करिश्मा कुदरत का

Update: 2023-05-11 15:42 GMT
सन् 2020 की भयानक वैश्विक महामारी कोरोना ने सारे संसार को घुटनों पर ला दिया। कई बिजनेस बंद हो गए, नौकरियां खलास हुईं और वेतन घट गए। इस महामारी से कोई उद्योग, कोई व्यवसाय और कोई व्यक्ति अछूता नहीं रहा और बहुत से परिवारों के मुखिया या कमाने वाले हाथ भगवान को प्यारे हो गए। उस कठिन दौर में हमारे देश में चिकित्सा जगत से जुड़े लोगों ने अथक मेहनत की, लोगों की बातें सुनीं, पर अपना काम करते रहे। यह हमारा सौभाग्य था कि अंतत: देश में ही बनी वैक्सीन कारगर सिद्ध हुई और कोरोना पर लगाम लगने की प्रक्रिया शुरू हो सकी तथा हमें विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामने झुकना या गिड़गिड़ाना नहीं पड़ा। बीमारी हो, दुर्घटना हो, चोट हो, चिंता हो या अवसाद हो, यानी परेशानी शारीरिक हो या मानसिक, चिकित्सा जगत हमारी सेवा में उपलब्ध है। तकनीक में हो रही उन्नति का लाभ हम सबको मिलता ही है और चिकित्सा जगत में भी नई तकनीक, नए शोध, नए उपकरणों ने चिकित्सा को आसान और सहज बनाया है। परेशानी सिर्फ इतनी सी है कि एक अस्पताल बनाने पर सैकड़ों करोड़ रुपए लग जाते हैं और इतनी अधिक लागत से बने अस्पताल को चलाना भी खर्चीला काम है। परिणाम यह है कि इलाज लगातार महंगा होता जा रहा है। दूसरी समस्या नैतिकता की है। यह किसी से छुपा नहीं है कि बहुत से प्रतिष्ठित अस्पताल भी मरीजों के साथ दुव्र्यवहार करते हैं, जानबूझकर गलत सलाह देते हैं, फालतू के टैस्ट लिखते हैं, मरीज की मृत्यु के बाद भी बिल बनाते रहते हैं और बहुत से डाक्टर कमीशन के चक्कर में जानबूझकर महंगी दवाइयां लिखते हैं, गैरजरूरी टैस्ट करवाते हैं और गलत इलाज करते चलते हैं।
कई मामलों में ऐलोपैथी के मुकाबले में प्राकृतिक चिकित्सा न केवल ज्यादा प्रभावी है, बल्कि बहुत सस्ती भी है, तो भी अभी ज्यादातर लोगों का रुझान इस तरफ नहीं हुआ है। यह एक शुभ संकेत है कि योग का प्रसार धीरे-धीरे बढ़ रहा है जिससे अंतत: बहुत सी बीमारियों की रोकथाम हो सकेगी। योग और प्राकृतिक चिकित्सा के मेल से हम एक स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। जंक फूड का प्रचलन इस दिशा में एक बड़ी अड़चन है। चिंताजनक तथ्य यह है कि जंक फूड के बढ़ते जाने, सही तरह से भोजन न करने और गलत जीवनशैली के कारण आज शहरों में पैदा होने वाले 95 प्रतिशत बच्चे रोगी पैदा हो रहे हैं और इस तरफ किसी का ध्यान है ही नहीं। आधुनिक जीवन में भागदौड़ बढऩे, हमेशा काम में लगे रहने तथा परिवारों में भी आपसी समझ घटने के कारण समाज में तनाव बढ़ता चल रहा है। एक सर्वेक्षण में पता चला कि हर सात में से एक भारतीय मानसिक विकारों अथवा मानसिक व्याधियों से परेशान है। तनाव खुद कई बीमारी की जड़ है। लेकिन आम जनता ही नहीं, पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी लोग भी तनावग्रस्त पाए जाते हैं। इसी तरह आर्थिक संपन्नता के बावजूद, धनवान और साधन-संपन्न होने के बावजूद, सुख-सुविधाएं होने के बावजूद लोगों में तनाव बढ़ रहा है क्योंकि हमारी शिक्षा में तनाव से निपटने के साधनों का जिक्र न के बराबर है। इसके बहुत भयंकर परिणाम हो रहे हैं। परेशानी तब और बढ़ जाती है जब हम देखते हैं कि किशोर वय से ही तनाव बढऩा शुरू हो जाता है और जब लावा फूटता है तो बहुत कुछ नष्ट हो जाता है। जनसामान्य को मनोवैज्ञानिकों और मनोचिकित्सकों की सेवाओं के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है।
जनसामान्य की बात तो छोडि़ए, चिकित्सा जगत से जुड़े लोग भी तनावग्रस्त होने के बावजूद अक्सर मनोवैज्ञानिकों अथवा मनोचिकित्सकों के पास जाने से परहेज करते हैं या फिर तनाव के बावजूद तनाव की स्थितियों से निपटने के बजाय इसकी उपेक्षा करते चलते हैं। यही नहीं, चिकित्सा विज्ञान की जो सीमाएं हैं, वैसी ही सीमाएं मनोवैज्ञानिकों और मनोचिकित्सकों की भी हैं क्योंकि वे अक्सर अवचेतन मन तक नहीं पहुंच पाते और या तो उनके पास आने वाले रोगियों का इलाज अधूरा होता है या अस्थायी होता है। कई बार रोगियों की परेशानियां फिर-फिर उभर आती हैं। बहुत से रोगियों के इलाज से यह सिद्ध हुआ है कि मानसिक विकारों और मानसिक व्याधियों के इलाज के लिए ब्रेन-वेव एक्टीवेशन पद्धति बहुत कारगर है, यह एक प्राचीन भारतीय पद्धति है जो मानो कुदरत का करिश्मा ही है, पर अभी इसे चिकित्सा जगत ने नहीं अपनाया है क्योंकि इसके बारे में पूरी जानकारी नहीं है, इस पद्धति के सभी परिणाम विज्ञान की पकड़ में नहीं आते और विज्ञान के अहंकार में डूबा चिकित्सा जगत इसके महत्व से अनजान है या इसे ढोंग बताकर इससे मुंह चुराता है। ब्रेन-वेव एक्टीवेशन पद्धति में रोगी के अवचेतन मन को जगाकर भूली-बिसरी यादों को समझा जाता है, अवचेतन मन में कहीं गहरी दबी हुई वेदना का विश्लेषण होता है। इससे रोगी खुद अपने इलाज में थैरेपिस्ट के साथ हो लेता है जिससे रोग का निवारण आसान और स्थायी हो जाता है। मनोविकारों और मानसिक व्याधियों के निराकरण में तो यह पद्धति प्रभावी है ही, नशा छुड़ाने तथा खराब आदतें बदलने के अलावा, बहुत सी शारीरिक व्याधियों के निराकरण में भी इससे लाभ होता देखा गया है। यही कारण है कि मैं इसे कुदरत का करिश्मा कहता हूं क्योंकि इस पद्धति में खुद रोगी ही अपने इलाज में सहायक हो जाता है।
समझने की बात यह है कि सभी रोगों के निवारण के लिए सिर्फ किसी एक पद्धति पर ही निर्भर रहना संभव नहीं है। ऐलोपैथी जहां रोग को समझने और रोग को डायगनोज़ करने में ज्यादा प्रभावी है, वहीं बीमारियों से तुरंत राहत और हार्ट-स्ट्रोक, ब्रेन-स्ट्रोक तथा दुर्घटनाओं के समय हमें ऐलोपैथी का सहारा लेना ही पड़ता है, अन्यथा आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति, प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति और चुंबकीय चिकित्सा पद्धति, एक्यूप्रेशर, एक्यूपंक्चर, ब्रेन-वेव ऐक्टीवेशन थैरेपी सरीखी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां इलाज में कहीं ज्यादा प्रभावी हैं। इसके साथ ही यह भी एक बड़ा सच है कि विश्व भर में मौतों का तीसरा सबसे बड़ा कारण यह है कि लोग इलाज के लिए किसी ऐलोपैथ डॉक्टर के पास गए। यह मैं नहीं कह रहा, अलग-अलग समय पर अलग-अलग डॉक्टरों ने खुद इसे स्वीकार किया है। ऐलोपैथी सिस्टम में बीमारियों का इलाज करने के बजाय बीमारियों को दबाने का काम ज्यादा होता है, इसलिए अपनी सभी उपलब्धियों के बावजूद सिर्फ ऐलोपैथी पर भरोसा काफी नहीं है। प्राणायाम और योग के साथ ब्रेन-वेव ऐक्टीवेशन से मनोविकारों का निराकरण सर्वाधिक उपयोगी प्रतीत होता है। ब्रेन-वेव ऐक्टीवेशन पद्धति से मनोविकारों के निराकरण के कारण बहुत सी शारीरिक बीमारियों से भी बचा जा सकता है और ब्रेन-वेव ऐक्टीवेशन इसमें सर्वाधिक प्रभावी और उपयोगी विधि है। यदि हम अपने देश को सचमुच एक स्वस्थ राष्ट्र के रूप में विकसित होते देखना चाहते हैं तो हमें आज से ही, अभी से ही प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धतियों की स्वीकृति और विकास पर ध्यान देना होगा, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को अपनाना होगा।
पी. के. खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
ई-मेल: indiatotal.features@gmail.com
By: divyahimachal
 

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