बहिष्कार के बावजूद
कश्मीर मुद्दे पर जब प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक बुलाई और उसमें सारी कश्मीरी पार्टियों ने शिरकत की, तो लगा कि अब वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया का रास्ता खुल रहा है।
कश्मीर मुद्दे पर जब प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक बुलाई और उसमें सारी कश्मीरी पार्टियों ने शिरकत की, तो लगा कि अब वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया का रास्ता खुल रहा है। उसमें सारे राजनीतिक दलों ने अपनी बातें रखीं, केंद्र ने भी उन्हें भरोसा दिलाया कि जनता के हित में जो कुछ हो सकता है, वह करेगा। उस बैठक में असल मुद्दा विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन और फिर चुनाव कराना था। उसके बाद ही लगभग एक साल से रुके परिसीमन आयोग के काम को आगे बढ़ाने की शुरुआत हुई है। आयोग के सदस्य घाटी के दौरे पर हैं। मगर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी ने आयोग के साथ बैठक में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया है। बाकी दलों ने अपने नुमाइंदे तय कर दिए हैं। पीडीपी की इस अचानक पलटी से परिसीमन के कामकाज में फिर से रुकावट आने के स्वाभाविक कयास लगाए जाने लगे हैं। हालांकि पीडीपी का यह रुख नया नहीं है। प्रधानमंत्री के साथ बैठक में शामिल होने आने से पहले भी इसकी मुखिया महबूबा मुफ्ती ने राज्य का दर्जा, अनुच्छेद तीन सौ सत्तर और धारा पैंतीस-ए की बहाली का मुद्दा उठाया था। परिसीमन को लेकर उनका रुख तब भी लचीला नहीं था, जैसा दूसरे दलों का था।
पीडीपी ने परिसीमन आयोग को पत्र लिख कर इस पूरी प्रक्रिया को संदेह के घेरे में खड़ा किया है। उसका मानना है कि इस प्रक्रिया का मकसद और नतीजा पहले से तय हैं और अगर ऐसा होगा, तो घाटी के लोगों को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। हालांकि पहले नेशनल कान्फ्रेंस भी परिसीमन के खिलाफ थी, उसने अदालत में मुकदमा भी दायर किया था, मगर अब वह वहां जल्दी चुनाव के पक्ष में है। मगर पीडीपी की पहले विशेष दर्जा बहाली की जिद बनी हुई है। उसकी जिद को समझा जा सकता है। हालांकि अब किसी भी सूरत में केंद्र सरकार कश्मीर को विशेष दर्जा वापस लौटाने से रही। मगर पीडीपी का जनाधार चूंकि कश्मीर को आजाद सूबा मानने और कश्मीरी अस्मिता की वकालत करने वालों के बीच है, इसलिए वह एकदम से उससे अलग नहीं हो सकती। अब वह परिसीमन आयोग और परिसीमन की प्रक्रिया को ही असंवैधानिक करार दे रही है। उसका कहना है कि जब 2026 तक किसी भी राज्य में परिसीमन पर रोक लगी हुई है, तो कश्मीर में इसे क्यों कराया जा रहा है। मगर उसके इस तर्क में कोई दम नजर नहीं आता। जम्मू-कश्मीर की स्थिति अब वही नहीं रह गई है, जो पहले थी, इसलिए वहां चुनाव के लिए उचित ही नए सिरे से प्रक्रिया अपनाई जा रही है।
कश्मीर में चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन लंबे समय से नहीं हुआ है, जबकि इस बीच वहां आबादी में परिवर्तन हुआ है। फिर जम्मू और कश्मीर में क्षेत्रों की सीमाओं को लेकर विवाद भी उठते रहे हैं। जम्मू क्षेत्र की शिकायत रही है कि उसे कम विधानसभा सीटें मिली हैं, उसे भी बराबर सीटें मिलनी चाहिए। नया परिसीमन होने से तमाम शिकायतें दूर करने में मदद मिल सकती है। मगर पीडीपी को लगता है कि केंद्र सरकार अपनी पार्टी के समीकरणों को ध्यान में रख कर विधानसभा क्षेत्रों की चौहद्दी तय करना चाहती है। मगर उसके इस विरोध का परिसीमन पर शायद ही कोई असर पड़े। जब उसे छोड़ कर सूबे के सारे सियासी दल आयोग का सहयोग कर रहे हैं, तो परिसीमन रोकने का कोई आधार नहीं बनता। लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली का इस तरह विरोध करके पीडीपी अपना ही नुकसान करेगी।