जलता हुआ श्रीलंका पूरी दुनिया के लिए सबक
कभी अपनी रमणीयता से पर्यटन के जरिये अपनी अर्थव्यवस्था चलाने वाला
शोभना जैन
कभी अपनी रमणीयता से पर्यटन के जरिये अपनी अर्थव्यवस्था चलाने वाला, नीले समुद्र और हरियाली का सुरम्य द्वीप श्रीलंका आज धू-धू जल रहा है। फिलहाल वहां राजनीतिक संकट तो गहरा है ही लेकिन उससे बड़ी चुनौती सरकार की निरंकुश नीतियों की वजह से आर्थिक बदहाली की है, जिसे लेकर त्रस्त जनता के सब्र का बांध टूट चुका है। जनसाधारण का असंतोष अब हिंसा और आगजनी पर उतर आया है। छह माह पहले तक जनता के प्रिय राजनीतिक परिवार का दर्जा पाने वाला और कमोबेश हर बड़े संवैधानिक पद पर काबिज होकर निरंकुश सत्ता सुख भोगने वाला राजपक्षे परिवार लोगों के निशाने पर है। जनता देश को इस गर्त में ले जाने के लिए जिम्मेदार परिवार के सभी सदस्यों को सभी पदों से हटाने पर तुली है।
अनिश्चितता के माहौल में हाल ही में भले ही महिंदा राजपक्षे ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ दे दिया है और उनके भाई राष्ट्रपति गोटबाया ने राजनीतिक संतुलन साधने की आखिरी कोशिश में पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री नियुक्त किया है, लेकिन फिलहाल तो यही लगता है कि इस सत्ता परिवर्तन से जनता न तो शांत होने वाली है, न राजनीतिक अस्थिरता के खत्म होने के आसार नजर आ रहे हैं और न ही आर्थिक बदहाली फिलहाल खत्म होती लगती है। दरअसल पिछले कुछ समय से श्रीलंका जिस संवैधानिक, राजनीतिक संकट और देश के अब तक के भीषणतम आर्थिक संकट से गुजर रहा था, हालात इसी अराजकता की ओर बढ़ रहे थे। इस सबके बीच देखें तो भारत अपने निकट पड़ोसी के इस राजनीतिक संकट से दूर रह कर मानवीय सहायता को सर्वोपरि मानते हुए संकट में घिरी श्रीलंका की जनता को सहायता दे रहा है।
भारत बराबर यही कहता रहा है कि श्रीलंका की जनता द्वारा अपनाई गई लोकतांत्रिक प्रक्रिया के जरिये संचालित उनके हितों से उसके रिश्ते बंधे हैं। यानी, भारत वहां किसी सरकार को समर्थन देने की छवि के बजाय श्रीलंकाई जनता के हितों को प्राथमिकता देने वाले पड़ोसी की भूमिका अदा कर रहा है। संकट के इस दौर में वह श्रीलंका को 3।5 अरब डॉलर की मानवीय सहायता भेज चुका है। लेकिन यहां यह बात भी अहम है कि श्रीलंका को कर्ज के बोझ से लादने के बाद उसे इस आर्थिक संकट से उबरने में चीन उसका साथ नहीं दे रहा है। एक विशेषज्ञ के अनुसार चीन, जिसने श्रीलंका को विकास और आधारभूत परियोजनाओं का जाल बिछाने के नाम पर कर्ज से लाद दिया था, अब उसने संभवतः अपने खास एजेंडे के तहत पाकिस्तान की ही तरह श्रीलंका को भी इस आर्थिक संकट से निकालने में कोई प्रयास नहीं दिखाया है।
चीन ने श्रीलंका को बहुत कर्ज दिया और उसकी कंपनियां श्रीलंका में निर्माण कार्यों में भी जुटी थीं। धीरे-धीरे श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो गया। हालांकि 2015 में सिरीसेना राष्ट्रपति चुनाव जीते थे, लेकिन 2019 में राजपक्षे परिवार फिर सत्ता में लौट आया। यह उनका दुर्भाग्य था कि 2020-21 में कोविड ने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को बदहाल कर दिया। उसका पर्यटन उद्योग चौपट हो गया। रूस-यूक्रेन युद्ध ने ईंधन और भोजन की कीमतें बढ़ा दीं। राजपक्षे के कुप्रशासन ने स्थिति को सुधारने के बजाय हालात बदतर कर दिए। साल की शुरुआत में ही श्रीलंका का आर्थिक संकट गहरा गया था। फरवरी तक उसके पास केवल 2।31 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार शेष रह गया था, जबकि उस पर 13 अरब डॉलर का कर्ज था। श्रीलंका पर एशियाई विकास बैंक, जापान, चीन सहित अन्य की देनदारियां शेष थीं। इसके परिणामस्वरूप वहां ईंधन, खाद्य पदार्थों और दवाइयों की भारी किल्लत हो गई, जिनका आयात किया जाता था।
श्रीलंका की अस्थिरता के इस दौर में जरूरी है कि राष्ट्रपति विपक्ष को साथ लें और ऐसे नेता को प्रधानमंत्री पद की जिम्मेवारी सौंपें जिसे जनता का समर्थन हासिल हो, कुल मिलाकर वहां इस वक्त राष्ट्रीय एकता वाली सर्वदलीय सरकार एक विकल्प नजर आती है, जिसे विशेषकर आर्थिक संकट से निकलने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। बेहद अस्थिर हालात से गुजर रहे श्रीलंका में तभी स्थिरता की उम्मीद की जा सकती है।