By: divyahimachal
दुर्भाग्य है कि सनातन की सोच, परंपरा, आस्था और धर्म पर टिप्पणी करनी पड़ रही है। हम इस निरर्थक विवाद को टालते आ रहे थे। कुछ कुमति लोगों ने ‘सनातन’ की तुलना मलेरिया, डेंगू, कोरोना से ही नहीं, बल्कि कोढ़ और एड्स सरीखी बीमारियों से की थी। ऐसे कुकृत्य सतयुग, त्रेता, द्वापर के दौरान भी आसुरी ताकतों ने किए थे। कोई नई बात, नई गाली नहीं है। यही नहीं, ‘रामचरितमानस’ के रचनाकार संत तुलसीदास को भी बादशाह जहांगीर के दरबार में अपमानित होना पड़ा था। अपने आराध्य हनुमान जी को स्मरण किया, तो वानर सेना ने कहां से धावा बोल दिया, यह आस्थावान लोग ही महसूस कर सकते हैं। ‘वानर सेना’ ने दरबार उजाड़ दिया, सिंहासन तोड़ दिया, पहरेदारों को पराजित कर दिया। यह घटना किंवदन्ती नहीं है। 16-17वीं सदी कोई बहुत प्राचीन नहीं है। सनातन का भाव और अस्तित्व तो अनादि और अनंत है। वह न तो जन्म लेता है और न ही उसकी मृत्यु होती है। उसके वैचारिक आधार वेद हैं। कुमतिजन तो इस पर भी सवाल उठा सकते हैं। बहरहाल तमिलनाडु की द्रमुक पार्टी का एक युवा मंत्री ‘सनातन’ के समूल उन्मूलन का आह्वान कैसे कर सकता है और वह कितना प्रभावी होगा? तमिलनाडु में हजारों हिंदू मंदिर हैं। असंख्य लोग शिव और उनके दर्शन के मतावलंबी हैं। ‘सनातन’ को क्रूर और खूंखार आक्रांता और उपनिवेशवादी अंग्रेज भी विनष्ट नहीं कर पाए, तो आज स्वतंत्र भारत में कौन कर सकता है? तमिलनाडु में अन्नादुरई पेरियार ने सनातन धर्म, ब्राह्मणवाद, छुआछूत, जाति विभेद आदि के खिलाफ सामाजिक आंदोलन छेड़े थे। वह खुद को नास्तिक मानते थे और भगवान के अस्तित्व को खारिज करते थे।
उस दौर को बीते सात दशकों से अधिक का समय गुजर चुका है। आज छुआछूत विरोधी कानून हैं। जातीय आरक्षण की व्यवस्था है, ताकि आर्थिक-सामाजिक विषमताएं मिट सकें। आध्यात्मिक आस्थाओं के संवैधानिक, मौलिक अधिकार हैं। ब्राह्मण से प्राचीन शूद्र तक आज की व्यवस्था में समान हैं, क्योंकि वे समान स्तरों, पदों और अवसरों पर मौजूद हैं। कथित दलित आज आईएएस, आईपीएस हैं, वैज्ञानिक हैं, सांसद-मंत्री हैं और देश के राष्ट्रपति रह चुके हैं। लोकतंत्र में सामाजिक न्याय और समानता के समान अवसर हैं, अधिकार हैं। पेरियार का कालखंड आज अप्रासंगिक है। यदि ऐसा नहीं होता, तो यह तमिलनाडु तक ही सिमट कर क्यों रह जाता? पेरियार की सोच वाली द्रमुक पार्टी भी चुनावी तौर पर पराजित हुई है। ‘सनातन’ के समूल नाश की ऐसी हवा बही है कि बिहार में एक मंत्री ने ‘रामचरितमानस’ को ‘सायनाइड’ करार दे दिया। उप्र में सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ‘मानस’ और ‘सनातन धर्म’ पर अनर्गल अलाप करते रहे हैं। कांग्रेस के बड़े नेता खामोश हैं, क्योंकि उन्हें ‘सनातनी वोट’ की दरकार है। बात विपक्ष के प्रलापों तक ही सीमित नहीं है।
प्रधानमंत्री मोदी ने जी-20 सम्मेलन के बाद मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जिन चुनावी जनसभाओं को संबोधित किया, उनमें ‘सनातन’ का मुद्दा बड़े आक्रामक तेवर के साथ पेश किया। उन्होंने विपक्ष के सनातनी अपशब्दों को भारत की सभ्यता-संस्कृति और आस्थाओं पर हमला करार दिया। प्रधानमंत्री ने धार्मिक भाव के चुनावी ध्रुवीकरण की पूरी कोशिश की और जवाब में भीड़ के नारे लगवाए। प्रधानमंत्री ने यहां तक कहा कि विपक्ष सनातन की संस्कृति को खंड-खंड करने पर तुला है। यह पूरा प्रकरण अफसोस और विडंबना के साथ उठाना पड़ रहा है। यदि देश की जनता ‘सनातन’ के मुद्दे पर ही जनादेश देती है, तो हमारी बुनियादी समस्याएं यथावत रह जाएंगी। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, स्वास्थ्य, शिक्षा सरीखे नाजुक मुद्दों को कौन संबोधित करेगा? जनादेश बुनियादी मुद्दों पर ही तय होने चाहिए और कोई भी धर्म को गाली न दे सके, इसका प्रावधान हो।