हमेशा नहीं रहेगी डालर की मजबूती

पिछले कुछ समय से भारतीय रुपया डालर के मुकाबले लगातार कमजोर होते हुए फरवरी 2022 में 74.5 रुपए प्रति डालर से अभी तक लगभग 80 रुपए प्रति डालर पार कर चुका है

Update: 2022-08-01 19:01 GMT

पिछले कुछ समय से भारतीय रुपया डालर के मुकाबले लगातार कमजोर होते हुए फरवरी 2022 में 74.5 रुपए प्रति डालर से अभी तक लगभग 80 रुपए प्रति डालर पार कर चुका है। रुपए की इस कमजोरी के कारण, नीति निर्माताओं में स्वभाविक चिंता व्याप्त है। उधर विपक्षी दल भी सरकार को घेरने की कोशिश में है। यह पहली बार नहीं है कि भारतीय रुपया डालर के मुकाबले कमजोर हुआ है। यदि 1991 से अभी तक का हिसाब लगाएं तो रुपया डालर के मुकाबले औसतन सालाना 3.03 प्रतिशत की दर से कमजोर होता रहा है। रुपए में यह अवमूल्यन सभी वर्षों में एक जैसा नहीं रहा। कुछ वर्षों में यह अवमूल्यन औसत से ज्यादा भी रहा है। पिछले 5 महीनों में रुपए का अवमूल्यन 7.28 प्रतिशत तक हो चुका है। पूर्व में रुपया केवल डालर के मुकाबले ही नहीं, यूरो, पाउंड, येन, यूआन समेत कई महत्त्वपूर्ण करंसियों के मुकाबले भी कमजोर होता रहा है। उदाहरण के लिए 1991 से अभी तक रुपया पाउंड के मुकाबले 137 प्रतिशत, यूरो के मुकाबले 489 प्रतिशत और येन के मुकाबले 241 प्रतिशत कमजोर हुआ है। जबकि डालर के मुकाबले यह अवमूल्यन 252 प्रतिशत रहा है।

यानी देखा जाए तो दीर्घकाल में रुपया सभी महत्त्वपूर्ण करंसियों के मुकाबले कमजोर हुआ है। लेकिन पिछले 5 महीनों में रुपए के अवमूल्यन की प्रवृत्ति में बदलाव आया है। जहां रुपया डालर के मुकाबले 7.28 प्रतिशत कमजोर हुआ है, लेकिन पाउंड स्टर्लिंग के मुकाबले यह 6.31 प्रतिशत, येन के मुकाबले 10.77 प्रतिशत और यूरो के मुकाबले 4.72 प्रतिशत मजबूत हुआ है। यानी कहा जा सकता है कि डालर के मुकाबले तो रुपया कमजोर हुआ है, लेकिन दूसरी करंसियों के मुकाबले यह मजबूत हुआ और वे करंसियां भी डालर के मुकाबले कमजोर हुई हैं। चूंकि पूरी दुनिया में डालर लगभग सभी करंसियों के मुकाबले मजबूत हुआ है, इसलिए हमें रुपए की कमजोरी की बजाय डालर की विभिन्न करंसियों के मुकाबले मजबूती के कारणों का विश्लेषण करना अधिक लाभकारी होगा। हमें यह भी समझना होगा कि रुपए और अन्य करंसियों का भविष्य क्या है? आज जब डालर दुनिया की सभी प्रमुख करंसियों के मुकाबले मजबूत हो रहा है, तो प्रश्न उठता है कि क्या भविष्य में भी डालर की विजय यात्रा जारी रहेगी? क्या रुपए समेत सभी करंसियां डालर के सामने घुटने टेक देंगी? इस प्रश्न के उत्तर में हमें अमरीकी अर्थव्यवस्था की वास्तविकता के बारे में जानना होगा। यह सर्वविदित ही है कि जहां हम श्रीलंका, पाकिस्तान, यूरोपीय देशों आदि की ऋणग्रस्तता की बात करते हैं तो हमें समझना होगा कि अमरीकी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी कर्जदार है।
आज अमरीका पर 30.4 खरब डालर का विदेशी ऋण है, चीन पर 13 खरब डालर का और इंग्लैंड पर 9.02 खरब डालर का। भारत पर विदेशी ऋण कुल 614.9 अरब डालर का ही है, जो हमारी जीडीपी का मात्र 20 प्रतिशत ही है। अमरीका का विदेशी ऋण उसकी जीडीपी का 102 प्रतिशत है, जबकि इंग्लैंड का 345 प्रतिशत। यह भी समझना होगा कि भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पिछले कुछ महीनों से रुपए की स्थिरता को बनाए रखने के लिए कम हुए हैं, लेकिन अभी भी वे 572.7 अरब डालर तक बने हुए हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते आज सभी मुल्क महंगाई के चंगुल में फंस चुके हैं। अमरीकी महंगाई की दर 9.1 प्रतिशत पहुंच चुकी है, जबकि इंग्लैंड में यह 9.4 प्रतिशत और भारत में यह मात्र 7.0 प्रतिशत है। इन सभी देशों में महंगाई में वृद्धि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपूर्ति में बाधाओं के कारण है। इस कारण ईंधन, खाद्य पदार्थ और आवश्यक कच्चे माल और मध्यवर्ती वस्तुओं तथा धातुओं की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजारों में उथल-पुथल ने संपूर्ण दुनिया के वित्तीय बाजारों को भी प्रभावित किया है। इतिहास गवाह है कि जब-जब दुनिया में उथल-पुथल होती है, डालर मजबूत होता जाता है। इसका कारण यह है कि दुनिया भर के निवेशक यह मानते हैं कि अमरीका उनके लिए सर्वाधिक सुरक्षित गंतव्य है। इस प्रक्रिया को व्यावसायिक भाषा में 'सेफ हैवन' कहा जाता है। बाजार विशेषज्ञों द्वारा कहा जा रहा है कि चूंकि दुनिया भर में महंगाई बढ़ी है, ग्रोथ के प्रति चिंताएं बढ़ी हैं और ब्याज दरें भी बढ़ रही हैं, इसलिए डालर मजबूत हो रहा है।
विभिन्न करंसियों के 'बास्केट' की तुलना में डालर पिछले एक साल में 10 प्रतिशत बढ़ा है और पिछले 20 वर्षों के सर्वाधिक ऊंचे स्तर पर पहुंच चुका है। येन डालर के मुकाबले 24 वर्ष के न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया है। जहां दुनिया भर के केन्द्रीय बैंक अपने-अपने देशों में महंगाई को थामने के लिए ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं, अमरीकी केन्द्रीय बैंक फेडरल रिजर्व भी ब्याज दरें बढ़ा रहा है। चूंकि अमरीका में ब्याज दरें ज्यादा बढ़ी हैं, इस कारण से भी दुनिया भर में निवेशक अमरीका की ओर आकर्षित हो रहे हैं। लेकिन अमरीका के बाहर व्यवसाय करने वाली अमरीकी कंपनियां, मजबूत डालर के कारण नुकसान में रहेंगी, जिसमें बड़ी 500 कंपनियों को अपनी आमदनी का 5 प्रतिशत नुकसान हो सकता है। लेकिन अमरीका में कार्यरत कंपनियों को मजबूत डालर का लाभ होगा। यदि दूसरे मुल्कों की बात करें तो वे देश जिन्होंने भारी मात्रा में डालर में ऋण ले रखे हैं, उन्हें ब्याज और ऋणों के भुगतान में मुश्किल हो रही है। लेकिन कुछ ऐसे मुल्क हैं जो तेल उत्पादक और निर्यातक देश हैं या जो कृषि पदार्थों के आपूर्तिकर्ता हैं, उनकी करंसियां कमजोर नहीं हो रही हैं। उसी प्रकार से अमरीका और यूरोप के तमाम प्रयासों के बावजूद रूस की करंसी रूबल लगातार मजबूत ही हो रही है। उसका कारण रूस द्वारा तेल और गैस का निर्यात बढ़ता जा रहा है और पूंजीगत प्रवाहों पर रूस सरकार द्वारा नियंत्रण के चलते रूस से पूंजी का बहिर्गमन नहीं हो रहा। यह सही है कि चीन के लॉकडाउन और रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण आपूर्ति श्रृंखला में बाधाएं दुनिया में महंगाई बढ़ा रही हैं।
वैश्विक उथल-पुथल और अमरीका में बढ़ती ब्याज दरों के चलते अमरीकी डालर मजबूत हो रहा है, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चल सकता। दुनिया में ऐसी परिस्थितियां अल्पकालिक मानी जा रही हैं। ऐसे में जब दुनिया की दूसरी करंसियों में उठाव आएगा और 'सेफ हैवन' की तलाश में भारत से कूच किए गए निवेशक पुन: बाजारों की खोज में भारत और दुनिया के दूसरे मुल्कों में जाएंगे तो डालर का नीचे जाना अवश्यंभावी हो जाएगा। दुनिया में मंदी की बात करें तो जहां यूरोप, अमरीका और जापान में मंदी की आहट सुनाई दे रही है, उधर भारत में आर्थिक गतिविधियां जोर पकड़ रही हैं। जीएसटी और अन्य करों से प्राप्तियां उछाल ले रही हैं। मई माह के आंकड़े बता रहे हैं कि औद्योगिक उत्पादन में 19.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो उससे पिछले महीने से 7.1 प्रतिशत ज्यादा थी। चाहे बिजली की मांग हो अथवा चाहे उपभोक्ता वस्तुओं की या पूंजीगत वस्तुओं की, देश में सभी प्रकार की मांग में 20 से 55 प्रतिशत की भारी वृद्धि भारत में आर्थिक गतिविधियों में उठाव की ओर संकेत कर रही हैं। सभी वैश्विक संस्थान भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया की सबसे तेजी से बढऩे वाली अर्थव्यवस्था बता रहे हैं। इस कारण से भी दुनिया भर के निवेशक भारत की ओर रुख करने के लिए बाध्य हो जाएंगे। हालांकि आयात-निर्यात के बीच अभी बड़ा अंतर दिखाई दे रहा है, लेकिन देश में बढ़ते हुए उत्पादन से यह अंतर घटने वाला है। लगातार बढ़ते प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और मजबूत फंडामेंटल रुपए को मजबूती की ओर ले जाने की क्षमता रखते हैं। माना जा सकता है कि डालर की मजबूती बहुत लंबे समय नहीं चलने वाली है।
डा. अश्वनी महाजन
कालेज प्रोफेसर

By: divyahimachal 

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