परिवार की पहचान
उसकी कोख में लड़की थी। अब आप पूछेंगे कि मुझे कैसे पता? कहीं डाक्टरों को खिला-पिला कर मालूम तो नहीं करवा लिया। अगर मैं कहूं कि उसकी कोख में लड़का था, तब निश्चित ही आप इस तरह का सवाल नहीं करते।
सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त'; उसकी कोख में लड़की थी। अब आप पूछेंगे कि मुझे कैसे पता? कहीं डाक्टरों को खिला-पिला कर मालूम तो नहीं करवा लिया। अगर मैं कहूं कि उसकी कोख में लड़का था, तब निश्चित ही आप इस तरह का सवाल नहीं करते। आसानी से मान लेते। हमारे देश में लिंगभेद केवल व्याकरण तक सीमित नहीं है। वैचारिक रूप से हम अब भी पुल्लिंगवादी हैं। उसकी कोख में लड़का था या लड़की यह तो नौ महीने बाद ही मालूम पड़ने वाला था।
चूंकि पहली संतान होने वाली थी, सो घर की बुजुर्ग पीढ़ी खानदान का नाम रौशन करने वाले चिराग की प्रतीक्षा कर रही थी। कोख से जन्म लेने वाली संतान अपने साथ कुछ न दिखाई देने वाली चिप्पियां भी लाती है। मसलन, लड़का हुआ तो घर का चिराग और लड़की हुई तो घर की लक्ष्मी। कोख का कारक पुल्लिंग इस बात से ही अत्यंत प्रसन्न रहता है कि उसके साथ पिता की चिप्पी लग जाएगी, जबकि कोख की पीड़ा सहने वाली 'वह' मां बाद में बनेगी, सहनशील पहले।
घर भर के लोगों को कोख किसी कमरे की तरह लग रहा था। जिसमें कोई सोया था और नौ महीने बाद उनके सपने पूरा करने के लिए जागेगा और बाहर आएगा। सबकी अपनी-अपनी अपेक्षाएं थीं। दादा जी का कहना था कि उनका चिराग आगे चल कर डाक्टर बनेगा, तो दादी का कहना था कि वह इंजीनियर बनेगा। चाचा जी का कहना था कि वह अधिकारी बनेगा, तो चाची जी उसे कलेक्टर बनता देखना चाहती थीं। पिता उसे बड़ा व्यापारी बनता देखना चाहते थे, तो कोई कुछ तो कोई कुछ। सब अपनी-अपनी इच्छाएं लादना चाहते थे। मानो ऐसा लग रहा था कि संतान का जन्म इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए ही हो रहा था, न कि उसे खुद से कुछ करने की।
उसकी कोख में संतान की पीड़ा से अधिक घर भर की अपेक्षाओं वाली पीड़ा सालती थी। आंसुओं के भी अपने प्रकार थे। जो आंसू कोरों से निकलते थे, उसकी भावनात्मक परिभाषा रासायनिक परिभाषा पर हमेशा भारी पड़ती थी। वह घर की दीवारों, खिड़कियों और सीलन पर पुरुषवादी सोच का पहरा देख रही थी। उसकी कोख पीड़ादायी होती जा रही थी। उसमें सामान्य संतान की तुलना में कई अपेक्षाओं की पूर्ति करने वाले यंत्र की आहट सुनाई देती थी।
ऐसा यंत्र, जिसे न रिश्तों से प्रेम था न संस्कृति-सभ्यता से। न प्रकृति से प्रेम था न सुरीले संगीत से। उस यंत्र के जन्म लेते ही झूले में रुपयों का बिस्तर बिछा कर रुपयों का झुंझुना थमा दिया जाएगा और कह दिया जाएगा कि बजाओ जितना बजा सकते हो। भले ही रिश्तों के तार टूट कर बिखर जाएं और अपने पराए लगने लगें। चूंकि जन्म किसी संतान का नहीं यंत्र का होने वाला था, इसलिए सब यांत्रिक रूप से तैयार थे।
वास्तव में सही समाज की निर्मिति उसमें रहनेवालों से होती है। अगर समाज के लोग गलत हों, तो समाज अपने आप गलत दिशा में जाता है और उस समाज में रहने वाले हर व्यक्ति को उसके परिणाम भोगने पड़ते हैं। अगर परिवार गलत होता है तो उसकी सजा सभी सदस्यों को भुगतनी पड़ती है। सही परिवार वही होता है, जिसमें सही इंसान रहते हों।
परिवार जब तक अपनी संतान को अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने वाला वाहक समझेगा, तब तक मोहभंग होने से कभी नहीं बचा सकता। सबकी अपनी-अपनी क्षमताएं होती हैं। सबकी अपनी-अपनी योग्यताएं होती हैं। किसी की जोर-जबरदस्ती से संतान को अपनी इच्छाओं के विपरीत काम करने के लिए बाध्य करना अनपेक्षित कदम उठाने को प्रेरित करता है। हमारे समाज में सदियों से स्त्रियों के साथ गलत व्यवहार होता आ रहा है और उसकी सजा आज सारी जन्मी और अजन्मी बेटियां और हमारी बहनें चुका रही हैं।
अगर घर में लड़की का जन्म होता है, तो उसके प्रति नकारात्मक सोच के बजाय सकारात्मक सोच रखने का प्रयास करना चाहिए। चूंकि बेटा-बेटी एक समान है इसलिए उन्हें समान महत्त्व देना चाहिए। भेदभाव नहीं करना चाहिए। लिंग भेद की समस्या को मिटाने के कई उपाय हैं। जैसे बेटियों को आत्मनिर्भरता के साथ-साथ आत्मरक्षा करना सीखने पर जोर दें। बचपन से ही अपने देश के प्रति देश प्रेम और भाईचारा सिखाएं।
दायित्वों का अहसास कराएं। हमारी भारतीय संस्कृति और उसका महत्त्व सीखना चाहिए, क्योंकि आजकल कुछ लोग बाहर से पश्चिमी सभ्यता का लबादा ओढ़े भीतर से वही पुरानी दकियानूसी अंधविश्वासों वाली सोच का प्रदर्शन करने से बाज नहीं आते। यह ऐसा कटु सत्य है, जिसको झुठलाया नहीं जा सकता है। इक्कीसवीं सदी के भारत में लोग अपने सभ्य होने का दावा करते हैं, लेकिन जब उनको कहा जाता है कि लिंगभेद न करें, तो वह अपनी सभ्यता भूल जाते हैं और वही लड़का-लड़की के भेद का राग अलापते हैं। मानो ऐसा करना उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो।