वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था जिन चुनौतियों से दो-चार है, उनमें महंगाई सर्वप्रमुख है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि महंगाई गरीब आदमी पर सबसे ज्यादा असर डालती है। चूंकि गरीबों की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा रोजमर्रा की जरूरतों खासकर खानपान पर खर्च होता है तो खाद्य महंगाई बढऩे से उनकी बचत में सेंध लगती है। बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के बाद उनके पास डिस्पोजबल इनकम यानी अन्य मदों में खर्च करने के लिए उतनी राशि शेष नहीं रह जाती है। महंगाई की इस विकराल होती समस्या का ही असर है कि केंद्रीय बैंक और सरकार दोनों स्तरों पर प्रयास शुरू हो गए हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने जून में ब्याज दरें बढ़ाने के संकेत दिए हैं। इस संकेत को समझते हुए कुछ बैंकों ने ब्याज दरें बढ़ाना भी शुरू कर दिया है। वहीं केंद्र सरकार ने मुफ्त राशन योजना की अवधि को और आगे बढ़ा दिया है, ताकि लोगों को राहत मिल सके। इन कदमों से राजकोषीय गणित का बिगडऩा तय है, क्योंकि सरकारी खजाने पर खाद्य सब्सिडी का बोझ और बढ़ेगा। इसी स्थिति में सरकार को उर्वरक सब्सिडी में भी दोगुनी बढ़ोतरी करनी पड़ी है।
इस समय महंगाई केवल भारत की समस्या नहीं है। पूरी दुनिया इससे जूझ रही है। यहां तक कि पश्चिम के जो देश मुद्रास्फीति के लिए अधिकतम दो प्रतिशत का लक्ष्य निर्धारित करते थे, वहां भी वह इस दायरे से बाहर निकलती दिख रही है। इन स्थितियों के कारण ही अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा नरम ब्याज दरों की नीति को तिलांजलि देने से अमेरिका में ब्याज दरों में बढ़ोतरी के दौर की वापसी होती दिख रही है। इसका असर भारत समेत दुनिया भर की उभरती हुई अर्थव्यवस्था पर देखने को मिल सकता है। अमेरिका में ब्याज दरें बढऩे से विदेशी संस्थागत निवेशक इन बाजारों से पूंजी समेटकर वापस अमेरिका में लगाएंगे, जो उनके लिए अपेक्षाकृत सुरक्षित दांव होगा। इससे भारत समेत अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बाजारों से पूंजी का पलायन देखने को मिल सकता है। इससे निवेशकों की धारणा भी प्रभावित हो सकती है। 2013 में भी ऐसे हालात बने थे, लेकिन तब की तुलना में अब अपने विदेशी मुद्रा भंडार में बढ़ोतरी के कारण हम ऐसी किसी स्थिति से निपटने के लिहाज से बेहतर स्थिति में हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महंगाई और सुस्त आर्थिक वृद्धि का असर वैश्विक मांग पर भी पड़ सकता है। इससे भारत से होने वाले निर्यात पर भी कुछ मार पड़ सकती है। पिछले कुछ महीनों से निर्यात के मोर्चे पर तेजी का जो दौर जारी है, उसके शिथिल पडऩे की आशंका है। वहीं चीन में कोविड के फिर से सिर उठाने से इकोनामिक रिकवरी बाधित होने की आशंका है। इसका कारण चीन की 'जीरो कोविड पालिसी' है। चूंकि वैश्विक आपूर्ति शृंखला अभी भी चीन केंद्रित है इसलिए वहां आर्थिक गतिविधियों के सुस्त पडऩे से वैश्विक उत्पादन शृंखला पर असर पडऩा तय है। इस प्रकार देखा जाए तो पूरा विश्व और भारत इस समय बहुस्तरीय आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहे हैं। ऐसे मुश्किल माहौल में भी कुछ सकारात्मक संकेत दिखते हैं। पहला यह कि सरकार के कर राजस्व में ठीक-ठाक बढ़ोतरी हो रही है। अप्रैल में रिकार्ड 1.68 लाख करोड़ रुपये का जीएसटी संग्र्रह हुआ। हालांकि इसका कुछ संबंध बढ़ती हुई महंगाई से भी है, क्योंकि वस्तुओं एवं सेवाओं के दाम बढऩे से उन पर कर भी उसी अनुपात में बढ़ेगा। दूसरा सकारात्मक पहलू यह है कि कोविड महामारी के बाद बाजार में बहुत तेजी से सुधार हो रहा है। खासतौर से जिन सेवाओं पर कोविड की सबसे अधिक गाज गिरी थी, उनकी स्थितियों में सुधार देखने को मिल रहा है। होटल, विमानन, रेस्तरां और सिनेमा जैसी तमाम सेवाओं में कोरोना काल के दौरान जो भारी गिरावट आई थी, वे अब तेजी के रथ पर सवार हैं। इन मोर्चे पर आई गिरावट ने शहरों में गरीबी बढ़ाने का काम किया था, क्योंकि ये सेवाएं मुख्य रूप से शहर केंद्रित हैं। तब हालात इतने विकट हो गए थे कि शहरों से गांवों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन हुआ था, लेकिन अब स्थिति खासी सुधर गई है।
गूगल रिटेल मोबिलिटी डाटा के अनुसार कोरोना की पहली लहर में तकरीबन 86 प्रतिशत लोग घर से बाहर नहीं निकल रहे थे। वहीं दूसरी प्रलयंकारी लहर के दौरान यह आंकड़ा बढऩे के बजाय घटकर 66 प्रतिशत ही रहा और इस साल जनवरी में आई तीसरी लहर के समय केवल 15 प्रतिशत। यह स्पष्ट संकेत करता है कि लोगों की आवाजाही बढ़ रही है और उन्होंने कोविड के साथ समायोजन सीख लिया है। इससे भी अच्छी बात यह है कि कोरोना की किसी नई लहर से बड़े नुकसान की आशंका नहीं रह गई है। इसकी एक बड़ी वजह सफल एवं व्यापक स्तर पर किया गया टीकाकरण कार्यक्रम है, जिसने कोविड के मामले में देश को आवश्यक प्रतिरोध प्रदान किया है।
अभी तक मानसून के सभी अनुमान भी उम्मीद बंधाने वाले हैं। मानसून के सामान्य रहने की स्थिति न केवल ग्र्रामीण मांग को सहारा देगी, बल्कि बेहतर खाद्यान्न उत्पादन से खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित करेगी। हालांकि जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रही प्रतिकूल मौसमी परिघटनाओं से फसल को नुकसान पहुंचने की आशंका को देखते हुए नीति-नियंताओं को समय रहते आवश्यक समाधान भी तलाशने होंगे।