दीप से दीपमाला
भारत में हम यह मान कर चलते हैं कि आविष्कार पश्चिमी देशों में होते हैं
भारत में हम यह मान कर चलते हैं कि आविष्कार पश्चिमी देशों में होते हैं। एक आम धारणा है कि विकसित देशों में उच्च तकनीक और बढिय़ा साधन मौजूद हैं, अत: शोध एवं विकास के ज्य़ादातर कार्य वहीं संभव हैं। यहां हम छोटे-मोटे जुगाड़ किस्म के आविष्कारों से भी प्रसन्न हो लेते हैं या फिर किसी बढिय़ा नकल को ही भारतीय लोगों की काबलियत की निशानी मान लेते हैं। चूंकि हम यह मानते हैं कि हमारे देश में बुद्धि, सुविधाओं और धन की कमी है, अत: हम आविष्कारक नहीं हैं, और इस मामले में हम पश्चिम का मुंह जोहने के लिए विवश हैं। यही नहीं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भारतीय शाखाएं अपने विदेशी आकाओं से आयातित चीजों में मामूली बदलाव करके उनका भारतीयकरण करने में ही अपनी प्रतिभा की सार्थकता मान लेते हैं और किसी बड़े आविष्कार की बात सोचते तक नहीं, पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सभी बाधाओं के बावजूद कुछ करने की ठान लेते हैं और उसे कर दिखाते हैं। अक्सर यह भी माना जाता है कि आविष्कार करने के लिए पहले मन में कोई विचार आना चाहिए, उसके लिए किसी नए, अभिनव और 'इन्नोवेटिव आइडिया' की आवश्यकता होती है। वास्तव में यह पूर्ण सत्य नहीं है। सच तो यह है कि कुछ कर दिखाने के लिए पहले सपना होना चाहिए, इरादा होना चाहिए, दृढ़ निश्चय होना चाहिए, रास्ता खुद-ब-खुद निकल आता है। कठिनाइयां आती हैं, रुकावटें आती हैं, पर दृढ़ निश्चयी व्यक्ति उनका सामना करते हुए राह बनाता चलता है। दुनिया के ज्य़ादातर आविष्कारों की कहानी कुछ ऐसी ही है। और सच यह है कि ऐसे लोगों की भारत में भी कमी नहीं है, सिर्फ हमारा मीडिया और समाज उन तक पहुंचता नहीं है, उन्हें पहचानता नहीं है।
पश्चिम में एक छोटा सा आविष्कार हो जाए तो सारा भारतीय मीडिया उसके गाने गाने लगता है और भारत के कई बड़े-बड़े आविष्कारों के बारे में भी खुद भारतीयों को भी जानकारी नहीं है। आंध्र प्रदेश के निवासी श्री वाराप्रसाद रेड्डी ने हैपेटाइटस-बी के निवारण के लिए वैक्सीन तैयार की जो पहले एक बहुराष्ट्रीय कंपनी सप्लाई करती थी और उसकी हर डोज़ की कीमत 750 रुपए थी। श्री वाराप्रसाद रेड्डी की वैक्सीन बाज़ार में आने पर बहुराष्ट्रीय कंपनी को अपनी वैक्सीन की कीमत इस हद तक घटानी पड़ी कि वह 750 रुपए के बजाय महज़ 50 रुपए में बिकने लगी और एक समय तो उसकी कीमत 15 रुपए पर आ गई थी। यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है कि एक आम हिंदुस्तानी ने अपने दृढ़ निश्चय के बल पर एक शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनी को घुटने टेकने पर विवश कर दिया। बहुत सालों पहले निरमा वाशिंग पाउडर ने ऐसी ही कहानी लिखी थी, केविनकेयर के श्री सीके रंगनाथन ने भी यही किया था जिन्होंने हिंदुस्तान लीवर को बगलें झांकने पर विवश कर दिया। जहां निरमा ने सर्फ को टक्कर दी और अपने लिए एक बड़ा बाज़ार निर्मित किया वहीं केविनकेयर ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों हिंदुस्तान लीवर (अब हिंदुस्तान युनिलीवर) तथा प्रॉक्टर एंड गैंबल के उत्पादों से बाज़ार छीना। श्री रंगनाथन ने सैशे में शैंपू देना शुरू किया ताकि वह उन लोगों के बजट में भी आ सके जो महंगा होने के कारण शैंपू का प्रयोग नहीं कर पाते। उनकी यह जीत इतनी बड़ी थी कि अंतत: हर प्रतियोगी कंपनी को उनकी रणनीति की नकल करनी पड़ी। घडिय़ों के मामले में दुनिया भर में स्विटजऱलैंड का सिक्का चलता है।
यह माना जाता है कि स्विटजऱलैंड की घडिय़ां दुनिया में सबसे बढिय़ा होती हैं और घडिय़ों के निर्माण में नए आविष्कार स्विटजऱलैंड में ही होंगे। लेकिन भारतीय कंपनी टाटा ने विश्व की सबसे पतली वाटरप्रूफ घड़ी 'टाइटैन एज्ज' बनाकर दुनिया भर को चमत्कृत कर दिया। ऐसे अनेकोंनेक उदाहरण हैं जहां भारतीयों ने बेहतरीन आविष्कार किए हैं, बहुराष्ट्रीय प्रतियोगियों को पीछे छोड़ा है, लेकिन उनकी यशोगाथा कम ही गाई गई है। इन असाधारण आविष्कारकों का यशगान ही काफी नहीं है, वस्तुत: हमें यह समझना होगा कि दृढ़ निश्चय से सब कुछ संभव है, बड़े-बड़े आविष्कार संभव हैं। टाटा ने विश्व की सबसे सस्ती कार बनाकर दिखा दी, टाइटैन ने सबसे स्लिम वाटरप्रूफ घड़ी बनाकर दिखा दी, लेकिन यह तर्क दिया जा सकता है कि टाटा समूह के पास प्रतिभा, साधन और धन की कमी नहीं है। हां, यह सही है कि टाटा समूह के पास न प्रतिभा की कमी है और न ही धन की, लेकिन श्री सीके रंगनाथन और श्री वाराप्रसाद रेड्डी ने तो साधनों की कमी के बावजूद सिर्फ दृढ़ निश्चय के कारण अपना सपना पूरा कर दिखाया। सच तो यह है कि सपना महत्त्वपूर्ण है, सपना नहीं मरना चाहिए, सपना रहेगा तो पूरा होने का साधन बनेगा, सपना ही नहीं होगा तो हम आगे बढ़ ही नहीं सकते। सपना होगा तो हम सफल होंगे, समृद्ध होंगे, विकसित होंगे और अपनी सफलता का परचम लहरा सकेंगे।
ऐसे समय में जब कोरोना वायरस ने दुनिया को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया, फार्मास्युटिकल कंपनियों ने विश्व के अनेक देशों की सरकारों को ब्लैकमेल कर लिया, कई व्यवसाय बंद हो गए, लाखों नौकरियां चली गईं, तो 'जीतो दुनिया वैलबीइंग कंसल्टेंट्स' के सहयोग से कहानी लेखन महाविद्यालय, अर्थ प्रकाश और दि क्रिटिकल एज्ज जैसी कुछ संस्थाओं ने युवाओं को स्वरोजगार के काबिल बनाने का बीड़ा उठाया है ताकि वे अपने साथ-साथ अन्य लोगों के लिए भी रोजग़ार का सृजन कर सकें। इसी तरह महिलाओं की प्रसिद्ध पत्रिका गृहलक्ष्मी ने महिला जगत के लिए रोजग़ारपरक कार्यक्रमों की एक पूरी श्रृंखला की योजना बनाई है। इस अभियान की शुरुआत से ही इसे बहुत सराहना मिल रही है। उम्मीद करनी चाहिए कि देश भर में इस अभियान का प्रसार होगा तथा अन्य संस्थाएं भी इस तरह के कार्यक्रमों से युवाओं के लाभ के लिए आगे आएंगी। आज एक दीप जला है, कल दीपमाला होगी। लब्बोलुबाब यह कि संकटकालीन स्थिति को भी अवसर में बदलने का निश्चय चाहिए, सही सोच और दृढ़ निश्चय से सब कुछ संभव है। हमें इसी ओर काम करने की आवश्यकता है ताकि हम गरीबी से उबर कर एक विकसित समाज बन सकें। ये सारे उदाहरण यह सिद्ध करने के लिए काफी हैं कि देश के हम आम आदमी भी भारतवर्ष को ऐसा विकसित देश बना सकते हैं जहां सुख हो, समृद्धि हो, रोजग़ार हो और आगे बढऩे की तमन्ना हो। कौन करेगा यह सब? मैं, आप और हम सब। आमीन!
पी. के. खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
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