हिमाचल निर्माण की सरहद

Update: 2023-05-10 10:28 GMT
By: divyahimachal  
हिमाचली विकास के कई पांव भले ही हों, लेकिन इन पर जंजीरों की भी कमी नहीं। सामान्य रूप से हिमाचल ने अपने ऊपर पर्यावरण की ऐसी चादर ओढ़ रखी है, जो इसके विकास का चेहरा अक्सर ढांप लेती है। पर्यावरण की यही चादर हमारी शिकायतों की ओढऩी बनती है, तो यही विकास के मजमूनों को मुजरिम बना देती है। केंद्र और केंद्रीय एजेंसियों के पास हिमाचल के किस्से ही हिमाचल के कच्चे चिट्ठे तब बन जाते हैं, जब हम विकास के लिए पर्यावरण के चादर हटाकर देखना चाहते हैं कि आगे मंजिलें कहां तक हैं। न केवल पर्यावरण एवं वन संरक्षण मंत्रालय, बल्कि ग्रीन ट्रिब्यूनल और अंत में देश की सर्वोच्च अदालत के सामने पर्वत को झुकते हुए देखा जा सकता है। यह सब देश की खातिर है, लेकिन प्रदेश की खातिर भी तो कुछ राहत, कुछ स्थान और कुछ विकल्प मिलें। हैरानी यह कि हिमाचल पर्यावरणीय मामलों में उसी राष्ट्र की अदालत में अभियुक्त बना न•ार आता है, जिसे मैदानी राज्यों के लिए न कोई विषय और न ही विषाद दिखाई देता है। हैरानी यह कि इस समय ‘शिमला विकास योजना’ का प्रारूप मुजरिम बना खुद को बचाने की जुगत लगा रहा है। हाल यह है कि शिमला के विकास से लड़ रहीं 97 आपत्तियां, अदालती जिरह में मशरूफ हैं और दूसरी ओर राजधानी के विषय जंजीरों में कैद हैं।
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने विकास योजना के प्रकाशन का मुहूर्त तो तय कर दिया, लेकिन एक महीने तक विकास अपने ही प्रतिबंध की निगरानी में रहेगा। अभी सत्ता में आते ही सुक्खू सरकार ने प्रदेश की एयर कनेक्टिविटी के तहत विभिन्न हेलीपोर्ट के लिए माकूल जगह की तलाशी शुरू की, लेकिन कानूनों के फेहरिस्त में यह अजूबा कर पाना मुश्किल होता जा रहा है। विकास के तमाम रोशनदानों पर कानूनों के पहरे हर गांव से हर शहर तक एक समान हैं। ऐसे में पर्वतीय राज्यों के विकास और जीवन शैली के आधार को पुख्ता बनाने के लिए, अब एक नई राष्ट्रीय संधि की जरूरत है। कुछ दिन पहले मौसम की क्रूरता ने हिमाचल को नाको चने चबाने को मजबूर किया और इस मंजर के भीतर कहीं न कहीं जंगल की जमीन और पेड़ों की भयावह स्थिति शैतान बन गई। चलती गाडिय़ों और घर की छतों पर गिरे पेड़, आखिर किसकी अमानत हैं। पेड़ों का उगना अगर वन विभाग की शान व प्राथमिकता है, तो इनके गिरने से होने वाली क्षति क्यों सिर्फ मौसम की बर्बादी का दस्तूर बन जाती है। हिमाचल पर पर्यावरणीय चौकसी बरतने वाली आंख कब यह देख पाएगी कि सारा प्रदेश जंगल बन कर नहीं जी सकता। इनसान की जीवन शैली और जीने के दबाव अगर ‘शिमला विकास के लिए नई योजना’ चाहते हैं, तो प्रदेश के खाके में कुछ ऐसे ही संकल्प जंगलात के एक बड़े हिस्से से मुक्त होकर अपना भविष्य पाना चाहते हैं। हम यह मान सकते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों का अनावश्यक दोहन तथा नवनिर्माण का अंधाधुंध प्रसार सही नहीं है, लेकिन सारी जमीन पर उगे जंगल भी सही नहीं हैं। खास तौर पर प्रदेश के लिए हमेशा अनापत्ति प्रमाणपत्रों के लिए दिल्ली की दौड़ भी तो न्याय नहीं।
प्रदेश अपने ही विकास के रास्तों पर कसूरवार हो जाता है, तो पर्वतीय विकास के मायने और मानदंड फिर से क्यों न लिखे जाएं। शिमला जैसा शहर बार-बार जन्म नहीं ले सकता, इसलिए विकास योजना का तात्पर्य उन आपत्तियों से भी जुड़ता है, जो जनता अपनी खुशहाली के लिए देख रही है। बेशक शिमला के कंधे कहीं-कहीं जरूरत से ज्यादा इमारतों ने झुका दिए हैं, तो बढ़ती जनसंख्या ने पर्वतीय परिवेश का संतुलन बिगाड़ दिया है, लेकिन इन सांसों को समेटने के बजाय कुछ तो इंतजाम होगा कि यह शहर अपने फेफड़ों की रक्षा कर सके। यह मसला शिमला का ही नहीं, नयनादेवी, दियोटसिद्ध, डलहौजी, मनाली, मकलोडगंज, कसौली व हर विकासशील शहर से जुड़ता है, तो सोचना यह होगा कि क्षेत्र विकास की योजनाएं आगे चलकर किन शर्तों व उद्देश्यों पर आधारित बनाई जाएं। ‘शिमला विकास योजना’ के दर्पण में सही तरह से झांकें तो शहरी विकास विभाग को सशक्त करने की जरूरत दिखाई देती है। जिस भावना और मकसद से नगर एवं ग्राम योजना कानून बना है, उसे सही परिप्रेक्ष्य में देखते हुए अब पूरे हिमाचल के विकास का प्रारूप बनना चाहिए। हर गांव, कस्बे से शहर तक को अपनी-अपनी विकास योजना के अलावा भूमि बैंक बनाने होंगे, ताकि आइंदा कुछ कदम तयशुदा ढंग से आगे बढ़ाए जा सकें।

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