By: divyahimachal
दिल्ली की जिन शर्तों पर हिमाचल की आर्थिक बेडिय़ां कराह रही हैं, उनके आंचल में बैठे इस प्रदेश को काश! नजदीक से देखा होता। हिमाचल को दिखाने या दिल्ली से मिलाने का काम पथ परिवहन निगम बाखूबी कर रहा है। हर रोज एक हिमाचल, दिल्ली की ओर निकलता है, लेकिन बहुत सारा लौटता नहीं, क्योंकि केंद्र का बर्ताव आज तक हमारे भीतर एक स्थायी विस्थापन कर रहा है। पहले हम कोसते थे कि हमारा पानी और जवानी काम नहीं आती, अब तो ईमानदारी और भोलेपन की नादानी भी काम नहीं आती। कभी लौट के दिल्ली अगर एचआरटीसी की बस में आए, तो हिमाचल के रास्ते बता देंगे कि पहाड़ की जिद्द और जिरह कैसे संघर्ष के पड़ाव हैं। कितनी सर्द सदियां यहां से गुजरी होंगी तब कहीं यह प्रदेश अस्तित्व में आया और दिल्ली के हुक्मरानों से मुलाकात कर पाया। इसी सर्द आंचल में एक अनूठा सफर लेह से दिल्ली को जोडक़र बताता है कि एक ही आकाश की छत के नीचे कितने जहां गुजर जाते हैं। दुनिया के सबसे लंबे यानी 1026 किलोमीटर सफर पर दिल्ली को लेह तक ले जाने की प्रतिज्ञा से बंधी हिमाचल की सरकारी बस सिर्फ यात्रा नहीं कर रही, यात्रा की बुनियाद पर भौगोलिक और मौसम की विषमताओं की एक सदाबहार कहानी भी ढो रही है। यह पर्वतीय दुुरूहता की प्रतीक बनी बस सेवा एक ही रूट पर अतीत को वर्तमान से मिलाना चाहती है। लेह से रोहतांग तक देश का अतीत राष्ट्र की नई प्राथमिकताओं के साथ भागना चाहता है। यह रोहतांग से नेरचौक तक बदलते हिमाचली परिदृश्य में बदलाव देखता है, लेकिन दिल्ली पहुंचते ही देश की सरकार के वर्तमान में अपना भविष्य देखना चाहता है।
जिस दिन दिल्ली से निकली हिमाचल की यह बस आधुनिक भारत को वापसी में ले आई, मालूम हो जाएगा कि तीस घंटे के सफर में कितने मोड़, कितने खतरे, कितने अवरोध, कितने मौसम और कितने पड़ाव पार करने पड़ते हैं। हिमाचल में विकास एक साहस है और इसीलिए वित्तीय प्रबंधन पहाड़ खोदने जैसे अप्रत्याशित मजदूरी तथा मुकद्दमों की तरह हर सतह पर संघर्षशील है। दिल्ली अगर हिमाचल की लेह जाती बस की यात्रा को समझ ले, तो मालूम हो जाएगा कि क्यों पर्वतीय राज्यों को केंद्र से वित्तीय उदारता चाहिए। जैसे ही दिल्ली-लेह बस को हिमाचल से लांघना पड़ता है, सडक़ के हर किलोमीटर पर चार गुना खर्च बढ़ जाता है। हिमाचल के हर मील को मापना मुश्किल है। जिन नदियों का पानी मैदान को मुफ्त चाहिए, उनके ऊपर से गुजरना सिर्फ रूह को ही नहीं कंपकपाता, बल्कि हर पुल हमारे बजट को निगल जाता। कभी देखना हिमाचल का हिमाचल के ही पानी के साथ संघर्ष। बाढ़ आए तो भगाए और बर्फ आए तो दबाए तथा गहरी होती नदी के ठीक ऊपर जिस ढलान पर हम सीढ़ीनुमा खेत में अनाज उगाते हैं, उसे पानी नहीं मिलता। हम जिसे बोते हैं, उसे काटना मुश्किल और जिसे काटना चाहते हैं, वही जंगल नसीब में नहीं। आजादी के बाद देश ने जो सोचा, जो किया, उसका भागीदार पर्वत सिर्फ विस्थापन की आहों में बना। हमने भाखड़ा बांध से मैदान को बाढ़ से बचाया, वहां के किसान को बिजली आपूर्ति से आगे बढ़ाया, लेकिन जब राज्य ने हक मांगा तो बीबीएन की तासीर बदल गई। शानन ने सौ साल हमारी जमीन दबा के रखी ताकि उसकी लीज पर मैदान का अधिकार रहे, लेकिन अब यह कैसा संघर्ष जिसकी वकालत हमारे चूल्हे या हमारे घर से नहीं हो सकती। हमारे सारे मामले उसी दिल्ली में जहां हम भी बैठ कर पहुंच जाते, सिर्फ एक यात्री बन कर। खुद को पहाड़ की वेदना से दूर ले जाकर भी अगर दिल्ली को नहीं बता पाए, तो यह हमारी भी कमजोरी रही। बरहाल एक रूट को दिल्ली तक पहुंचाने में ही अगर तीन बसें, तीन ड्राइवर और दो परिचालक लग जाते हैं, तो एक पूरे राज्य की बात को वहां तक पहुंचाने के लिए कितने मशक्कत चाहिए। हिमाचल के आर्थिक संघर्ष में तमाम पर्वतीय राज्यों का भविष्य भी नत्थी है, इसलिए पहाड़ को अपनी बात कहने की भाषा बदलनी होगी। यह इसलिए भी कि दिल्ली से लेह तक पहुंचती बस भी मैदानी, हल्के पहाड़ी और दुर्गम पहाड़ी इलाकों से गुजरते हुए आवाज बदलती है। आवाज बदलना भी कई बार चलने की सूचना है अत: केंद्र से गुजारिश रहेगी कि एक बार बस के बहाने पर्वत के आर्थिक ठिकाने देख ले। जून से शुरू हुई यह बस केवल सितंबर तक ही दिल्ली से जुड़ पाएगी, यानी बाकी आठ महीने कहीं अकेला पहाड़ कराहता रहेगा, उस बर्फ के नीचे जो अपने होने की सजा पर्वतीय परिवेश को देती है, लेकिन पिघलने के सारे पुरस्कार मैदान को सौंप देती है।