बदलते दौर की मार
भारत में लोग अंदाजा लगाने में बहुत माहिर हैं। फिर चाहे वह किसी के बात करने के तरीके से उसकी मानसिकता का पता लगाना हो या फिर किसी के कपड़े पहनने के तरीके से उसके चरित्र का।
Written by जनसत्ता: भारत में लोग अंदाजा लगाने में बहुत माहिर हैं। फिर चाहे वह किसी के बात करने के तरीके से उसकी मानसिकता का पता लगाना हो या फिर किसी के कपड़े पहनने के तरीके से उसके चरित्र का। यहां चीज को पल भर में परख लेने का दावा किया जाता है। पर एक सवाल जिसका अंदाजा इतने सालों से कोई नहीं लगा पाया है, वह है कि आखिर हमारा नेता कैसा हो। इस कथन पर पूरे देश की व्यवस्था टिकी है।
भारत में प्रत्येक वर्ष चुनाव प्रक्रिया दोहराई जाती है, पर देश की समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहती हैं। किसी भी नेता को चुनने से पहले लोग एक दूसरे से अपने विचार साझा करते हैं। या ये कहें कि वे इतना अधिक सोचने लगते हैं कि निर्वाचित व्यक्ति उन आकांक्षाओं पर खरा उतरना तो दूर, लोगों की समस्याओं के बारे में सोचता तक नहीं। हम कह सकते हैं,कि उस हवा-हवाई कुर्सी पर बैठने के बाद व्यक्ति उस कुर्सी से जुड़े अपने कर्तव्य भूल जाता है। वह कुर्सी से पहले के अपने जीवन को भूल जाता है, जहां उसकी भी एक आम आदमी की तरह देश की स्थिति को सुधारने के प्रति तमाम इच्छाएं होती है।
आजादी के इतने साल बीत गए पर भारत में आज भी लोग रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। आज देश सिर्फ वर्चस्वशाली लोगों के लिए ही डिजिटलीकरण के पथ पर चल रहा है। गरीब व्यक्ति आज भी वही जिंदगी व्यतीत कर रहा है, जो वह सालों पहले करता था। क्या आपको नहीं लगता कि इतने सालों में देश की इस तस्वीर को बदला जा सकता था?
आज देश में राजनीतिक व्यवस्था का स्थान धार्मिक व्यवस्था लेती जा रही है, जहां लोकतंत्र का कानून नहीं, बल्कि धर्म का कानून चलता है। वर्तमान समय में देश की जो तस्वीर बनती जा रही है, वह हर व्यक्ति के अंदाजे से परे है। ऐसे में देश के सिर्फ एक व्यक्ति के विचारने या कोशिश करने से देश की स्थिति में बदलाव नहीं लाया जा सकता है, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को यह सोचने की जरूरत है कि वह जनता के लिए नेता चुन रहा है या राजनीति के लिए राज नेता।