अनियोजित विकास के नतीजे

जब किसी इलाके में लोगों की बसावट हो जाती है तो धीरे-धीरे उनकी बस्ती में मूलभूत सुविधाओं का ढांचा खड़ा करने का प्रयास किया जाता है। जबकि होना यह चाहिए कि पानी, बिजली, गैस जैसी सुविधाओं की आपूर्ति और गंदगी के निकास का तंत्र पहले ही तैयार कर लिया जाए। इसके अभाव में बार-बार सड़कें खोदी जाती हैं और नई-नई समस्याएं खड़ी होती जाती हैं।

Update: 2022-09-29 04:36 GMT

अतुल कनक; जब किसी इलाके में लोगों की बसावट हो जाती है तो धीरे-धीरे उनकी बस्ती में मूलभूत सुविधाओं का ढांचा खड़ा करने का प्रयास किया जाता है। जबकि होना यह चाहिए कि पानी, बिजली, गैस जैसी सुविधाओं की आपूर्ति और गंदगी के निकास का तंत्र पहले ही तैयार कर लिया जाए। इसके अभाव में बार-बार सड़कें खोदी जाती हैं और नई-नई समस्याएं खड़ी होती जाती हैं।

इस वर्ष सितंबर के महीने में भी जिस तरह भारत के कई शहरों में मूसलाधार बारिश हुई है, उसने उन लोगों की आशंकाओं को और मजबूत किया है जो लगातार कहते रहे हैं कि यदि पर्यावरण प्रदूषण पर समय रहते काबू नहीं पाया गया तो आने वाले समय में दुनिया की बड़ी आबादी के लिए जीवन बहुत कठिनाइयों भरा होगा।

यदि विक्रमी कलेंडर के अनुसार देखें तो यह आश्विन का महीना है। ऐसा नहीं है कि आश्विन में वर्षा होती ही नहीं हो। बल्कि आश्विन के महीने में होने वाली बरसात को मोती कहा जाता है। लेकिन मोती कभी इस तरह नहीं बरसते कि सामान्य जन-जीवन ही अस्त-व्यस्त कर दें। दुर्योग से इस वर्ष आश्विन माह में होने वाली बरसात ने कई शहरों को ठप कर दिया। बंगलुरु से लेकर गुरुग्राम, दिल्ली, जयपुर और देहरादून तक इस बारिश से त्रस्त रहे। नदियां तो उमड़ी ही, सड़कों पर होने वाले जलजमाव ने ऐसी हास्यास्पद स्थिति पैदा कर दी कि लोग हाथों में लैपटाप लिए हुए अपने आफिस जाने के लिए घरों से निकले और उन्हें जेसीबी मशीनों या ट्रैक्टरों में बैठ कर अपनी मंजिल तक पहुंचना पड़ा।

यह दृश्य किसी छोटे शहर का नहीं, बल्कि आइटी हब कहलाने वाले शहर बंगलुरु में सामने आया। मौसम विज्ञानी पिछले कुछ सालों से ला नीना को सितंबर में होने वाली बारिश का कारण बता रहे हैं। ला नीना और अल नीनो जटिल मौसमी कारक हैं जो विषुवतीय प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में समुद्र के तापमान में भिन्नता के कारण घटित होते हैं। अल नीनो और ला नीना की घटनाएं आमतौर पर करीब एक साल चलती हैं, लेकिन कुछ घटनाएं इससे भी लंबे समय तक जारी रह सकती हैं। ला नीना स्पेनिश भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है- छोटी लड़की। जब पूर्वी प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में जल का तापमान सामान्य की तुलना में कम हो जाता है तो ला नीना का असर देखा जाता है।

दुनिया के अलग अलग देशों में इसका असर देखने को मिलता है। मौसम विज्ञानियों का मानना है कि ये हालात साल के आखिर तक रह सकते हैं, यानी सर्दी के मौसम में भी इस साल भारी बारिश की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। शहरी आबादी को भी इन दिनों मामूली बारिश में ही जिन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, वह विकास की किसी भी परिकल्पना के लिए अवांछनीय है। मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों की रफ्तार बारिश के कारण होने वाले जलजमाव के बाद ठहर-सी जाती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक मुंबई शहर को सन 2005 से 2015 के बीच बारिश के कारण चौदह हजार करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ। इसके अलावा तीन हजार लोगों की जान गई।

बंगलुरु इस बार की बारिश के कहर को शायद आसानी से नहीं भूल सकेगा, क्योंकि इस महानगर के ज्यादातर इलाकों में दफ्तर जाने वाले लोग और स्कूली बच्चे पानी में डूबी सड़कों को पार करने के लिए नावों और ट्रैक्टरों का इस्तेमाल करते देखे गए। भारत की सिलिकान वैली के नाम से मशहूर यह शहर इन दृश्यों के सामने खिसियाता हुआ सा नजर आया। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई ने इस आपदा का ठीकरा पिछली सरकारों के कुशासन पर फोड़ते हुए स्वीकार किया कि इस आपदा का एक कारण यह भी है कि महादेवपुरा नामक एक छोटे से क्षेत्र में उनहत्तर तालाब थे।

उनमें से अधिकांश या तो नष्ट हो गए या ज्यादा भर गए। उन्होंने पानी के प्रवाह में हुए अतिक्रमण को भी इस आपदा का मूल बताया। बंगलुरु में सन 1961 में दो सौ पचास से अधिक झीलें थीं। इनमें से अधिकांश एक विशेष निकासी व्यवस्था के जरिए आपस में इस तरह जुड़ी थीं कि इनके क्षेत्र में जमा पानी भरता नहीं था। लेकिन अब वहां सिर्फ पचासी झीलें ही रह गई हैं और उनके बीच जुड़ाव का तंत्र भी तहस-नहस हो गया है।

दरअसल, पुरानी झीलों या तालाबों का टूटना और पानी के प्राकृतिक बहाव वाले रास्ते में अतिक्रमण का होना केवल बंगलुरु शहर की समस्या नहीं है। भारत के अधिकांश शहरों को इन्हीं कारणों से सामान्य बारिश में भी जलजमाव की समस्या का सामना करना पड़ता है। अधिकांश शहरों की एक समस्या यह भी है कि वहां बस्तियों का नियोजन उनकी बसावट के पहले नहीं होता। जब किसी इलाके में लोगों की बसावट हो जाती है तो धीरे- धीरे उनकी बस्ती में मूलभूत सुविधाओं का ढांचा खड़ा करने का प्रयास किया जाता है। जबकि होना यह चाहिए कि पानी, बिजली, गैस जैसी सुविधाओं की आपूर्ति और गंदगी के निकास का तंत्र पहले ही तैयार कर लिया जाए। इसके अभाव में बार-बार सड़कें खोदी जाती हैं और नई-नई समस्याएं खड़ी होती जाती हैं।

देखने में आता है कि प्राकृतिक प्रवाह के विरुद्ध बहाव की दिशा वाले नाले जरा-सी बारिश में ही उफन पड़ते हैं। लगातार देखरेख के अभाव में निकासी के रास्ते बंद हो जाते हैं, क्योंकि नागरिकों द्वारा डाली जाने वाली गंदगी, विशेषकर प्लास्टिक कचरा नालियों को रोक देता है। इसी तरह बारिश का पानी सोखने वाली झीलों और मैदानों का अतिक्रमण कर लिया गया है। देश के अनेक शहरों की कुछ बस्तियों में तो ऐसा भी हुआ है कि बार-बार निर्माण के दौरान सड़क का स्तर इतना ऊंचा उठ गया कि वह घर की दहलीज के ऊपर चला गया। ऐसे में बारिश के समय जरा-सा पानी यदि सड़कों पर एकत्र होता है तो वह घरों में घुस जाता है। मुंबई जैसे महानगर की यह समस्या आम है।

इस समस्या का समाधान करने के लिए न केवल नगर नियोजन को सुधारना होगा, बल्कि आम आदमी को भी परिवेश और पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझना होगा। अल नीनो या ला नीना जैसी पर्यावरणीय घटनाएं मूल रूप से उस जलवायु परिवर्तन के कारण हैं जो दुनिया भर के मौसम तंत्र को प्रतिकूल रूप में प्रभावित कर रही हैं। इस साल जब भारत में वर्षा का मौसम था, तो यूरोप के कई देश झुलसा देने वाले तापमान का सामना कर रहे थे। स्थिति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इस तापमान में पिघलने से बचाने के लिए लंदन ब्रिज को ढांकना पड़ा था।

सरकारों को अपने नागरिकों के लिए सड़कों पर ऐसी फुहारों तक का इंतजाम करना पड़ गया जो गर्मी में पैदल चलते हुए उन्हें राहत दे सकें। ऐसी स्थिति से बचने के लिए समूची दुनिया को उस जीवनशैली से बचना होगा जो पर्यावरण में कार्बन सहित अन्य जहरीली गैसों का उत्सर्जन करती है। जलवायु परिवर्तन के लिए सारी दुनिया को संवेदनशील होना होगा। साथ ही सरकारों और प्रशासन को शहरों के बुनियादी ढांचों की सही बनावट के लिए भी जिम्मेदार बनना पड़ेगा।

अगर पचास टन भार वाली सड़क का निर्माण नौ टन भार के हिसाब से किया जाता रहा, तो जरा-सी बारिश में सड़कें दम तोड़ेंगी ही। अगर पुलों और सीवर प्रणाली के निर्माण के समय पानी के प्रवाह की दिशा का ध्यान नहीं रखा गया तो बारिश का पानी सड़कों पर जमा होगा ही। अगर बड़े बजट के बावजूद नालों की सफाई का काम इसलिए नहीं हो सका कि जिम्मेदार अधिकारियों ने समय पर उनकी सफाई की तरफ ध्यान नहीं दिया, तो बारिश के मौसम में बार बार सड़कों पर जलजमाव होगा ही और यदि तालाबों, झीलों पर होने वाले अतिक्रमणों को समय रहते नहीं रोका गया तो साफ्टवेयर इंजीनियर लैपटाप के साथ दफ्तर पहुंचने के लिए ट्रैक्टर पर सवार होने को मजबूर होंगे ही।

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