का चुनावी मोर्चा अप्रत्याशित नहीं है, बल्कि एक मौकापरस्त मोर्चा है, क्योंकि आंदोलित किसानों ने बार-बार देश को आश्वस्त किया था कि उनकी लड़ाई किसानी के लिए ही है। वे चुनाव नहीं लड़ेंगे। वैसे भारत का संविधान सभी को चुनाव लड़ने की अनुमति और अधिकार देता है। किसी भी राजनीतिक और चुनावी संगठन का एक निश्चित दर्शन और सिद्धांत होना चाहिए। पंजाब के 32 जत्थेबंदियों ने किसान आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की थी। उनमें से 22 संगठनों ने एक मोर्चा बनाया है-संयुक्त समाज मोर्चा। यह विधानसभा की सभी 117 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगा और पूरी शिद्दत के साथ चुनाव लड़ेगा। बलबीर सिंह राजेवाल चुनाव में मोर्चे के चेहरा होंगे। यानी मुख्यमंत्री उम्मीदवार तय किए गए हैं। इन्हीं राजेवाल को संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) की 5-सदस्यीय कमेटी में रखा गया था, जिसने भारत सरकार के साथ बातचीत की थी। आपसी सहमतियां बनीं और किसान आंदोलन जीत की हुंकारों के साथ समाप्त हुआ। राजेवाल एसकेएम के प्रखर और अग्रिम मोर्चे के नेता थे, जिन्होंने बार-बार मीडिया के सामने दावे किए थे कि किसान आंदोलन पूरी तरह 'अराजनीतिक' है।

उन्होंने यह बयान भी दिया था कि आंदोलन समाप्त हो चुका है, लिहाजा अब हमें प्रधानमंत्री मोदी का विरोध भी नहीं करना चाहिए। इस तरह व्याख्या की जा सकती है कि किसानों ने जो नया मोर्चा बनाया है, वह दक्षिणपंथी है। उसके पीछे भाजपा-कैप्टन अमरिंदर सिंह की सियासत की कारगर भूमिका भी हो सकती है। आने वाले दिनों में यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगा। संयुक्त समाज मोर्चा को तीन और जत्थेबंदियों का समर्थन मिल सकता है। अलबत्ता बीकेयू क्रांतिकारी, बीकेयू सिद्धपुर, आज़ाद किसान कमेटी, किसान आंदोलन, किसान संघर्ष कमेटी आदि वामपंथी, क्रांतिकारी किस्म के किसान संगठनों ने इस मोर्चे से अलग रहने का निर्णय घोषित किया है। इससे कुछ दिन पहले एसकेएम के ही एक और मुखर नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने भी 'संयुक्त संघर्ष मोर्चा' के ऐलान के साथ पंजाब चुनाव में उतरने की बात कही थी। अब इतना तय है कि पंजाब में सबसे ताकतवर किसान वोट बैंक अकाली दल, कांग्रेस, आप और इन दोनों किसान मोर्चों के बीच विभाजित होगा। यह भाजपा का परंपरागत वोट बैंक नहीं है। संभव है कि कैप्टन की नई पार्टी-पंजाब लोक कांग्रेस-के साथ गठबंधन के कारण किसानों के वोट भाजपा की झोली में भी आ जाएं!
किसान आंदोलन के बाद उनका चुनावी मैदान में उतरना कांग्रेस और अकाली दल के लिए तगड़े झटके साबित हो सकते हैं। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने तो हाल ही में किसानों के 2 लाख रुपए तक कर्ज़ माफ करने की घोषणा की थी। उसके लिए 1200 करोड़ रुपए का बजट तय किया गया है। पंजाब पर फिलहाल करीब 2.82 लाख करोड़ रुपए का कर्ज़ है। सरकार किसानों के कर्ज़ माफ कर रही है, लेकिन किसान चुनावों में चुनौतियां पेश कर रहे हैं। इसके अलावा, किसानों के बल पर ही प्रकाश सिंह बादल पंजाब के पांच बार मुख्यमंत्री बने हैं। यदि अकाली दल का बुनियादी वोट बैंक विभाजित होता है, तो उसकी गठबंधन सहयोगी बसपा की ताकत भी कमज़ोर होगी, क्योंकि दलितों का सर्वाधिक करीब 32 फीसदी वोट भी विभिन्न दलों के बीच बंटना लगभग तय है। बेशक किसान पंजाब ही नहीं, पूरे देश का बुनियादी सरोकार है। उनकी चिंताएं प्राथमिक हैं, लेकिन नौजवानों में बेरोज़गारी सबसे अहम मुद्दा है। युवा वर्ग दूसरे राज्यों और विदेशों को पलायन करने को मज़बूर हैं। उद्योगों के अपने संकट हैं। बिजली बोर्ड अप्रत्याशित कर्ज़ में डूबे हैं। सीमाओं पर पाकिस्तान के अतिक्रमण से सुरक्षा भी सवालिया है। नशे के कारोबार, तस्करी की समस्याएं भी विकराल हैं। सब कुछ किसानों के नाम नहीं किया जा सकता। पंजाब के किसानों की अधिकतर फसलें एमएसपी पर बिक जाती हैं। भारत सरकार ने एमएसपी को कानूनी गारंटी बनाने का भी आश्वासन दिया है। सबसे महत्त्वपूर्ण तो यह है कि किसान आंदोलन और उसके एसकेएम में ही दरारें सामने आ गई हैं।
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