जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों को रिहा करने के लिए करनी होगी ठोस पहल
अखिल भारतीय जिला विधिक सेवा प्राधिकरण
अखिल भारतीय जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की पहली बैठक में प्रधानमंत्री ने कानूनी सहायता न मिलने के कारण जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों को रिहा करने की आवश्यकता पर जो बल दिया, उसकी सार्थकता तभी है, जब इस दिशा में कोई ठोस पहल होती दिखेगी। यह पहल इसलिए होनी चाहिए, क्योंकि एक आंकड़े के अनुसार कारागारों में बंद करीब छह लाख कैदियों में से विचाराधीन कैदियों की संख्या लगभग 80 प्रतिशत है।
स्पष्ट है कि बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो दोषी सिद्ध हुए बिना कारागारों में सड़ रहे हैं। इनमें से तमाम कैदी ऐसे भी हैं, जो उससे कहीं अधिक समय जेलों में काट चुके हैं, जो उन्हें दोषी करार दिए जाने पर काटना पड़ता। आखिर ऐसे सभी कैदियों को रिहा करने का कोई फैसला क्यों नहीं लिया जा सकता? क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि बिना दोषी साबित हुए लाखों लोग जेल में सड़ते रहें? इस विडंबना के लिए न्याय प्रक्रिया की सुस्ती जिम्मेदार है।
विभिन्न मंचों से यह तो बार-बार दोहराया जाता है कि समय पर न्याय न मिलना अन्याय है, लेकिन इस अन्याय को दूर करने के लिए जैसे प्रयास किए जाने चाहिए, वैसे होते नहीं दिखते। इसका प्रमुख कारण यह है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के लोग एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करते रहते हैं।
समय पर न्याय न मिलने और उसके नतीजे में लाखों विचाराधीन कैदियों के जेलों में बंद रहने की समस्या को न जाने कितनी बार रेखांकित किया जा चुका है, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला है। इसका कोई मतलब नहीं कि कार्यपालिका और न्यायपालिका न्यायिक क्षेत्र की समस्याओं का बार-बार उल्लेख तो करें, लेकिन समाधान निकालने के लिए तत्परता न दिखाएं। जैसे अभी अखिल भारतीय जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की बैठक में विचाराधीन कैदियों का विषय उठा, वैसे ही चंद दिनों पहले अखिल भारतीय कानूनी सेवा प्राधिकरण के एक कार्यक्रम में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि आपराधिक न्याय प्रणाली में कानूनी प्रक्रिया एक सजा है और कैदी अक्सर अनदेखे-अनसुने नागरिक बनकर रह जाते हैं।
उचित यह होगा कि सरकारें और अदालतें मिलकर ऐसे किसी तंत्र का निर्माण प्राथमिकता के आधार पर करें, जिससे न्याय प्रक्रिया को सुगम बनाने और समय पर न्याय देने का लक्ष्य हर हाल में प्राप्त किया जा सके। इसके लिए तारीख पर तारीख के सिलसिले को खत्म करने के साथ ही अंग्रेजों के जमाने के उन नियम-कानूनों में संशोधन-परिवर्तन करने होंगे, जिनके चलते मुकदमे वर्षों तक खिंचते रहते हैं।
दैनिक जागरण के सौजन्य से सम्पादकीय