अपमानजनक बोल की मिसाल कायम कर गए पांच राज्यों के चुनाव प्रचार अभियान

पांच राज्यों के चुनावों का दौर आखिर खत्म हो गया. लेकिन यह एक गंभीर सवाल है

Update: 2022-03-07 10:54 GMT

Faisal Anurag

पांच राज्यों के चुनावों का दौर आखिर खत्म हो गया. लेकिन यह एक गंभीर सवाल है कि प्रचार अभियान के दौरान किस तरह की भाषा और संवाद महत्वपूर्ण नेताओं ने इस्तेमाल किया और उससे भविष्य की राजनीति के क्या संकेत मिलते हैं. आमतौर पर भाषा के पतन की बात कर असली सवाल को दरकिनार कर दिया जाता है. असली सवाल तो यह है कि चुनावों के प्रचार अभियान एक पूरी पीढ़ी को गहरे रूप से प्रभावित करती है और उसके सपनों,उम्मीदों और तकलीफों के निदान के लिए एक आदर्शवादी रूमानियत की ओर धकेल देती है. लेकिन हकीकत तो यह है कि वोटर एक जिन्स में बदल दिया गया है. एक ऐसा जिन्स जिसकी जरूरतों,तकलीफों और रोजमर्रे के संघर्ष को हाशिए का विषय बना दिया गया है. नागरिकों के लिए राजनैतिक दलों के अधिकांश नेताओं के पास केवल झूठ का पुलिंदा है, ऐसा झूठ जो सत्ता हासिल करने का औजार तो साबित होता है लेकिन वह सेवा केवल उन पूंजीपति घरानों का ही करता है जिसके धन ने पूरी चुनावी प्रक्रिया को बेहद मंहगा बना दिया है. आने वाले चुनावों में वोटरों को हिंदू और मुसलमान, जाति और क्षेत्र के नाम पर सहलाने के दरवाजे पूरी तरह से बंधनहीन कर दिए गए हैं.
यह पहला अवसर है जबकि उत्तर प्रदेश के वोटरों से नमक की कीमत चुकाने की मांग और किसी अन्य नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया. प्रधानमंत्री मोदी ने दो दिनों के बाद अपना स्वर जरूर बदला, लेकिन प्रियंका गांधी के तीखे विरोध के बाद. दरअसल नमक की कीमत चुकाने का फर्ज किसका है. यह सवाल इसलिए उठ खड़ा होता है क्योंकि सरकारी योजानाओं के नाम पर लाभान्वित समुदायों को सरकार के रहमोकरम पर परजीवी बताने का प्रयास किया जाता है. योजनाओं के नाम पर वोटरों को लुभाना एक बात है. लेकिन उसे एक दल की सरकार कर नमक का कर्ज बताना दूसरी है. लोककल्याणकारी दौर के कमजोर होने के बाद से ही सत्ता शीर्ष पर बैठे नेताओं को लगता है कि वे जनता पर अहसान कर रहे हैं. फ्री राशन देना किसी सरकार का नैतिक दायित्व है, उस हालत में जबकि कोविड महामारी ने गरीबों की जिंदगी को मुश्किल बना दिया है. लेकिन इस फ्री राशन को प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का अहसान बताना लोकतंत्र में नागरिक का अपमान है
हालांकि आदर्शवाद का वह दौर तो कब का खत्म हो गया है. जब इसी देश का एक प्रधानमंत्री चुनाव मंच से खड़ा होकर कहता था कि आप चाहे जिसे वोट दें स्वतंत्र है. वह यह भी कहता था कि मैं वोट मांगने नहीं आया हूं, बल्कि आप से संवाद करने आया हूं. वह थे जवाहरलाल नेहरू इन चुनावों में भी हर समस्या का जिम्मेदार बता दिया गया. यहां तक कहा गया कि यदि नेहरू ने हर जिले में मेडिकल कालेज खोला होता तो यूक्रेन में छात्र नहीं फंसते. चुनावों में इस तरह की गैर जिम्मेदार बात प्रधानमंत्री स्तर तक पर की जा रही है. लेकिन आज के वक्त में तो जब यूक्रेन में भारतीय छात्र के मार्मिक वीडियो वायरल हो रहे थे, इस देश का प्रधानमंत्री डमरू बजा कर राजनीति में किस तरह का संदेश दे रहा था. धार्मिक आयोजनों में हिस्सेदारी व्यक्ति का निजी मामला चुनावों के समय नहीं रह गया है, बल्कि उसे चुनावों का सावर्जनिक प्रचार का हिस्सा बना दिया गया है. एक ऐसे देश में जिसको सबसे ज्यादा जरूरत अस्पताल,शैक्षणिक संस्थान और वैज्ञानिक शोध अन्वेषण पर ज्यादा खर्च करने की है, उसी देश के चुनाव में सबसे कम बातें विकास की जाती है.


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