पीएम मोदी की बुद्ध को समर्पित नेपाल यात्रा के भी निकलेंगे कूटनीतिक मायने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ( PM Narendra Modi) की पांचवीं नेपाल यात्रा खुद में कई यादगार पहलू समेटे हुए है
चंद्रभूषण |
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ( PM Narendra Modi) की पांचवीं नेपाल यात्रा खुद में कई यादगार पहलू समेटे हुए है. एक तो यही कि किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष की ओर से राजधानी काठमांडू के बजाय किसी और जगह से नेपाल (NEPAL) का दौरा शुरू करने का यह अकेला तो नहीं लेकिन विरला मामला है. भारतीय प्रधानमंत्री ने हाल में बनकर तैयार हुए कुशीनगर हवाई अड्डे से हेलिकॉप्टर की उड़ान भरी और सीधे गौतम बुद्ध की जन्मभूमि लुंबिनी (Gautam Buddha Birth Place Lumbini) में कदम रखा. नेपाली अखबारों में इस बात को लेकर बहस चल रही है कि शेरबहादुर देउबा सरकार को नरेंद्र मोदी की यह यात्रा किसी तरह भैरहवा हवाई अड्डे से शुरू करानी चाहिए थी, जो लुंबिनी से सिर्फ 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. ऐसी राय रखने वालों का कहना है कि मोदी अगर भैरहवा में उतरते तो इस हवाई अड्डे को पहले दिन से ही इंटरनेशनल पब्लिसिटी मिल जाती.
भैरहवां की बजाय कुशीनगर में उतरे पीएम मोदी
ध्यान रहे, इस हवाई अड्डे का नवीकरण और विस्तार अभी हाल में चीन के सहयोग से पूरा हुआ है और 16 मई 2022, दिन सोमवार को ही नेपाली प्रधानमंत्री ने भारतीय प्रधानमंत्री से मुलाकात के ठीक पहले इसकी नई धज का लोकार्पण किया. पब्लिसिटी की चिंता जायज है, लेकिन भगवान बुद्ध की जन्मस्थली को समर्पित इस हवाई अड्डे का लोकार्पण उनकी 2566वीं जयंती पर करने का एक औचित्य तो बनता है. इस गहमागहमी में ही हवाई अड्डे पर एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष की अगवानी भी कर ली जाए, यह बात सुनने में बहुत अच्छी लगती है, लेकिन इसकी अपनी जटिलताएं भी थीं. नेपाल अगर आग्रह करता तो भी भारत की सुरक्षा एजेंसियां इसके लिए शायद ही राजी होतीं. मामले का दूसरा पहलू कूटनीतिक है. भैरहवा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा हमारे सोनौली बॉर्डर से सिर्फ दस किलोमीटर की दूरी पर है और चीनियों की भूमिका इसमें सिर्फ ढांचे का नवीकरण करके घर चले जाने तक ही सीमित नहीं है.
लुंबिनी में इंडिया इंटरनैशनल सेंटर
लुंबिनी एक बड़ा बौद्ध तीर्थ है और भारतीय प्रधानमंत्री ने वहां सौ करोड़ रुपये लगाकर बनाए जा रहे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर का भूमि पूजन किया है. लेकिन बौद्ध संस्कृति और विरासत को समर्पित इस परियोजना की शुरुआत भैरहवा हवाई अड्डे पर चीन की तकनीकी दक्षता के प्रचार के साथ तो नहीं की जा सकती थी. इसके पहले नरेंद्र मोदी ने जो चार नेपाल यात्राएं की थीं, उनमें तीन धार्मिक रंग से सराबोर रहीं. एक यात्रा जनकपुर में सीता मैया के मायके के लिए समर्पित रही, एक काठमांडू के पशुपतिनाथ मंदिर में शिवभक्ति से सराबोर रही और एक का स्वरूप मुस्तांग में मुक्तिनाथ के प्रति श्रद्धा ज्ञापन का रहा. मुक्तिनाथ के साथ नेपाल के इतिहास में आया एक बहुत बड़ा बदलाव जुड़ा है, हालांकि यहां होने वाले वार्षिक आयोजन किसी धार्मिक कटुता के लिए नहीं जाने जाते.
नेपाल की प्राचीन संस्कृति लिच्छिवियों के शासन पर आधारित है, जिनकी एक स्पष्ट बौद्ध पहचान हुआ करती थी. पालवंश के खात्मे के जिस दौर को भारतीय उपमहाद्वीप में बौद्ध धर्म के विलोप से जोड़कर देखा जाता है, उसी समय, यानी सन 1200 से शुरू होकर 1769 तक बहुत लंबे समय तक नेपाल में चले मल्ल शासन ने हिंदू और बौद्ध धर्मों में मैत्री और उनके श्रेष्ठ संश्लेषण पर जोर दिया. यहां के मंदिर में मौजूद कांसे की सुंदर खड़ी मूर्ति को बौद्ध धर्मानुयायी अवलोकितेश्वर बुद्ध के रूप में पूजते रहे जबकि हिंदू धर्मावलंबी इसे भगवान विष्णु का विग्रह मानते रहे. लेकिन मल्लों के बाद आए शाहवंशी शासन में गोरखा फौजें तिब्बत में साम्राज्य विस्तार की गुंजाइश देखने लगीं और मुक्तिनाथ पर बौद्धों का दावा उस समय कमजोर पड़ा तो फिर कभी मजबूत नहीं हो पाया.
मोदी का बौद्ध तीर्थाटन
जनकपुर, काठमाडू और मुस्तांग में की गई प्रधानमंत्री मोदी की धार्मिक यात्राओं को लेकर नेपाली बौद्धिकों की एक राय यह सुनने में आती थी कि उनका जोर नेपाल में चुन-चुनकर हिंदू तीर्थों पर ही रहता है, बौद्ध तीर्थों की वे सिर्फ बात करते हैं, कभी वहां जाते नहीं. यह शिकायत नरेंद्र मोदी की इस लुंबिनी यात्रा से हमेशा के लिए दूर हो जानी चाहिए. भारत सरकार की योजना बौद्ध तीर्थाटन से जुड़े सर्किट को बहुत गंभीरता से विकसित करने की है. बोधगया, राजगीर, नालंदा, सारनाथ और कुशीनगर में इसी के हिसाब से लंबा-चौड़ा इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित किया गया है. ये जगहें भगवान बुद्ध के तप, ध्यान, ज्ञानप्राप्ति, उपदेश और शरीरोत्सर्ग से जुड़ी हैं.
लेकिन इस सर्किट की शुरुआत लुंबिनी और कपिलवस्तु से ही हो सकती है, जो नेपाल में हैं और जिनका संबंध बुद्ध के जन्म तथा उनके पिता राजा शुद्धोदन के राजकाज से रहा है. लुंबिनी में दुनिया के कई देशों ने अपने सांस्कृतिक केंद्र काफी पहले से बना रखे हैं. भारत इस मामले में जर्मनी जैसे पश्चिमी देशों से भी पीछे है, जिनका अपना कोई बौद्ध इतिहास नहीं रहा. लेकिन अभी लुंबिनी आईआईसी के भूमिपूजन के रूप में अपनी प्राचीन बौद्ध संस्कृति के पहलू से भी भारत का सकारात्मक हस्तक्षेप नेपाल में देखने को मिल रहा है.
मोदी की नेपाल यात्रा के भी कूटनीतिक मायने
बहरहाल, आज जब पूर्वी लद्दाख में भारत और चीन की फौजें आमने-सामने हैं, यूक्रेन में रूस की फौजों का सीधा दखल कायम हुए ढाई महीने से ज्यादा हो चुके हैं और और ताइवान से लेकर फिलीपींस तक प्रशांत महासागर के उत्तरी-पश्चिमी छोर से तनाव की खबरें रोज ही चली आ रही हैं, तब ऐसे पोलराइज्ड माहौल में प्रधानमंत्री मोदी की नेपाल यात्रा के भी कूटनीतिक मायने तलाशे जाएंगे. इसमें कोई शक नहीं कि अभी जिस एक देश में चीन और भारत की कूटनीतिक रस्साकशी सबसे ज्यादा तीखे ढंग से चल रही है, वह नेपाल ही है.
पिछले कुछ सालों से चीन ने यहां इन्फ्रास्ट्रक्चर पर काफी पैसा लगाया है. एक समय तो लग रहा था कि 2020 तक चीनी रेलवे काठमांडू तक धमक जाएगी, लेकिन फिर नेपाली राजनेताओं को भी हकीकत समझ में आने लगी और उन्होंने अपने उत्तरी पड़ोसी से रिश्तों की तेज रफ्तार पर ब्रेक लगाने में ही अपनी भलाई समझी. अमेरिका ने नेपाल के बिजली ट्रांसमिशन में 50 करोड़ डॉलर लगाने का जो प्रस्ताव रखा था, उसे हाल में काफी बवाल के बाद स्वीकार कर लिया गया है. भारत भी नेपाली रेलवे और बिजली में काफी बड़ी पूंजी लगा रहा है. यानी चीन का दखल अब इन्फ्रास्ट्रक्चर में एकतरफा नहीं रह गया है. लेकिन रणनीतिक समझ रोज-रोज नहीं बदलती, सो यह सिलसिला आगे भी चलेगा. हां, धर्म-संस्कृति और लोकतंत्र, दो पहलू ऐसे हैं, जिनमें ज्यादा निवेश कर पाना चीन के लिए संभव नहीं है. भारत यह काम कर सकता है, कर भी रहा है, लेकिन इसमें थोड़ा संभलकर चलना ही हमारे लिए अच्छा रहेगा.
अब दोनों देशों के रिश्ते आगे बढ़ेंगे
बीते कुछ साल भारत-नेपाल संबंधों पर बहुत भारी पड़े हैं. खासकर महत्वाकांक्षी राजनीतिज्ञ केपी शर्मा ओली ने इन्हें एक छोर से दूसरे छोर तक ले जाने में बड़ी बेरहमी दिखाई. नेपाल, उत्तराखंड और तिब्बत के ट्राईजंक्शन पर पड़ने वाले इलाकों- लिपूलेख दर्रा, कालापानी और लिंपियाधुरा को उन्होंने बाकायदा नेपाल के नक्शे में दिखाकर इसपर नेपाली संसद की मोहर लगवा ली. यानी इस बारे में आपसी समझदारी वाली कोई भी बात नेपाली संसद की इच्छा के उल्लंघन पर ही आधारित मानी जाएगी. पिछले महीने, अप्रैल की शुरुआत में नेपाली प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा की भारत यात्रा में सीमा प्रश्न को लेकर भी बातचीत होने वाली थी, लेकिन यात्रा समाप्त होने के बाद इस बारे में कोई घोषणापत्र जारी नहीं हो सका. लगता है, यह किस्सा किनारे रखकर ही अब दोनों देशों के रिश्ते आगे बढ़ेंगे.
भारतीय प्रधानमंत्री की इस यात्रा में अकेडमिक पहलू से भी कुछ बहुत महत्वपूर्ण काम हुए हैं. बौद्ध अध्ययन के लिए लुंबिनी विश्वविद्यालय में डॉ. भीमराव आंबेडकर पीठ और काठमांडू विश्वविद्यालय में एक प्रोफसर का पद भारत के खर्चे पर चलेगा. इससे बड़ी बात यह कि आईआईटी का एक फॉरेन कैंपस नेपाल में शुरू किया जाएगा. ये सारी चीजें न सिर्फ द्विपक्षीय संबंधों के लिए बल्कि नेपाल के भविष्य के लिए भी काफी अच्छी हैं. लेकिन एक नए-नवेले लोकतंत्र में अगियाबैताल नेताओं की बाढ़ खुद में एक बड़ी समस्या होती है.
भारत को किसी सर्वग्रासी राक्षस की तरह पेश करना नेपाली राजनीति का एक लोकप्रिय फॉर्मूला रहा है, हालांकि हमारी कुछ गलतियों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही है. वहां का सत्तारूढ़ गठबंधन नेपाली कांग्रेस, एनसीपी माओवादी और एनसीपी एमाले के एक खास धड़े के सहयोग पर आधारित है, जबकि बतौर प्रधानमंत्री अपने आखिरी दिनों में चीन के मुकाबले भारत की तरफ दिखने में जुटे केपी शर्मा ओली फिलहाल विपक्ष में बैठे हुए हैं. चुनाव करीब आते ही इनमें से कौन भारत को लेकर कैसा रुख अपना लेगा, कहा नहीं जा सकता। ऐसे में सबसे रिश्ते बनाकर रखने, पड़ोसी का भला चाहने और संबंधों को बहुआयामी बनाने के सिवाय कोई चारा नहीं है.