70 साल बाद चीते भारत में दिखाई दिए, और वह भी प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर, प्रधानमंत्री के साथ जन्मदिन मनाते हुए, और यह भी कि प्रधानमंत्री ने खुद नामीबिया से चीतों को भारत लाकर मध्यप्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में बसाया है। बना न इतिहास!! ऐसे बनता है इतिहास, और यहां तो रोज-रोज ही बनाए जा रहे हैं इतिहास। आपने नहीं देखा, 'राजपथÓ को 'कत्र्तव्यपथÓ बनाकर अभी-अभी तो इतिहास बनाया गया। इतने इतिहास बनाए जा रहे हैं कि गिनने की फुर्सत नहीं है कि कौनसा इतिहास कहां से निकला और कब बे-इतिहास होकर, इतिहास के गर्त में समा गया! इतिहास के साथ यही परेशानी है। जिसके काल में वह बना दिखाई देता है, उसी के काल में बनता नहीं है। इतिहास की जंजीर काल के सातत्य से ही बनती है। अब इन चीतों की बात ही लीजिए। वर्ष 2010 में, तब की सरकार ने चीतों के देश से विलुप्त होने की बात पर ध्यान दिया था और बाहर से चीतों को भारत लाकर बसाने की योजना बनाई थी। गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश से जुड़ी जंगलों की वह पट्टी भी तभी चुनी गई थी जिसमें कूनो भी आता है। अब चीते भले बिजली की गति से दौडऩे वाले प्राणी हों, सरकारी योजनाएं तो कछुए की गति से भी चलें तो तेज मानी जाती हैं। सो अब जाकर चीते आए हैं। सच्चा इतिहास तो तब बनता न, जब यह सारा इतिहास देश के सामने रखा जाता, लेकिन इतिहास के नए चीते इतनी सच्ची-सरल चाल कैसे चलें? तो ऐसी तस्वीर बनाई जा रही है मानो सारा कुछ चीते की चाल से 2014 से ही दौडऩे लगा है। ऐसी अंधी दौड़ में यह जरूरी सवाल न कोई पूछ रहा है, न कोई बता रहा कि अपने देश से चीते लुप्त हुए ही क्यों? अभी दूसरे लुप्त व लुप्तप्राय प्राणियों-पौधों की बात नहीं करता हूं, लेकिन एशियाई चीतों की हमारे यहां अच्छी 'फसलÓ होती थी। कहा यह जा रहा है कि कोरिया (छत्तीसगढ़) रियासत के महाराज रामानुज प्रताप सिंहदेव ने 1947 में उन तीन चीतों का शिकार कर डाला था जो भारत में चीतों के आखिरी वंशज थे, लेकिन क्या यही अंतिम सच है? भारत सरकार ने 1952 में कबूल किया था कि अब भारत में कोई एशियाई चीता नहीं बचा है।
तो कोई पूछे तो कि 1947-52 तक भारत सरकार क्या कर रही थी? और उससे पहले क्या कर रही थी, और उसके बाद क्या करती रही? चीता बहुत तेजी से भले भागता हो, लेकिन है बेहद नाजुक प्राणी, बिल्ली-परिवार के विशालकाय व खतरनाक 7 सदस्यों में चीता ही है जो मनुष्यों पर हमलावर नहीं होता, जंगल में भी बहुत बच-छिपकर रहता है, पालतू बनाया जाता रहा है और घने घास-झाड़ी-झंखाड़ से जुड़े जंगल जिसका सहज निवास हैं। सरकार आज जिसे चीख-चीखकर विकास कहती है, जिसका घटाटोप सब तरफ दिखाई देता है, उस विकास की तेज आंधी में सबसे पहले ऐसे ही जंगलों का विनाश हुआ। चीतों के स्वाभाविक घर नहीं रहे तो उनका छिपना-बचना कठिन होने लगा। उस पर से राज-परिवार के, सरकारी-परिवार के कानूनी व पेशेवर, गैर-कानूनी शिकारी भी उनके पीछे पड़े ही थे। चीते इनसे तेज नहीं दौड़ सके, तो दम तोड़ गए। विकास की वही अवधारणा आज भी चल रही है, तो चीते नामीबिया से लाएं कि दक्षिण अफ्रीका से, वे बचेंगे कैसे, फले-फूलेंगे कैसे? प्रधानमंत्री को यदि इतनी फुरसत है कि वे चीतों को जंगल में छोडऩे व उनका फोटो खींचने में वक्त लगा सकें, तो उन्हें थोड़ा वक्त यह सोचने पर भी लगाना चाहिए कि चीते के साथ तालमेल बिठाकर चलने वाला विकास का मॉडल क्या हो सकता है और कैसे चलाया जा सकता है? तब उन्हें यह रहस्य भी समझ में आएगा कि सहज मानवीय ऊष्मा से भरा इनसान ही प्रकृति को भी बचा व संवार सकता है। उस इनसान के संरक्षण का कौनसा पार्क है हमारे यहां? ऐसा ही मामला 'कत्र्तव्यपथ का भी है।
उस दिन भी कहा गया कि हम दासता के इतिहास से मुक्त हो, एक नए इतिहास का सृजन कर रहे हैं, क्योंकि हम 'राजपथ का साइनबोर्ड बदलकर 'कत्र्तव्यपथÓ का साइनबोर्ड लगा रहे हैं। साइनबोर्ड बदलने का यह खेल नया नहीं है। इसका इतिहास और वर्तमान भी उलटकर देखना चाहिए। सड़कों-नगरों-संस्थानों-विभागों आदि-आदि के नाम बदलने की दिशाहीन आंधी ही देश में बहाई जा रही है जिसमें इतिहास, परंपरा, जनबोध सभी बहे जा रहे हैं। सत्ता के जोर पर वक्त की कठपुतलियों को वक्त का जादूगर बताकर स्थापित करने की कोशिश देश का इतिहास-बोध धुंधला व विस्मृत कर रही है। औपनिवेशिक दासता के मानसिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक चिन्हों से मुक्त होने की तुमुल आवाज जिसने सिर्फ उठाई ही नहीं थी, बल्कि मुक्ति की उस दिशा में देश को साथ लेकर जो चल पड़ा था, उस महात्मा गांधी की हत्या करने का 'पुण्य कत्र्तव्यÓ किसने निभाया था? वह इतिहास भले आप याद न करिए, यह सावधानी तो रखिए कि उस हत्या का, उस हत्यारे का व उस हत्यारी मानसिकता का महिमामंडन न हो! लेकिन परेशानी यह है कि उस हत्या से चला इतिहास सीधा आप तक पहुंचता है तो क्यों? आप उसे गले लगाते हैं तो क्यों? आपके यहां उनके मंदिर बनते हैं तो क्यों? जब वे ही लोग आपके सांसद-विधायक हैं, तो आप संविधान व इतिहास के साथ खड़े कैसे हो सकते हैं? आपका सारा शासन उसी औपनिवेशिक दासता के पदचिन्हों पर पांव धर-धर कर चलता है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मंत्रिमंडल की सारी अवधारणा व उसका सारा तामझाम दासता के पदचिन्हों को चूमता ही तो है। मुक्ति मन से होती है, तब तन पर, व्यवहार में दिखाई देती है। जिस छतरी पर किंग जार्ज की प्रतिमा स्थापित थी, उसी छतरी पर नेताजी सुभाष की प्रतिमा की स्थापना, और वह भी फौजी लिबास में, किस मानसिकता का प्रतीक है? वह फौजी लिबास नेताजी का सामान्य लिबास नहीं था, एक दौर का लिबास था, जैसे गांधी भी एक दौर में टाई-सूट में मिलते हैं।
देश नेताजी को इस रूप में तब पाता है जब वे आजादी की हमारी सामूहिक लड़ाई से उकताकर निकले थे और दूसरी औपनिवेशिक ताकतों से जा मिले थे। तब गांधी ने उनसे यही तो पूछा था कि एक औपनिवेशिक ताकत से जूझते हुए हम दूसरी औपनिवेशिक ताकत को गले लगाएं यह कैसी बुद्धिमत्ता है? सुभाष न तब उसका जवाब दे सके थे, न बाद में ही। उनकी उस चूक को आज हम जनमानस में स्थापित कर क्या किसी आजाद मानसिकता का परिचय दे रहे हैं? युद्धों को आल्हादकारी बनाने वाला राष्ट्रीय समर स्मारक संस्कृति का नहीं, विकृति का प्रतीक बन जाता है क्योंकि उसमें से वीरता व बलिदान का संदेश नहीं मिलता, न युद्ध के अंत की लालसा पैदा होती है। भारत राष्ट्र का मान तो कल्याण व बलिदान से भरा बनाना है। सत्ता-तालियां-उन्माद-जयजयकार-चाटुकारिता आदि से ऊपर उठकर जो हासिल होता है, उसे विवेक कहते हैं। स्वतंत्र मन का गहरा नाता इसी विवेक से होता है। व्यक्ति और समूह में वह विवेक खोता जा रहा है। विवेकहीनता न दासता से मुक्ति है, न आजादी का सयानापन है। विवेकहीनता गुलामी का ही दूसरा नाम है। मनुष्यों का अपमान-तिरस्कार होता रहे और हम चीतों के स्वागत में खड़े हो जाएं, तो यह विवेकहीनता का चरम है। नामीबिया के चीते भारत के कूनो में फलें-फूलें और हमें विवेकवान बनाएं, आज तो हम इतनी ही प्रार्थना कर सकते हैं।
कुमार प्रशांत
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal