संसद सत्र की चुनौतियां

लोकतन्त्र में संसद किसी भी हालत में तब खामोश नहीं रह सकती जब सड़कों पर कोहराम मचा हुआ हो

Update: 2021-07-19 17:09 GMT

आदित्य चौपड़ा। आज से संसद का वर्षाकालीन संक्षिप्त सत्र शुरू हो रहा है जो केवल 13 अगस्त तक चलेगा अतः प्रत्येक सांसद की यह जिम्मेदारी है कि वह इसकी बैठकों के माध्यम से देश की जनता की समस्याओं के निवारण के लिए ठोस प्रयास करे। लोकतन्त्र में संसद किसी भी हालत में तब खामोश नहीं रह सकती जब सड़कों पर कोहराम मचा हुआ हो और चारों तरफ समस्याओं से लोग जूझ रहे हों। अतः देश की संसद को निरपेक्ष भाव से राष्ट्रीय परिस्थितियों का जायजा लेते हुए लोगों को राहत प्रदान करने के प्रावधानों के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। संसद केवल विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच वाद-विवाद का स्थल नहीं होती है बल्कि जन हित में फैसले करने का सबसे बड़ा मंच होती है। इसके माध्यम ही सत्तारूढ़ सरकार की जवाबदेही और जिम्मेदारी तय होती है और जरूरत पड़ने पर जवाबतलबी भी होती है परन्तु यह भी सच है कि सत्ता और विपक्ष की खेमेबाजी के दौरान देश की यह सबसे बड़ी पंचायत लाचारगी की हालत में भी पहुंचती दिखाई पड़ जाती है। फिलहाल देश कोरोना के संक्रमण काल से गुजर रहा है अतः सबसे बड़ी जरूरत यह है कि संसद में सभी कोरोना से निपटने की वह पुख्ता नीति तय हो जिससे चालू वर्ष के दौरान प्रत्येक वयस्क नागरिक को वैक्सीन देकर संक्रमण की भयावहता को टाला जा सके।


इस सन्दर्भ में ऐसा पक्का खाका संसद के माध्यम से आम लोगों तक पहुंचना चाहिए जिससे प्रत्येक नागरिक आश्वस्त हो सके कि सरकार ने कोरोना पर काबू करने के लिए पूरी तैयारी मय आंकड़े के साथ कर ली है। इस बारे में किसी भी प्रकार के भ्रम या गफलत की स्थिति नहीं रहनी चाहिए। इसके साथ ही अब समय आ गया है जब भारत को अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को ग्रामीण स्तर से मजबूत बनाना चाहिए और इस मद के खर्च में गुणात्मक वृद्धि करके गरीब से गरीब आदमी की चिकित्सा का पुख्ता प्रबन्ध करना चाहिए। बेशक यह बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर है और हर समस्या निवारण में निजी क्षेत्र की भागीदारी का चलन है मगर स्वास्थ्य व शिक्षा ऐसे क्षेत्र होते हैं जिनकी जिम्मेदारी उठाने से कोई भी लोकतान्त्रिक सरकार बच नहीं सकती क्योंकि इस व्यवस्था में भी सरकार गरीबों के लिए ही होती है। इस सन्दर्भ में हमें सबसे पहले देश की अर्थव्यवस्था की तरफ देखना होगा क्योंकि कोरोना संक्रमण की लहरों के चलते सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव गरीब व निम्न मध्यम वर्ग की जनता पर ही पड़ा है। इस वर्ग की क्रय शक्ति घट कर बहुत कम हो गई है और इसके रोजगार के साधन चौपट हो गये हैं तथा बेरोजगारी बढ़ चुकी है। जबकि सामान्य बढ़ती महंगाई ने इसकी कमर तोड़ कर रख दी है। यह महंगाई ईंधन से लेकर दैनिक आवश्यक उपभोग की सामग्री तक बढ़ी है। अतः इस मोर्चे पर फतेह पाना संसद का पहला उद्देश्य होना चाहिए। यह मुद्दा केवल वाद-विवाद का नहीं है बल्कि समयानुरूप फैसले लेने का है।

संसद राज्यों की सरंक्षक भी है और जब हम भारत के विभिन्न राज्यों की तरफ नजर दौड़ाते हैं तो सर्वत्र बेचैनी का आलम देखने को मिलता है। मध्य प्रदेश में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं से लेकर नर्सों का आन्दोलन चल रहा है तो उत्तर प्रदेश की सड़कों पर महिलाओं का खुलेआम चीरहरण हो रहा है और बन्दूक की नोक पर पंचायत चुनावों के नामांकन पर्चे छीने जा रहे हैं। तीसरी तरफ किसानों का आन्दोलन पिछले सात महीने से राजधानी के दरवाजे पर चल रहा है।

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कोरोना काल में भी किसानों ने अपनी फसलों का उत्पादन बढ़ा कर देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ को टूटने नहीं दिया है मगर तीन नये कृषि कानूनों को लेकर इनका विरोध जारी है। इस मामले में जिद किसी भी तरफ से अच्छी नहीं है। क्योंकि लोकतन्त्र कभी भी 'जिद' से नहीं बल्कि 'जियारत' से चलता है। लोगों की जियारत करना ही लोकतान्त्रिक सरकारों का धर्म होता है जिसमें आसानी से जायज और नाजायज का भेद प्रकट हो जाता है। किसान आन्दोलन के साथ भी यही शर्त लगी हुई है कि उनकी मांगें जायज हैं या नाजायज हैं। इस भेद को हम जनता के मिजाज से बड़ी आसानी से समझ सकते हैं। मगर संसद जिम्मेदारी यह है कि वह इस बारे में राष्ट्रीय दृष्टिकोण से काम करे और राज्यसभा में पारित इन कानूनों की तर्ज पर आम जनता में यह सन्देश न जाने दे कि वह अपना कोई फैसला जनता या किसानों पर लाद रही है। क्योंकि यह प्रश्न अभी तक खुला हुआ है कि राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने जिस प्रकार इन तीन कानूनों को पारित कराने की विधि अपनाई वह संसदीय नियमों पर खरी नहीं उतरती थी। किसी भी तौर पर यह भविष्य की नजीर नहीं बननी चाहिए क्योंकि एक व्यक्ति की हिमाकत पूरे लोकतन्त्र को प्रदूषित नहीं कर सकती। हमारी संसद तभी लोकतन्त्र में सर्वोच्च कहलाती है जब यह अपने ही बनाये गये नियमों का शुचिता के साथ पालन करती है। मगर अगर हम संसद में बैठे राजनीतिक दलों की हालत देखें तो वह भी बहुत निराशा पैदा करने वाली लगती है। कहने को कांग्रेस विपक्षी पार्टी है मगर जिन राज्यों में वह सत्ता में है उनमें आपस में ही इसमें सिर फुटव्वल का वातावरण बना हुआ है। पंजाब में कांग्रेस पार्टी नवजोत सिंह सिद्धू की 'हास्य नाटिका' में इस तरह फंस चुकी है कि इसने मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह को ही जोकर की तरह पेश कर दिया है। सिद्धू वह व्यक्ति है जो कल तक भाजपा मे रहते हुए कांग्रेसी नेताओं को पानी पी-पीकर कोसा करते थे। ठीक इसी तरह कर्नाटक में मुख्यमन्त्री बी.एस. येदियुरप्पा अपने नये-नये भ्रष्टाचारी कारनामों से अपनी पार्टी भाजपा के शीर्षस्थ नेताओं की नींद हराम किये हुए हैं। कहने का मतलब यह है कि कांग्रेस व भाजपा दोनों ही अर्न्तद्वंद्वियों से जूझती हुई दिखाई पड़ रही है जिसका असर उनकी सकल राष्ट्रीय भूमिका पर पड़ता दिखाई पड़ रहा है। लोकतन्त्र का राजनीतिक मूलक शासनतन्त्र तभी सफलता के साथ काम करता है जब इसे चलाने वाले राजनीतिक दल अपने भीतर मर्यादित वातावरण कायम रखने में सफल होते हैं। संसद के भीतर विभिन्न राजनीतिक दलों का व्यवहार भी इससे बाहर नहीं होता। अतः जरूरी है कि संसद के वर्तमान सत्र में दल गत हितों को ताक पर रख कर राष्ट्रीय हितों पर केन्द्रित हुआ जाये जिनमें भारत–चीन सीमा विवाद भी शामिल है।
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